तालिबान और पंजशीर एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं.पंजशीर के चारों तरफ तालिबान का कब्जा है लेकिन अफगानिस्तान के इस छोटे से राज्य ने विरोध का परचम बुलंद किया है. तालिबान हर हाल में पंजशीर पर कब्जा चाहता है तो पंजशीर के शेर हर कीमत पर आजादी. पंजशीर की घाटियां तालिबान के विरोध का प्रतीक बनती जा रही हैं. विरोध का झंडा जैसे-जैसे ऊंचा हो रहा है, तालिबान के क्रोध का पारा भी बढ़ रहा है.लेकिन तालिबान के गोला-बारूद पंजशीर के हौसले को भेद नहीं पा रहे हैं. पंजशीर के निवासियों का आत्मविश्वास तालिबान की हर तैयारी को कमतर बता रही है.
इस बार पंजशीर को छोड़कर पूरा अफगानिस्तान तालिबान के कब्जे में है. पिछली उत्तरी अफगानिस्तान के कई इलाके तालिबान के कब्जे में नहीं थे. इस बार सिर्फ पंजशीर को छोड़कर पूरा उत्तरी अफगानिस्तान भी तालिबान के कब्जे में है. लेकिन यह सच्चाई भी पंजशीर के लोगों पर कोई प्रभाव नहीं डाल रहा है. वे तालिबान के खिलाफ लड़ाई सड़ रहे हैं. पिछली बार इस लड़ाई का नेतृत्व और अगुआई अहमद शाह मसूद ने की थी तो इस बार नेतृत्व की कमान उनके 32 वर्षीय बेटे अहमद मसूद के कंधे पर है. उनके साथ गनी सरकार में उप-राष्ट्रपति रहे अमरुल्लाह सालेह भी हैं. गनी के देश छोड़कर चले जाने के बाद सालेह ने खुद को देश का कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित किया है.
यह साफ है कि तालिबान के खिलाफ लड़ाई का केंद्र अब पंजशीर है. अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के बावजूद तालिबान के सामने पंजशीर की फतह चुनौती है. लेकिन पंजशीर के सामने भी अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती है. पिछली बार के मुकाबले इस बार हालात ज्यादा मुश्किल हैं. सालेह और मसूद के लिए अफगान लोगों के बीच 1990 के दशक जैसा समर्थन हासिल करना भी बड़ी चुनौती होगी.
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पंजशीर की स्थिति उस द्वीप जैसे है जो चारों तरफ पानी से घिर गया हो और अब भी लगातार आ रहा पानी घर में घुसना चाह रहा हो. पंजशीर के सामने सबसे जरूरी चीज बाहर से आने वाली चीजे हैं. चारो तरफ से तालिबान से घिरे पंजशीर को हर तरह की सप्लाई लाइन काट दिए जाने का भी डर है.
पंजशीर की प्राकृतिक स्थिति उसे बहुत सुरक्षित रखता है. लेकिन सिर्फ प्रकृति के भरोसे लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. काबुल से 150 किलोमीटर दूर उत्तर में स्थित पंजशीर घाटी हिंदुकुश के पहाड़ों के करीब है. उत्तर में पंजशीर नदी इसे अलग करती है. पंजशीर का उत्तरी इलाका पंजशीर की पहाड़ियों से भी घिरा है. वहीं दक्षिण में कुहेस्तान की पहाड़ियां इस घाटी को घेरे हुए हैं. ये पहाड़ियां सालभर बर्फ से ढंकी रहती हैं. इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि पंजशीर घाटी का इलाका कितना दुर्गम है. इस इलाके का भूगोल ही दुश्मन के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाता है.
1980 के दशक में सोवियत संघ का शासन, फिर 1990 के दशक में तालिबान के पहले शासन के दौरान अहमद शाह मसूद ने इस घाटी को दुश्मन के कब्जे में नहीं आने दिया. मई के बाद जब तालिबान ने एक बाद एक इलाके पर कब्जा करना शुरू किया तो बहुत से लोगों ने पंजशीर में शरण ली. उन्हें ये उम्मीद थी कि पहले की ही तरह इस बार भी ये घाटी तालिबान के लिए दुर्जेय साबित होगी. उनकी ये उम्मीद अब तक सही साबित हुई है.
1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई में पंजशीर के लड़ाकों को अमेरिका ने हथियार देकर मदद की थी. वहीं वित्तीय मदद उसे पाकिस्तान के जरिए आती थी. उसके बाद जब तालिबान सत्ता में आया तो यहां सक्रिय नॉर्दर्न अलायंस को भारत, ईरान और रूस से मदद मिली. लेकिन इस बार तालिबान ज्यादा मजबूत है और पंजशीर की भी स्थिति अलग है.
HIGHLIGHTS
- तालिबान के खिलाफ लड़ाई का केंद्र अब पंजशीर है
- 1980 के दशक में पंजशीर के लड़ाकों को अमेरिका ने दिया था हथियार
- पंजशीर सिर्फ प्रकृति के भरोसे लड़ाई नहीं लड़ सकता