मंकीपॉक्स (Monkeypox), कोरोना वायरस (Corona Virus), जीका (Zika), इबोला (Ebola) कुछ ऐसे नाम हैं, जिनसे बीते कुछ सालों में दुनिया भर के लोग परिचित हो गए हैं. इनमें से अधिकांश वायरस (Virus) जनित बीमारियां एशिया (Asia) या फिर अफ्रीका (Africa) में पहली बार सामने आईं. जाहिर है किसी वायरस की खोज किसी बीमारी के पहली बार सामने आने के बाद ही होती है. फिर भी इन वायरस की उत्पत्ति की पहचान करना आसान नहीं होता. इस कड़ी में सार्स-काव-2 (SARS-CoV-2) वायरस का उदाहरण दिया जा सकता है, जिससे कोरोना महामारी फैली. कोरोना को लेकर हुए शोध से पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि इसकी शुरुआत चीन के वुहान (Wuhan) की सी-फूड मार्केट से हुई. हालांकि कुछ विशेषज्ञ आज भी इसी बात को मान रहे हैं कि कोरोना वायरस को वुहान की एक प्रयोगशाला में तैयार किया गया.
वायरस की उत्पत्ति की पहचान आसान नहीं
पैन स्टेट यूनिवर्सिटी में प्लांट पैथोलॉजी एंड इन्वायरमेंटल माइक्रोबायोलॉजी की प्रोफेसर मार्लिन जे रूजसिंक के मुताबिक वायरस जनित किसी नई बीमारी की पहचान करना फील्ड वर्क, लैब टेस्टिंग और कुछ हद तक किस्मत पर निर्भर करता है. अगर मानव इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि शुरुआती दिनों में तमाम वायरस वातावरण में थे, जो इंसानी जिंदगी को कतई कोई नुकसान नहीं पहुंचाते थे. जानवरों में पाए जाने वाले तमाम वायरस भी तभी पहचाने गए, जब वे जानवरों के जरिये इंसानों के संपर्क में आए. ऐसे वायरस से सामनेआने वाली बीमारियों को 'जूनोटिक बीमारियों' के तौर पर निरूपित किया जाता है. कोविड-19, मंकीपॉक्स, इबोला और प्लेग या रैबीज बेहद पुरानी बीमारियां हैं. एक दूसरी समस्या यह है कि इंसान और जानवर किसी एक स्थान पर नहीं ठहरते हैं. ऐसे में अगर किसी स्थान पर पहला संक्रमित शख्स मिलता है, तो इसका यह मतलब कतई नहीं कि वायरस सबसे पहले वहीं पाया गया. ऐसे में वायरस की जेनेटिक पहचान कर उसकी संभावित उत्पत्ति के स्थान का पता लगाया जा सकता है.
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कहां पाए जाते हैं सबसे ज्यादा वायरस?
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 'डिजीज़ आउटब्रेक न्यूज' के मुताबिक जनवरी 2021 से आज तक अधिसंख्य मामले एशियाई या अफ्रीकी देशों में ही सबसे पहले सामने आए. डिजीज़ आउटब्रेक वैश्विक स्तर पर ज्ञात और अज्ञात रोगों के मामले सामने लाने का काम करती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के विश्लेषण के मुताबिक 2001 से 2011 की तुलना में 2012 से 2022 के बीच अफ्रीका से जूनोटिक बीमारियों में 63 फीसदी का इजाफा देखने में आया. 'द अमेरिकन नैचुरलिस्ट' में 2016 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के हवाले से देखा जाए तो चमगादड़ से फैलने वाले वायरस के लिहाज से पश्चिमी अफ्रीका उच्चतम जोखिम वाला क्षेत्र है. 1900 और 2013 के डेटा के मुताबिक सब-सहारा अफ्रीका क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व एशिया भी ऐसी बीमारियों के लिहाज से जोखिम भरे इलाके हैं.
अक्सर अफ्रीका-एशिया में ही क्यों मिलते हैं वायरस?
ऐसा भी नहीं है कि ये इलाके स्वाभाविक रूप से नई बीमारियों को जन्म देते हैं. इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है इन महाद्वीपों में जनसंख्या घनत्व के कारण इंसान के जानवरों के संपर्क में आने की संभावनाएं सबसे ज्यादा हैं. ऐसे में बीमारियों के फैलने का खतरा कहीं ज्यादा बढ़ जाता है. इसके साथ ही इन क्षेत्रों में आने वाले देशों में नाटकीय, परिवर्तनकारी बदलावों का भी शोधकर्ता खासतौर पर जिक्र करते हैं. उनका कहना है कि 18वीं और 19वीं सदी में ब्रिटेन भी औद्योगिकीकरण के दौरान लगभग ऐसे ही बदलावों के दौर से गुजरा है. उस वक्त टाइफाइड और हैजा जैसी बीमारियों से दो-चार हुआ. 2018 के द नेचर पेपर के अनुसार यात्रा की बढ़ी आवृत्ति और पहुंच, जमीन के इस्तेमाल की बदलती शैली, खान-पान समेत डाइट में बदलाव, युद्ध और सामाजिक उतार-चढ़ाव समेत जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से इंसानों और पानी के स्रोतों के बीच संपर्क बढ़ता है. इस वजह से जूनोटिक बीमारियों के वायरस के संपर्क में आने का जोखिम बढ़ता है और संक्रमित लोगों के जरिये बीमारियां तेजी से फैलती हैं.
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अफ्रीका से कम फैलती बीमारियां
अगर खासतौर पर अफ्रीका की बात करें तो जानवरों में फैले संक्रमण से इंसानों के संक्रमित होने की घटनाएं सदियों पुरानी हैं. यह अलग बात है कि व्यापक स्तर पर संक्रमण और उससे होने वाली मौतें अफ्रीका तक ही सीमित रही हैं. यातायात के दयनीय साधन इसकी रोकथाम का काम करते रहे हैं. उस दौर की तुलना में अगर पिछले कुछ दशकों पर नजर डालें तो अधोसंरचना के विकास के साथ-साथ शहरीकरण बहुत तेजी से हुआ है. इसके साथ ही जैव विविधता संपन्न क्षेत्रों को विकास के नाम पर साफ करने से विभिन्न प्रजातियों में संपर्क तेजी से बढ़ा है. रही सही कसर बद्तर स्वास्थ्य सेवाओं और सामाजिक उथल-पुथल ने पूरी कर दी, जिन्हें भी इन बीमारियों के फैलाव के लिए दोष दिया जा सकता है.
एशिया के भी अपने हैं कारण
एशिया के अपने कारण हैं. घने जंगल और वन्यजीवों के मांसाहार समेत चिकत्सकीय इस्तेमाल से जूनोटिक बीमारियों का फैलाव बढ़ा है. हालांकि विभिन्न प्रजातियों के संपर्क में आने से सार्स-काव-2 वायरस के बाद से जानवरों की खरीद-फरोख्त वाले बाजारों पर कड़ी नजर रखी जाने लगी है. इन क्षेत्रों के लिए उक्त कारण बेहद पुराने हैं, लेकिन अब ये बीमारियों के प्रचार-प्रसार में महती भूमिका निभाने लगे हैं, क्योंकि बीते कुछ दशकों में लोगों का परस्पर संपर्क बढ़ा है. लोग दुनिया के कोने-कोने में काम या पर्यटन के सिलसिले में आमद दर्ज कराने लगे हैं.
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वैश्विक स्वास्थ्य एजेंसियों और विशेषज्ञों के लिए आगे क्या?
बीमारियों के प्रचार-प्रसार के लिए जो कारण बताए जा रहे है, उससे तो यही लगता है कि समय के साथ यह और तेजी पकड़ेंगी. इस बात ने स्वास्थ्य एजेंसियों समेत विशेषज्ञों को भी चिंता में डाला हुआ है. हालांकि विशेषज्ञ इसके समाधान के लिए एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण अपनाने की सलाह देते हैं. कोरोना महामारी के आलोक में इसके तहत मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण का स्वास्थ्य और जानवरों के स्वास्थ्य को एक साथ जोड़कर देखा जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयसस ने 2021 में कहा था, हम इंसानी स्वास्थ्य की तब तक सुरक्षा नहीं कर सकेंगे जब तक उसके उन क्रिया-कलापों का अध्ययन नहीं करते जो पारिस्थितिक प्रणाली, आवासों पर अतिक्रमण और इस कारण जलवायु परिवर्तन पर असर डाल रही हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि इनमें से किसी के भी अति-दोहन से इंसान को बचना होगा, समय पर इन्हें पहुंचे नुकसान की भरपाई कर इनके स्वास्थ्य पर नजर रखनी होगी तभी सामूहिक रूप से सभी का स्वास्थ्य सुरक्षित किया जा सकेगा. इसके बाद ही किसी रोग सेहोने वाले नुकसान को कम किया जा सकेगा.
HIGHLIGHTS
- वायरस और उसकी उत्पत्ति की पहचान कई पैमानों पर निर्भर
- अफ्रीका में जूनोटिक बीमारियों का प्रचार-प्रसार 63 फीसद बढ़ा
- एशिया में मांसाहार और चिकित्सा के लिए जानवरों का प्रयोद