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NATO संग भारत भी कर रहा अब बातचीत, जानें इसका महत्व और परिणाम

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत (India) भी नाटो के सदस्य देशों के संपर्क में रहता है. खासकर चीन (China) और पाकिस्तान (Pakistan) की नाटो देशों से परस्पर द्विपक्षीय बातचीत के बाद भारत नें 2019 में पहला राजनीतिक संवाद किया था.

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Nihar Saxena
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चीन की नाटो संग अब तक कई राउंड की बातचीत हो चुकी है.( Photo Credit : न्यूज नेशन)

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फरवरी में शुरू हुए यूक्रेन-रूस युद्ध (Ukraine Russia War) को चलते हुए अब छह माह से अधिक हो चुके हैं. इसने उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) को शीत युद्ध के बाद फिर एक बार न सिर्फ वैश्विक मंच पर सुर्खियों में ला दिया, बल्कि दो और देश भी इसके नए सदस्य बन गए. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत (India) भी नाटो के सदस्य देशों के संपर्क में रहता है. खासकर चीन (China) और पाकिस्तान (Pakistan) की नाटो देशों से परस्पर द्विपक्षीय बातचीत के बाद भारत नें 2019 में पहला राजनीतिक संवाद किया था, जिसमें भारतीय विदेश मंत्री समेत रक्षा मंत्री ने शिरकत की थी. हालांकि भारत ने नाटो (NATO) के अन्य सदस्य देशों की तरह सैन्य या द्विपक्षीय सहयोग को लेकर कोई वादा नहीं किया. इस बातचीत का मकसद विशुद्ध राजनीतिक था, जो क्षेत्रीय और वैश्विक मसलों पर नाटो के सदस्य देशों से सहयोग हासिल करने के प्रयास सरीखा ही था. यही परिपाटी आगे की बातचीत में भी अपनाई जाने की अपेक्षा जताई गई थी.

है क्या नाटो
उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन एक राजनीतिक और सैन्य गठबंधन है, जिसमें यूरोप के 28 और उत्तरी अमेरिका के दो देश शामिल हैं. इसका गठन 1949 में अमेरिका, कनाडा और पश्चिमी यूरोप के कुछ और देशों ने किया था. उस वक्त इस संगठन का मकसद तत्कालीन सोवियत संघ से सामूहिक सुरक्षा सुनिश्चित करना था. पश्चिमी गोलार्ध के बाहर शीतयुद्ध के दौरान यह अमेरिका का पहला सैन्य गठबंधन था. वर्तमान में 30 देश नाटो के सदस्य हैं, जिसका मुख्यालय बेल्जियम के ब्रुसेल्स में है. नाटो के एलाइड कमांड ऑपरेशंस का मुख्यालय भी बेल्जियम के मॉन में है. 

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नाटो की सामूहिक सुरक्षा अवधारणा 
नाटो के सदस्य देश किसी बाहरी देश के हमले की स्थिति में आपसी रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. सामूहिक सुरक्षा नाटो के गठन के मूल में विद्यमान है. यह एक ऐसा विशिष्ट और स्थायी सिद्धांत हैं जो नाटो के सदस्य देशों का परस्पर बांधे हुए हैं. नाटो के सभी सदस्य देश एक-दूसरे की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, जो इस गठबंधन की एकजुटता की भावना को प्रमुखता से सामने लाता है. नाटो की संस्थापक संधि के पांचवें अनुच्छेद में इस  प्रतिबद्धता का जिक्र भी है. नाटो गठबंधन संधि के अनुच्छेद 5 के तहत, 'गठबंधन के सभी पक्ष इस बात से पूरी तरह से सहमत है कि यूरोप या उत्तरी अमेरिका के सदस्य कोई एक या कई देशों पर किसी गैर सदस्य देश का सशस्त्र हमला सभी पर हमला माना जाएगा. इसी के साथ सभी पक्ष इस बात पर भी सहमत हैं कि यदि ऐसा कोई हमला होता है तो संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 51 के तहत प्रत्येक नाटो सदस्य देश हमले का शिकार बने पक्ष या पक्षों की सैन्य मदद करेंगे. संयुक्त राष्ट्र का अनुच्छेद 51 निजी या सामूहिक तौर पर आत्मरक्षा का अधिकार देता है. नाटो के सदस्य देश जरूरत पड़ने पर ऐसी स्थिति में अकेले दम या सामूहिक तौर पर उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र की सुरक्षा बनाए रखने में सशस्त्र सेना का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.   '

नाटो गठबंधन की जरूरत का कारण
द्वितीय विश्व युद्ध के खात्मे के बाद यूरोपीय देश अपनी-अपनी अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने में जुट गए थे. उस वक्त अमेरिका का मानना था कि आर्थिक रूप से मजबूत, सैन्य मोर्चे पर मजबूत संगठित यूरोप साम्यवादी सोवियत संघ समाजवादी गणराज्य (यूएसएसआर) के पश्चिम की तरफ विस्तार को रोकने के लिए बेहद जरूरी है. इसी उद्देश्य की खातिर अमेरिका ने बड़े पैमाने पर यूरोपीय महाद्वीप के देशों को आर्थिक मदद मुहैया शुरू की. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हैनरी एस ट्रूमैन, विदेश मंत्री जॉर्ज सी मार्शल अमेरिका और यूरोप के साझा हितों और सहयोग के विचार के साथ यूरोपीय रिकवरी प्रोग्राम शुरू किया, जिसे मार्शल प्लान के नाम से जाना जाता है. तत्कालीन यूएसएसआर ने मार्शल प्लान का हिस्सा बनने से इंकार कर दिया और पूर्वी यूरोपीय देशों को अमेरिकी आर्थिक मदद स्वीकार नहीं करने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने लगा. 1946-49 में ग्रीक गृह युद्ध के दौरान अमेरिका-ब्रिटेन ने सोवियत समर्थित वामपंथियों को ग्रीस पर नियंत्रण स्थापित करने से रोका. 1947-48 में तुर्की और ग्रीस में साम्यवादी क्रांतियों को अमेरिका ने अपने दम रोका. 1948 में चेकोस्लोवाकिया में स्टालिन सरकार ने तख्तापलट करने का प्रयासकिया, जो यूएसएसआर से अपनी सीमाएं साझा करता था. 1948-49 में पश्चमी बर्लिन में अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन को पीछे ढकेलने में सोवियत संघ का ब्लॉकेड सफल रहा. इसने भी क्षेत्र में कई बड़ी समस्याओं का जन्म दिया. इन सब घटनाओं से अमेरिका को दृढ़ विश्वास हो गया था कि यूएसएसआर के खिलाफ अमेरिकी-यूरोपीय गठबंधन बेहद जरूरी है. यूरोपीय देशों को भी लगने लगा था कि यूरोप के देशों की सुरक्षा के लिए भी एक ऐसा गठबंधन होना चाहिए. इस कड़ी में मार्च 1948 में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड्स और लक्जमबर्ग ने सामूहिक सुरक्षा के लिए ब्रूसेल्स संधि पर हस्ताक्षर किए. ब्रुसेल्स संधि के कुछ महीनों बाद अमेरिकी कांग्रेस ने वैंडेनबर्ग विधेयक पारित किया, जो कालांतर में नाटो का आधार बना. 4 अप्रैल 1949 को वॉशिंगटन में नाटो संधि पर सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किए. उस वक्त अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस. डेनमार्क, बेल्जियम, नॉर्वे, पुर्तगाल, नीदरलैंड्स, इटली, आइसलैंड और लक्जमबर्ग ही नाटो के सदस्य थे.  

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नाटो से भारत की बातचीत का विशेष महत्व 
नाटो के सदस्य देशों से भारत की बातचीत इस लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है कि द्विपक्षीय बातचीत में उत्तरी अटलांटिक गठबंधन सदस्य न होते हुए भी चीन और पाकिस्तान को शामिल कर चुका है. इसके मद्देनजर जरूरी थाकि नई दिल्ली की रणनीतिक अनिवार्यताओं में बीजिंग और इस्लामाबाद की भूमिका को देखते हुए, नाटो तक पहुंचने से अमेरिका और यूरोप संग भारत के बढ़ते जुड़ाव में एक महत्वपूर्ण आयाम भी जुड़ जाए. दिसंबर 2019 तक नाटो की बीजिंग से 9 राउंड बातचीत हो चुकी थी. इसके अलावा ब्रुसेल्स में चीनी राजदूत औऱ नाटो के उप-महासचिव प्रत्येक तिमाही बातचीत करते हैं. बीजिंग के अलावा नाटो पाकिस्तान संग भी राजनीतिक बातचीत और सैन्य सहयोग पर काम कर रहा है. नाटो ने पाकिस्तान के चुनिंदा सैन्य अधिकारियों के लिए एक  प्रशिक्षण कार्यक्रम भी लाया था. इसके अलावा सैन्य बातचीत के लिए नाटो के एक प्रतिनिधिमंडल ने नवंबर 2019 में पाकिस्तान का दौरा भी किया. इन हालातों में नाटो संग पहले दौर की बातचीत के लिए 12 दिसंबर 2019 का दिन मुकर्रर हुआ. ब्रुसेल्स में भारतीय राजदूत को नाटो की ओर ड्राफ्ट एजेंडा भी भेजा गया था. सरकार का यही मानना है कि नाटो संग राजनीतिक संवाद जारी रख भारत के लिहाज से महत्वपूर्ण क्षेत्रीय मसलों और स्थितियों पर नाटो के सदस्य देशों की धारणाओं में एक संतुलन भी कायम रखा जा सकेगा.

नाटो संग भारत के साझा हित
भारत के आकलन में चीन, आतंकवाद और अफगानिस्तान खासकर वहां पाकिस्तान की भूमिका को लेकर भारत और नाटो के बीच कन्वर्जेंस होना चाहिए. इस कड़ी में भारत ने नाटो संग पहली बार बातचीत में तीन साझा मसलों पर नाटो से सीमित बातचीत कर अपना पक्ष रखा था.
1. नाटो के नजरिये में चीन के बजाय रूस बड़ा खतरा था, जिसका आक्रामक रवैया यूरो-एटलांटिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है. साथ ही उसे लगता था कि नाटो-रूसी परिषद की बैठक करने में समस्याएं पेश आ रही थीं, क्योंकि रूस ने यूक्रेन और  इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज संधि को बातचीत के एजेंडे में शामिल करने से सिरे से इंकार कर दिया था. 
2. नाटो के सदस्य देशों में एकरूपता नहीं होने से चीन को लेकर उनके मिश्रित विचार थे. हालांकि नाटो के सभी सदस्य देश चीन के बढ़ते कद पर विचार करते थे, लेकिन उनका निष्कर्ष एक ही था, जिसके मुताबिक चीन उनके लिए चुनौती के साथ-साथ अवसर भी है.
3. अफगानिस्तान में नाटो तालिबान को राजनीतिक सत्ता के रूप में देखता था, जो भारत के पक्ष से मेल नहीं खाता था. यह बात सितंबर 2021 में अफगानिस्तान में तालिबान की अंतरिम सरकार के गठन से भी दो साल पहले की है. हालांकि सूत्रों के मुताबिक 2019 में नाटो संग बातचीत में भारतीय पक्ष को अहसास हो गया था कि समुद्री सुरक्षा भविष्य की बातचीत के लिए एक मुख्य मसला रहेगा, जो नाटो के लिए मुख्य मसला है. 

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भारत-नाटो बातचीत में चीन पर साझा समझ और आगे का रास्ता
नाटो संग अपने पहले दौर की बातचीत में भारत को अहसास हो गया था कि रूस-तालिबान की गुटबाजी से उसके हित और भारत का पक्ष मेल नहीं खाता है. चीन को लेकर भी नाटो के विचार मिले-जुले थे. ऐसे में नाटो के सदस्य देशों में एकरूपता नहीं होने से भारत ने बीजिंग के साथ संबंधों में संतुलन लाने के लिए क्वाड की सदस्यता ली. अन्यथा चीन और पाकिस्तान संग नाटो गठबंधन की अलग-अलग भागीदारी भारत के लिए क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा मामलों पर एकतरफा दृष्टिकोण ही साबित होती. सूत्रों के मुताबिक पहले राउंड की बातचीत में नाटो ने परस्पर सहमति से तैयार एजेंडे पर भारत से जुड़ाव रखने की इच्छा जाहिर की थी. नाटो के नजरिये में अपनी भू-रणनीतिक स्थिति और विभिन्न मुद्दों पर अलग नजरिये से भारत वैश्विक सुरक्षा के लिहाज से प्रासंगिक साझेदार हो सकता है. इसके साथ भारत अपनी क्षेत्रीय और उससे परे मसलों पर भी नाटो के लिए महत्वपूर्ण साझेदार हो सकता है. उस वक्त 2020 में नई दिल्ली में नाटो-भारत के बीच दूसरे दौर की बातचीत के लिए भी दोनों पक्ष सहमत थे, लेकिन कोरोना महामारी से इसमें विलंब होता गया. जहां तक भारत की चिंताओं का सवाल है, उस वक्त बातचीत में नाटो ने यह भी महसूस किया कि यदि भारत से द्विपक्षीय बातचीत के लिए साझा सहयोग पर चर्चा की जा सकती है. यह चर्चा परस्पर बातचीत के प्रारंभिक चरणों में विभिन्न मसलों पर बनी सहमति के आधार पर हो सकती है. हालांकि इस पर भी मिले-जुले विचार थे. कुछ का कहना था कि बातचीत जारी रख आगे का मार्ग प्रशस्त करना तर्कसंगत है, जबकि कुछ संशकित थे कि नाटो के नजरिये से जुड़ी संवेदनशीलता उसके विस्तारवादी स्वरूप में सामने आ सकती है. 

HIGHLIGHTS

  • चीन-पाकिस्तान की नाटो संग परस्पर बातचीत से भारत ने बदला पैतरा
  • 2019 में ब्रुसेल्स में भारत ने नाटो से की पहले दौर की राजनीतिक वार्ता
  • क्षेत्रीय चुनौतियों और साझा हितों पर भारत-नाटो की आगे भी होगी वार्ता
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