भारतीय जनता पार्टी (BJP) की उत्तर प्रदेश इकाई ने विगत दिनों लखनऊ में पसमंदा मुसलमानों की अपनी तरह की पहली बैठक का आयोजन किया. भारत में सामुदायिक स्तर पर गैर विशेषाधिकार प्राप्त बहुसंख्यकों तक पहुंच बनाने के बीजेपी के प्रयासों का यह एक कड़ी थी. उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक (Brajesh Pathak) ने भारत के राजनीतिक दलों द्वारा पसमंदा मुसलमानों (Muslims) को लेकर व्यवहार की तुलना 'तेजपत्ता' से की, जिसे बिरयानी बन जाने के बाद खाते वक्त प्लेट से निकाल कर बाहर फेंक दिया जाता है. इसके साथ ही उन्होंने आश्वस्त किया कि पसमंदा मुसलमानों के प्रति आचार-व्यवहार और नीतियां बनाने में मोदी सरकार (Modi Government) बहुत अलग साबित होगी.
आखिर हैं कौन पसमंदा मुसलमान
फारसी भाषा के शब्द पसमंदा का शाब्दिक अर्थ होता है 'पीछे छूट जाने वाले'. इस शब्द का इस्तेमाल मुसलमानों के दबे-कुचले वर्ग के लिए होता है, जो सत्ता और विशेषाधिकार के क्रम में जाने-अनजाने बाहर रखे गए. पिछड़े, दलित और जनजातीय मुसलमान पसमंदा शब्द का इस्तेमाल एकल पहचान के तौर पर करते हैं. इसके जरिये ये वास्तव में मुस्लिम समुदाय में जाति आधारित भेद-भाव के खिलाफ अपनी आवाज मुखर करते हैं. 1998 में अली अनवर अंसारी ने पटना में पसमंदा मुस्लिम महाज की स्थापना करते समय इस शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया था. भूतपूर्व राज्य सभा सांसद और ऑल इंडिया पसमंदा मुस्लिम महाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष और संस्थापक अली अनवर 'अंसारी' जाति के पिछड़े मुसलमान हैं. वह बताते हैं, 'इस समय पसमंदा मुसलमानों में दलित भी शामिल हैं, लेकिन सभी पसमंदा दलित नहीं होते. संवैधानिक आधार पर बात करें तो हम सभी अति पिछड़े वर्ग में आते हैं, लेकिन आगे चलकर हम चाहते हैं कि दलित मुसलमानों को अलग से पहचाना जाए.'
यह भी पढ़ेंः Congress President: खड़गे हों या थरूर... कुछ न कुछ होगा पहली बार, जानें
इस्लाम तो बगैर किसी जाति व्यवस्था के समतावादी धर्म है...
सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में यह बात खरी नहीं बैठती. भारतीय उपमहाद्वाप में जाति व्यवस्था समाज का एक जरूरी अंग रही है. साथ ही सामाजिक संगठन के रूप में भी जाति व्यवस्था मूल आधार है. समतावादी लोकाचार की बात करने वाले सभी धर्म भारत में अपने आचार-व्यवहार में जातियों में बंटे हुए हैं. ऐसे में इस्लाम भले ही सामाजिक पदानुक्रम बनाने को जरूरी नहीं करार देते हुए अविभाजित वैश्विक 'उम्मा' की अवधारणा पेश करता हो, लेकिन भारत भर में मुसलमानों के लिए जाति श्रेणी का होना एक जीवंत वास्तविकता है. भारतीय मुस्लिम समाज को व्यापक स्तर पर अभिजात वर्ग या सम्मानीय 'अशरफ', पिछड़े मुसलमान 'अजलाफ' और दलित मुस्लिम 'अरजाल' में बांटा गया है. 'अशरफ' इस्लामी मातृभूमि करार दिए जाने वाले अरब, फारस, तुर्किए, अफगानिस्तान देशों के क्रमशः सैयद, शेख, मुगल और पठान के वंशज होने का दावा करते हैं. इनमें हिंदू धर्म के राजपूत, गौर, त्यागी से धर्मान्तरित होकर मुसलमान बने लोग भी शामिल हैं. 'अजलाफ' मध्य जाति के धर्मान्तरित लोग हैं, जो साफ-सुथरे माने गए व्यवसायों से जुड़े हुए हैं. मसलन मोमिन या जुलाहा, दर्जी या इदीरिस और रेयन या कुंजारा के रूप में सब्जियों की खरीद-फरोख्त करने वाले. 'अरजाल' परंपरागत रूप से सामाजिक ताने-बाने से परे माने जाते थे. 1901 की जनगणना में इनकी संख्या पहली बार दर्ज की गई. ये मुसलमानों की निम्नतम या अछूत माने जाने वाली जाति व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं. मसलन हलालखोर, हेलस, लालबेगी या भंगी, धोबी, नाइस या हज्जाम, चिक्स या कसाई और फकीर यानी भिखारी. 2005 में भारतीय मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के अध्ययन के लिए गठित राजेंद्र सच्चर समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था, 'भारतीय मुसलमानों को तीन समूहों में बांटा जा सकता है. पहले, हर तरह की सामाजिक कमतरी से परे लोग यानी अशरफ. दूसरे, हिंदुओं के अति पिछड़ा वर्ग के समकक्ष अजलाफ और तीसरे, हिंदुओं की अनुसूचित जनजाति के समकक्ष अरजाल. मुसलमानों के अति पिछड़ा वर्ग करार दिए जाने वालों में अजलाफ और अरजाल दोनों ही वर्गों के मुसलमान आते हैं.' मई 2007 में जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया था कि भारत में मुसलमानों समेत हर धार्मिक समुदाय में जाति व्यवस्था का गहरा प्रभाव है.
कुल कितने भारतीय मुसलमान पसमंदा हैं
इस संख्या के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. जातिगत आधारित मतगणना के अभाव में कोई सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. 2004-05 में सच्चर समिति के मुताबिक भारत के कुल मुसलमानों में 40 फीसदी एससी-एसटी समेत अति पिछड़ा वर्ग के मुसलमान हैं. हालांकि पसमंदा समाज के विद्वान और कार्यकर्ता यह आंकड़ा 80 से 85 फीसदी बताते हैं. यह दावा 1871 जनगणना से बहुत हद तक मेल भी खाता है, जिसके मुताबिक भारत में सिर्फ 19 फीसदी मुसलमान ही उच्च वर्ग से आते हैं. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि भारतीय मुसलमानों में निम्न और उच्च जाति दर का औसत 80:20 का है. कुछ का दावा है कि विभाजन के दौरान मुस्लिम उच्च वर्ग बड़े पैमाने पर नवगठित पाकिस्तान चला गया. इसके बाद यह औसत 85/15 का ही रह गया है. इस कड़ी में अली अनवर अंसारी निम्न और उच्च जाति दर के औसत 80:20 को अपना समर्थन देते हैं. उनके मुताबिक भारत के हरेक राज्य में पसमंदा मुसलमान रह रहे हैं. उनके नाम अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन जहां-जहां मुसलमान हैं, वहां-वहां पसमंदा भी हैं.
यह भी पढ़ेंः LeT के शाहिद मोहम्मद को वैश्विक आतंकी घोषित करने में चीन ने फिर डाला अड़ंगा
पसमंदा मुसलमानों की मागें क्या हैं
पसमंदा मुसलमान खासतौर पर इस असमानता का जिक्र अक्सर करते हैं कि भारतीय मुसलमानों में पसमंदा का भारी बहुमत तो है, लेकिन सरकारी नौकरी, विधायिकाओं और सरकार द्वारा संचालित अल्पसंख्यक संस्थाओं में इसकी तुलना में प्रतिनिधित्व बेहद कम है. यहां तक कि मुस्लिम समुदाय द्वारा संचालित संस्थाओं में भी इनकी मौजूदगी न के बराबर ही है. ऐसे में पसमंदा मुसलमान जातिगत जनगणना की मांग करते हुए आरक्षण के विद्यमान वर्गों की नए सिरे से पुनर्संरचना पर भी जोर देते हैं. साथ ही चाहते हैं भारतीय मुस्लिम समाज में हाशिये पर रह रहे वर्गों से जुड़े कारीगर, कलाकारों और खेतिहर मजदूरों का सरकार का संरक्षण मिले. 2024 लोकसभा चुनाव से पहले पसमंदा संगठनों ने दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग भी उठाई है. वे यह भी चाहते हैं कि अति पिछड़ा वर्ग से जुड़े आरक्षण कोटा की नए सिरे से समीक्षा कर केंद्र और राज्य स्तर पर अति पिछड़ी जातियों का एक नया वर्ग बनाया जाए, जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों की अति पिछड़े लोगों को नुमाइंदगी मिले. इस क्रम में पसमंदा संगठन बिहार मॉडल का उदाहरण देते हैं. बिहार में अति पिछड़ा जातियों में ही एमबीसी वर्ग बनाया गया है. सच्चर समिति के प्रस्तावों के तहत इस श्रेणी में 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई है. पसमंदा नेताओं का कहना है कि एससी-एसटी में दलित मुसलमानों को शामिल करने से एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत उन्हें सामाजिक सुरक्षा मिल जाएगी. इस तरह उन्हें धार्मिक आधार पर निशाना बनाना आसान नहीं होगा.
जानें पसमंदा आंदोलन का इतिहास
मुसलमानों के इस शोषित-वंचित तबके का सबसे बड़ा दुःख श्रेष्ठिवर्ग के अशरफ मुसलमानों द्वारा उन्हें जान-बूझकर नजरअंदाज कर हाशिये पर बनाए रखना है. अशरफ 'मुस्लिमता' पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करने के लिए जाने जाते हैं. इस क्रम में अशरफ सामाजिक-आर्थिक कमतरी के आधार पर समुदाय में दबाव और अन्य मुस्लिम जातियों के बहिष्कार का फैसला करते हैं. इसके साथ ही पसमंदा धार्मिक आधार पर सभी मुसलमानों को आरक्षण की मांग का भी विरोध करते हैं. इस संदर्भ में उनका तर्क है कि यह मांग मुस्लिम समाज के भीतर राज्य के संसाधनों तक सभी की असमान पहुंच प्रदान करेगी. अशरफ श्रेष्ठि वर्ग की मुसलमानों की धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक विशिष्टता की मांग से इतर पसमंदा जाति और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ी पहचान की बात करते हैं. पसमंदा शब्दावली के इस्तेमाल और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने से जुड़े उनके आंदोलन ने मंडल लागू करने के बाद के सालों में तेजी पकड़ी. हालांकि उनकी इन मागों की जड़ें आजादी हासिल करने से भी पहले के दौर से जुड़ी हुई हैं. खासतौर पर अब्दुल कयूम अंसारी और मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी के रूप में दो जुलाहा समुदाय के नेताओं ने मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति की मुखालफत की. इसके साथ ही मुस्लिम लीग के दावे कि वह समग्र भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है को भी चुनौती दी. उक्त दो नेताओं को पसमंदा आंदोलन का आधारस्तंभ करार दिया जाता है. पसमंदा आंदोलन में इनके समकालीन मंसूरी समुदाय के मौलाना अतीकुर्र रहमान अर्वी और रेयन समुदाय के मियां अब्दुल मलिक तानपुरी का नाम भी उल्लेखनीय है. वास्तव में पसमंदा आंदोलन से जुड़े पहले के नेता अंग्रेजी उपनिवेशवाद, अशरफ विरोधी और मुस्लिम लीग से संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे. 1980 के दशक में महाराष्ट्र के ऑल इंडिया मुस्लिम ओबीसी संगठन (एआईएमओबीसीओ) ने पसमंदा मुसलमानों की अधिकारों के संघर्ष को आगे बढ़ाया. उन्हें अपने आंदोलन में हिंदी फिल्म उद्योग के कालजयी अभिनेता दिलीप कुमार, जो खुद पठान थे, का भी समर्थन मिला. 1990 के दशक में भारत के कई राज्यों में छिटपुट संगठनों के अलावा डॉ अजीज अली के ऑल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा (एआईबीएमएम) और अली अनवर के पसमंदा मुस्लिम महाज का उदय हुआ. अली अनवर की सन् 2000 में प्रकाशित किताब 'मसावत की जंग' (समानता की लड़ाई) ने पसमंदा मुसलमानों की संस्कृति, सामाजिक सुधार और एक नई पहचान की जरूरत पर ध्यान खींच आंदोलन के दायरे को विस्तार देने में महती भूमिका निभाई.
यह भी पढ़ेंः Mallikarjun Kharge: क्या इन 5 चुनौतियों को पार कर पाएंगे नए कांग्रेस अध्यक्ष?
पसमंदा मुसलमानों तक क्यों पहुंच बना रही बीजेपी
भारतीय जनता पार्टी 2024 लोकसभा चुनाव के लिहाज से उत्तर प्रदेश और बिहार में अपना वोटबैंक बढ़ाने की महत्ता को अच्छे से समझती है. हालांकि बीजेपी 2014 से पसमंदा मुसलमानों के साथ सक्रियता के साथ काम कर रही है. हालांकि इस बार यह आयोजन राजनीतिक या चुनावी की तात्कालिकता से परे एक बड़े सांस्कृतिक बदलाव का वाहक बनकर उभरा है. अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुसलमानों के श्रेष्ठि वर्ग अशरफ मुस्लिमों के बजाय मुस्लिम समाज के हाशिये पर रह रहे लोगों से संवाद बढ़ा रहा है. आरएसएस की ही एक इकाई मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के राष्ट्रीय संयोजक गिरीश जुआल कहते हैं, 'हम चाहते हैं कि मुस्लिम महिलाओं समेत पसमंदा मुसलमान अपने अधिकारों को समझें. एक ताकत के रूप में उभर अपनी समेत राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान करें. पसमंदाओं के कल्याण पर फोकस करने के इस फैसले से बीजेपी को फायदा हो या न हो, लेकिन देश को जरूर फायदा होगा.' इस साल की शुरुआत में हैदराबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी कार्यकर्ताओं से हिंदुओं के अलावा भी अन्य समुदाय के शोषित-वंचित तबके तक पहुंच बनाने का आह्वान किया था. माना जाता है कि उन्होंने इस तरह उत्तर प्रदेश और बिहार के पसमंदा मुसलमानों को बीजेपी की तरफ खींचने का संकेत पार्टी कार्यकर्ताओं को दिया था. पीएम मोदी का यह संकेत आजमगढ़ और रामपुर उपचुनाव में मिली जीत के कई हफ्तों बाद आया था. गौरतलब है कि इन दोनों शहरों में मुसलमान वोट निर्णायक भूमिका निभाता है. माना जा रहा है कि यूपी विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को कुछ पसमंदा वोट मिले थे. संभवतः इसीलिए पसमंदा मुसलमानों के नेता दानिश आजाद अंसारी को दूसरी योगी आदित्यनाथ सरकार में भी शामिल किया गया.
HIGHLIGHTS
- पीएम नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद में दिया था अन्य समुदाय के शोषित-वंचित तबके तक पहुंच बनाने का संकेत
- समतावादी धर्म होने के बावजूद भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम समाज गहरे तक जाति व्यवस्था में उलझा
- भारतीय मुसलमानों में पसमंदा मुसलमान बहुसंख्यक होने के बावजूद प्रतिनिधित्व के मामले में बहुत पीछे
Source : News Nation Bureau