यूक्रेन की जंग ने पूरी दुनिया की राजनीतिक समीकरणों में उथल-पुथल मचा दी है. अमेरिका अपने साथी यूरोपीय देशों के साथ मिलकर रूस को घेरने की कोशिश में जुटा है और काफी हद कर उसने रूस को यूक्रेन में फंसा भी दिया है, लेकिन अमेरिका के वास्तविक दुश्मन चीन ने उसे एक ऐसे इलाके में परेशान कर दिया है जहां वो खुद को सिकंदर समझता था. वो इलाका हैं मिडिल ईस्ट का.. यानी वो जगह जहां तेल के बड़े- बड़े भंडार हैं और इस तेल की खोज के वक्त से ही अमेरिका इस इलाके का दादा बना बैठा है. मिडिल ईस्ट में अमेरिका के दखल को समझने के लिए हमें कई दशक पीछे लौटना होगा. जब साल 1930 में अमेरिकी कंपनियों ने सऊदी अरब में तेल की खोज की थी.
अमेरिका उस वक्त उतनी बड़ी महाशक्ति नहीं बना था लेकिन जब दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका के शामिल होने के बाद उस जंग का पलड़ा जर्मनी के खिलाफ झुकने लगा तो ये तय हो चुका था कि अब अमेरिका दुनिया के मंच पर सुपर पावर की भूमिका निभाने जा रहा था. साल 1945 में दूसरे विश्व युद्ध का अंत आते-आते दुनिया के तमाम समीकरण बदल चुके थे और 14 फरवरी 1945 को अमेरिकी प्रेजीडेंट फ्रेंकलिन रूजवेल्ट और सऊदी अरब के किंग अब्दुल अजीज के बीच एक डील हुई जिसे ऑयल फॉर सिक्योरिटी डील कहा जाता है. इसके तहत अमेरिका ने सऊदी अरब से तेल खरीदने के एवज में दुनिया की बड़ी शक्तियों के खिलाफ उसकी सुरक्षा की गारंटी दी.
अमेरिका के लिए मुसीबत का सबब बन रहा सऊदी अरब
ये डील काफी अहम थी क्योंकि सऊदी अरब के पास ना सिर्फ दुनिया का सबसे बड़े तेल भंडार था बल्कि मुस्लिम जगत की लीडरशिप भी उसी के हाथ में थी. इस डील ने मिडिल ईस्ट में अमेरिकी फौजों के पैर जमा दिए और इसके बाद इस पूरे इलाके अमेरिका का सिक्का चलने लगा. सऊदी अरब के अलावा यूएई, यमन और ओमान जैसे देशों में भी अमेरिका ने अपने मिलिटरी अड्डे बना लिए. ईराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन के खिलाफ हुई दोनों जंगों, तालिबान के खिलाफ अफागानिस्तान में हुई जंग और आईएसआईएस के खिलाफ मिलिटरी ऑपरेशंस में अमेरिका ने इन्हीं मिलिटरी अड्डों का इस्तेमाल किया, लेकिन अब इस इलाके में अमेरिका का सबसे बड़ा सहयोगी देश सऊदी अरब चीन के साथ दोस्ती की पींगे बढ़ा रहा है और पिछले एक साल में सऊदी अरब ने ऐसे कई फैसले लिए हैं जिन्होंने अमेरिका की परेशानी बढ़ा दी है.
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दरअसल इस इलाके में सऊदी अरब की सबसे बड़ी दुश्मनी ईरान के साथ थी. इसे मुस्लिम जगत में शिया-सुन्नी विवाद के नजरिए से भी देखा जाता रहा है. ईरान शिया मत को मानने वाले मुस्लिम देशों का लीडर है तो वहीं सऊदी अरब सुन्नी जगत का झंडाबरदार है. ईरान, अमेरिका का भी दुश्मन है लेकिन पिछले दिनों चीन ने इन दोनों मुल्कों के बीच समझौता करा दिया. अमेरिका की गैरमौजूजगी में इतनी बड़ी डील होना इस इलाके में अमेरिका के घटते रसूख और चीन के बढ़ते हुए इकबाल की एक नजीर है.
बात सिर्फ यहीं तक नहीं है. सऊदी अरब की सबसे बड़ी तेल कंपनी अरामको चीन में कई अरब डॉलर के निवेश कर रही है. चीन कच्चे तेल का सबसे बड़ा ग्राहक है और अब इस बात की भी चर्चा है कि चीन, सऊदी अरब से खरीदे गए तेल का भुगतान अपना मुद्रा युआन में कर सकता है और अगर होता है तो ये अमेरिकी मुद्रा डॉलर के लिए बहुत बड़ा झटका होगा.
दरअसल यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से ही सऊदी अरब अब अमेरिका के खिलाफ खुलकर बगावत करने लगा है. उसने अमेरिका के बाकी सहयोगी देशों से इतर इस जंग में न्यूट्रल रवैया अपनाया हुआ है.जब ये जंग शुरू हुई थी तब अमेरिका को अंदेशा था कि दुनिया भर में तेल और नेचुरल गैस की कीमते बढ़ जाएंगी और इस परिस्थिति से निपटने के लिए उसने सऊदी अरब के अपना ऑयल प्रोडक्शन बढ़ाने को कहा था लेकिन तब खबरें आई थीं कि सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने बाइडन से फोन पर बात तक करना मुनासिब नहीं समझा था.
अमेरिकी अखबार द वॉशिंग्टन पोस्ट की खुफिया दस्तावेजों पर आधारित एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल अक्टूबर में अमेरिका ने सऊदी अरब को चेतावनी थी कि अगर उसने तेल की कीमतें बढ़ाने के लिए उसका प्रॉडक्शन गिराया तो उसे इसके नतीजे भुगतने होंगे.. लेकिन MBS के नाम से मशहूर सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस का कहना था कि अमेरिका अगर उसे खिलाफ कोई ऐक्शन लेगा तो वो भी अमेरिकी इकॉनोमी को चोट पहुंचाने से नहीं चूकेंगे और अमेरिका से अपने रिश्ते तोड़ लेंगे. अब सऊदी अरब ने जुलाई से तेल का प्रॉडक्शन कम करने का ऐलान कर दिया है . जाहिर है इससे तेल की कीमतें बढ़ेंगी और महंगाई भी.. अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले बढ़ती हुई महंगाई बाइडन के लिए परेशानी पैदा जरूर करेगी.
सऊदी अरब अमेरिका से क्यों खराब कर रहा संबंध
अब सवाल ये है कि आखिरकार सऊदी अरब अमेरिका के साथ अपने 90 साल पुराने रिश्ते को क्यों खराब कर रहा है. दरअसल इन दोनों मुल्कों के रिश्तों में आई कड़वाहट एक पत्रकार की हत्या के साथ भी जुड़ी है. साल 2018 में टर्की में सऊदी अरब के दूतावास में द वॉशिंगटन पोस्ट के पत्रकार जमाल खागोशी की हत्या कर दी गई थी. मूल रूप से सऊदी अरब के रहने वाले खगोशी को क्राउन प्रिंस MBS का बडा़ आलोचक माना जाता था. अमेरिका की ओर से आरोप लगाया गया कि ये हत्या क्राउन प्रिंस के इशारे पर हुई है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान बाइडन ने तो क्राउन प्रिंस को सजा तक दिलवाने की बात कही थी. जाहिर है बाइडन प्रशासन के क्राउन प्रिंस के ताल्लुकात यहीं से बिगड़ने शुरू हो गए.
साल 2017 में सत्ता में आए क्राउन प्रिंस MBS का मानना है कि सऊदी अरब को अब अपनी इकॉनोमी को तेल के कारोबार से आगे जाना चाहिए. फिलहाल इस देश की जीडीपी का 40 फीसदी हिस्सा तेल का कारोबार ही है. इस लिहाज से अब वो चीन जैसी उभरती हुई इकॉ़नोमी के साथ हाथ मिलाना चाहते हैं. वहीं, इस इलाके के सीरिया, लीबिया और ईरान जैसे देशों में जिस तरह से रूस का दखल बढ़ रहा है उससे क्राउन प्रिंस को लगता है कि अमेरिका अब दुनिया का इकलौता पावर सेंटर नहीं रहा गया है लिहाजा अब वो अपने देश को चीन-रूस के अलायंस के करीब ले जाना चाहते हैं. यही वजह है कि अब जहां मिडिल ईस्ट में अमेरिका का दखल कमजोर पड़ रहा है तो वहीं के लिए दरवाजे खुलते जा रहे हैं.
सुमित कुमार दुबे की रिपोर्ट
Source : News Nation Bureau