केंद्र सरकार देश और देश के बाहर हिंदी को बढ़ाने के लिए तमाम प्रयास कर रही है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह हिंदी के प्रचार-प्रसार और प्रयोग को लेकर समय-समय बयान देते रहते हैं. दक्षिण के राज्यों में एक बार फिर हिंदी विरोध की आहट सुनाई दे रही है. दरअसल, अक्टूबर माह में संसदीय समिति ने एक सिफारिश में केंद्रीय संस्थाओं मे हिंदी को बढ़ावा देने की बात कही है. ऐसे में हिंदी भाषी राज्यों ने एक बार फिर से हिंदी को थोपने का पुराना राग अलापने लगे हैं.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बुधवार को राज्य विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश करने की संभावना है, जिसमें केंद्र द्वारा "गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने" के कथित प्रयासों के खिलाफ एक संसदीय पैनल द्वारा सिफारिश की गई थी कि हिंदी को केंद्रीय संस्थानों में शिक्षा का माध्यम बनाया जाए.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाले पैनल की सिफारिश ने दक्षिणी राज्यों में भाषा विवाद को फिर से बढ़ा दिया है, तमिलनाडु और केरल ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर ऐसी किसी भी सिफारिश को लागू नहीं करने की मांग की है. लोकसभा चुनाव 2024 से दो साल पहले हिंदी पर होने वाला यह विवाद राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है. तमिलनाडु में हिंदी का विरोध आजादी के पहले से ही होने लगा था. 1930 के दशक के बाद से तमिलनाडु में हिंदी के विरोध के स्वर मुखर होने लगे थे.
2022 में संसदीय समिति की सिफारिश
9 अक्टूबर को यह बात सामने आई कि एक संसदीय समिति ने सिफारिश की है कि हिंदी भाषी राज्यों में आईआईटी जैसे तकनीकी और गैर-तकनीकी उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षा का माध्यम हिंदी और भारत के अन्य हिस्सों में उनकी संबंधित स्थानीय भाषा होनी चाहिए. इसने यह भी सिफारिश की कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में से एक होनी चाहिए.
सितंबर में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को प्रस्तुत अपनी 11वीं रिपोर्ट में, अमित शाह की अध्यक्षता वाली राजभाषा पर संसद की समिति ने सिफारिश की कि सभी राज्यों में स्थानीय भाषाओं को अंग्रेजी पर वरीयता दी जानी चाहिए.
समिति ने सुझाव दिया कि देश के सभी तकनीकी और गैर-तकनीकी संस्थानों में शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी या स्थानीय भाषा का उपयोग किया जाना चाहिए और अंग्रेजी के उपयोग को वैकल्पिक बनाया जाना चाहिए. ये सिफारिशें नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार तैयार की गई थीं.
क्या सिफारिशें बाध्यकारी हैं?
समिति का गठन 1976 में राजभाषा अधिनियम, 1963 के तहत किया गया था. इसमें संसद के 30 सदस्य शामिल हैं-20 लोकसभा से और 10 राज्यसभा से. यह आधिकारिक उद्देश्यों के लिए हिंदी के उपयोग में हुई प्रगति की समीक्षा करता है और सिफारिशें करते हुए राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट प्रस्तुत करता है.
समिति आमतौर पर पांच साल में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करती है, लेकिन इस बार, तीन साल के भीतर, उसने दो रिपोर्ट प्रस्तुत की. किसी रिपोर्ट को स्वीकार करना या न करना राष्ट्रपति का विवेकाधिकार है.
राज्यों को तीन श्रेणियों में बांटा
भारत भर के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को हिंदी के प्रगतिशील उपयोग के आधार पर तीन समूहों में बांटा गया है. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, झारखंड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह 'ए' श्रेणी में हैं. गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़, दमन और दीव और दादरा और नगर हवेली श्रेणी 'बी' में हैं. जबकि जम्मू और कश्मीर, पूर्वोत्तर और दक्षिणी राज्यों -को 'सी' के रूप में वर्गीकृत किया गया है.
संसद की राजभाषा समिति ने सुझाव दिया है कि 'ए' श्रेणी के राज्यों में हिंदी को सम्मानजनक स्थान दिया जाना चाहिए और इसका शत-प्रतिशत उपयोग किया जाना चाहिए. पैनल ने सिफारिश की थी कि हिंदी भाषी राज्यों में आईआईटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम हिंदी और भारत के अन्य हिस्सों में उनकी संबंधित स्थानीय भाषा होनी चाहिए.
पैनल के डिप्टी चेयरमैन महताब ने पिछले महीने कहा था कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, दिल्ली यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों में हिंदी का इस्तेमाल सिर्फ 20-30 प्रतिशत किया जा रहा है, जबकि इसका इस्तेमाल 100 फीसदी किया जाना चाहिए.
तमिलनाडु में हिंदी विरोधी भावना
1937: तमिलनाडु में हिंदी विरोधी भावना और आंदोलन की जड़ें स्वतंत्रता पूर्व से ही मौजूद हैं. 1930 के दशक के उत्तरार्ध में, तब मद्रास प्रेसीडेंसी ने विरोध देखा जब राज्य में सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने स्कूलों में हिंदी को एक विषय के रूप में पेश करने की मांग की. कांग्रेस के इस कदम का ईवी रामासामी और जस्टिस पार्टी ने विरोध किया और तीन साल तक आंदोलन चला. दो प्रदर्शनकारियों की जान चली गई और 1,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया.
सरकार के भीतर दो विचार थे-एक हिंदी पढ़ाने के समर्थन में और दूसरा विषय को वैकल्पिक बनाने के लिए. हालांकि, 1939 में जर्मनी के खिलाफ द्वितीय विश्व युद्ध में भारत को एक पक्ष बनाने के ब्रिटेन के फैसले का विरोध करते हुए, कांग्रेस सरकार ने इस्तीफा दे दिया. अगले वर्ष ब्रिटिश सरकार ने हिंदी शिक्षण आदेश वापस ले लिया.
1946-1950: हिंदी विरोधी आंदोलन का दूसरा चरण 1946-1950 के दौरान आया जब भी सरकार ने स्कूलों में हिंदी को वापस लाने की कोशिश की. एक समझौते में, सरकार ने हिंदी को एक वैकल्पिक विषय बनाने का फैसला किया और विरोध समाप्त हो गया.
1953: बाद में 1953 में DMK ने कल्लुकुडी का नाम बदलकर डालमियापुरम (उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया के नाम पर) करने का विरोध इस आधार पर किया कि यह "उत्तर द्वारा दक्षिण का शोषण" का प्रतीक है.
1959: तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद को आश्वासन दिया कि गैर-हिंदी भाषी राज्य यह तय कर सकते हैं कि कब तक अंग्रेजी आधिकारिक भाषा होगी और हिंदी और अंग्रेजी दोनों देश की प्रशासनिक भाषा बनी रहेगी.
1963: राजभाषा अधिनियम के पारित होने के विरोध में 1963 में अन्नादुरई के नेतृत्व में द्रमुक ने विरोध शुरू किया. द्रमुक सदस्य चिन्नासामी ने त्रिची जिले में आत्मदाह कर लिया.
दक्षिण भारतीय राज्यों का हिंदी विरोध का प्रमुख कारण केंद्रीय नौकरियों में हिंदी भाषी राज्यों के छात्रों के बढ़ने की आशंका थी. तमिलनाडु और केरल के नेताओं ने हिंदी के विरोध में बड़ी संख्या में छात्रों को लामबंद किया था. कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम भक्तवचलम ने आशंकाओं को बढ़ाते हुए तीन भाषाओं का फॉर्मूला पेश किया-अंग्रेजी, तमिल और हिंदी.
1965: हिंदी के एकमात्र आधिकारिक भाषा बनने के खिलाफ 1965 में तमिलनाडु में फिर से हिंदी विरोध प्रदर्शन शुरू हुए. सीएन अन्नादुरई ने घोषणा की कि 25 जनवरी, 1965 को 'शोक दिवस' के रूप में मनाया जाएगा.
मदुरै में, प्रदर्शनकारी छात्रों और कांग्रेस कैडर के बीच झड़पें हुईं, जिसके परिणामस्वरूप पूरे राज्य में दंगा और आगजनी फैल गई. रेलवे के डिब्बों और हिंदी बोर्डों को जला दिया गया और सार्वजनिक संपत्ति को लूट लिया गया. कांग्रेस सरकार ने विरोध को कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में माना और पुलिस बल द्वारा इसे दबाने की कोशिश की. राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 70 लोग मारे गए थे.
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में भी आंदोलन का प्रभाव पड़ा क्योंकि दो मंत्रियों-सी सुब्रमण्यम और ओवी अलागेसन ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया.
शास्त्री ने इस्तीफा स्वीकार कर लिया और उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन को भेज दिया, बाद वाले ने उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया. राष्ट्रपति ने शास्त्री को भी सलाह दी कि वे इस मुद्दे को आगे न बढ़ाएं. बाद में शास्त्री ने जवाहरलाल नेहरू के अंतर्राज्यीय संचार और सिविल सेवा परीक्षाओं में अंग्रेजी जारी रखने के आश्वासन को दोहराया.
1967: प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजभाषा अधिनियम, 1967 में संशोधन के माध्यम से नेहरू के 1959 के आश्वासनों को और सुरक्षा प्रदान की.
द्रमुक और छात्रों के नेतृत्व में आंदोलन, 1967 में द्रविड़ पार्टी के राज्य में कांग्रेस को विस्थापित करने के प्रमुख कारणों में से एक था. कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री के कामराज को द्रमुक के एक छात्र नेता ने विरुधुनगर निर्वाचन क्षेत्र में हराया. चुनाव ने तमिलनाडु में आज तक कांग्रेस के शासन को समाप्त कर दिया.
स्टालिन क्यों कर रहे विरोध?
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने पैनल की सिफारिश का कड़ा विरोध किया है, दोनों ने पीएम नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है. स्टालिन, जो तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक के अध्यक्ष भी हैं, ने एक कथित सिफारिश पर विशेष रूप से संज्ञान लिया है कि "युवा कुछ नौकरियों के लिए तभी पात्र होंगे जब उन्होंने हिंदी का अध्ययन किया हो, जबकि भर्ती परीक्षा में अनिवार्य प्रश्नपत्र अंग्रेजी को हटाना प्रस्तावित है."
इस तरह के प्रस्ताव संविधान के संघीय सिद्धांतों के खिलाफ जाते हैं और केवल देश के बहुभाषी ताने-बाने को नुकसान पहुंचाएंगे, स्टालिन ने पीएम को लिखा.
10 अक्टूबर को, स्टालिन ने एक बयान में, केंद्र से "हिंदी को अनिवार्य बनाने" के प्रयासों को छोड़ने और देश की एकता को बनाए रखने की अपील की. द्रमुक प्रमुख ने कहा था, 'हिंदी थोपकर दूसरी भाषा की जंग न थोपें.
स्टालिन ने मांग की है कि सभी भाषाओं को केंद्र सरकार की राजभाषा का दर्जा दिया जाना चाहिए. संविधान की आठवीं अनुसूची में तमिल समेत 22 भाषाएं हैं. ऐसी सभी भाषाओं को समान अधिकार हैं और कई मांगें हैं कि कुछ और भाषाओं को भी अनुसूची में शामिल किया जाए.
द्रमुक नेता ने तमिलनाडु के हिंदी "थोपने" के लगातार विरोध, राज्य में 1965 में बड़े पैमाने पर आंदोलन और 1959 में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के आश्वासन को भी याद किया कि जब तक गैर-हिंदी भाषी लोग चाहते हैं तब तक अंग्रेजी आधिकारिक भाषाओं में से एक बनी रहेगी.
"बाद में, 1968 और 1976 में राजभाषा पर संकल्प पारित किए गए, और इसके तहत निर्धारित नियमों के अनुसार, केंद्र सरकार की सेवाओं में अंग्रेजी और हिंदी दोनों का उपयोग सुनिश्चित किया गया. यह स्थिति राजभाषा पर सभी चर्चाओं की आधारशिला बनी रहनी चाहिए."
HIGHLIGHTS
- अमित शाह की अध्यक्षता वाली राजभाषा पर संसदीय समिति की सिफारिश पर बवाल
- एमके स्टालिन और पिनाराई विजयन कर रहे हैं सिफारिश का कड़ा विरोध
- प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख हिंदी थोपने की कर रहे बात
Source : Pradeep Singh