आज सोमवार 30 जनवरी को महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की हत्या की 75वीं पुण्यतिथि पर नार्वेजियन नोबेल समिति (Nobel Comittee) ने फिर से खुद से एक सवाल पूछा, जो समय-समय पर उसकी ओर से दोहराया जाता रहा है. यह सवाल था कि आधुनिक दुनिया में शांति के सबसे बड़े दूत महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार (Nobel Peace Prize) से सम्मानित क्यों नहीं किया गया? दरअसल, सच तो यह है कि गांधीजी को इस सम्मान के लिए कई बार नामांकित किया गया. यह अलग बात है कि बीत चुके कई दशकों में तमाम बार नोबेल शांति पुरस्कार बापू से कहीं कम योग्य लोगों के पास गया. इस कड़वी सच्चाई को जानने के बावजूद महात्मा गांधी को इसके लिए कभी नहीं चुना गया. ऐसे में सवाल यह उठता है कि हर जगह स्वतंत्रता और शांति की पक्षधरता करने वाली नोबेल समिति समग्र विश्व के आधुनिक इतिहास में दमन और भेदभाव के खिलाफ अहिंसक संघर्ष के संभवतः सबसे प्रेरक प्रतीक का सम्मान करने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा सकी? यह भी प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या हुआ जो गांधी को नोबेल पुरस्कार कभी नहीं मिला? सच कहा जाए तो ये ऐसा प्रश्न हैं जिस पर नोबेल समिति ने विस्तार से विचार-विमर्श किया है.
नोबेल वेबसाइट पर हुआ गहरा विचार-विमर्श
नोबेल वेबसाइट ही पूछती है: 'क्या नॉर्वेजियन नोबेल समिति की सोच का दायरा बहुत संकीर्ण था? क्या समिति के सदस्य गैर-यूरोपीय लोगों के बीच स्वतंत्रता संघर्ष की सराहना करने में असमर्थ थे? या नॉर्वेजियन समिति के सदस्य शायद उसे पुरस्कार देने से डरते थे, जो उनके अपने देश और ग्रेट ब्रिटेन के बीच संबंधों के लिए हानिकारक हो सकता है?' नोबेल वेबसाइट 'महात्मा गांधी, लापता पुरस्कार विजेता' खंड के तहत कहती है: '1960 तक नोबेल शांति पुरस्कार विशेष रूप से यूरोपीय और अमेरिकियों को ही प्रदान किया जाता रहा. अगर समग्र तौर पर निगाह डालें तो नार्वेजियन नोबेल समिति की सोच का दायरा बहुत संकीर्ण प्रतीत होता है. गांधीजी पहले के नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं से बहुत अलग थे. वह कोई वास्तविक राजनेता या अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रस्तावक नहीं थे, न ही वह मुख्य रूप से मानवीय राहत कार्यकर्ता था और न ही अंतर्राष्ट्रीय शांति सम्मेलनों का आयोजक थे. अगर उन्हें नोबेल पुरस्कार से नवाजा जाता तो वह विजेताओं की एक नई नस्ल से जुड़ा होता.'
Gandhi was nominated for the Nobel Peace Prize a few days before he was assassinated #OnThisDay in 1948 - putting him on the Nobel Committee's shortlist for the third time.
— The Nobel Prize (@NobelPrize) January 30, 2023
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गांधी के नामांकन को रोका भी गया और वजह बनीं ये
महात्मा को 1937, 1938 और 1939 में नॉर्वे की संसद के लेबर नेता ओले कोलबजोर्नसेन ने नामित किया था. पहले नामांकन की प्रेरक प्रस्तावना फ्रेंड्स ऑफ इंडिया की नॉर्वेजियन शाखा में महिलाओं द्वारा लिखी गई थी, जो यूरोप और अमेरिका के संघों का एक नेटवर्क है. यह अलग बात है कि नोबेल समिति के सलाहकार जैकब वर्म-मुलर ने गांधी के व्यक्तित्व की अलग-अलग परतों को उनके अयोग्य होने का आधार बनाया. उन्होंने तर्क दिया, 'गांधी हालांकि एक अच्छे, महान और तपस्वी व्यक्ति हैं, लेकिन उनकी नीतियों में जबर्दस्त बदलाव देखने में आते हैं. इसने उन्हें एक स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ एक तानाशाह भी बनाया. ठीक एक आदर्शवादी और एक राष्ट्रवादी की शख्सियत के तौर पर भी यही तर्क लागू होता है.' वर्म-मुलर ने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के संघर्षों पर भी संदेह जताया. उन्होंने कहा, 'आलोचकों ने आरोप लगाया था कि गांधी लगातार शांतिवादी नहीं थे. साथ ही संदेह व्यक्त किया कि क्या उनके आदर्श सार्वभौमिक थे? इसके पीछे उनका तर्क था कि दक्षिण अफ्रीका में गांधी का संघर्ष केवल भारतीयों के लिए था, न कि समग्र अश्वेतों के लिए.'
क्या गांधी की तरफ से किसी भारतीय ने पैरोकारी नहीं की?
दरअसल, महात्मा गांधी को 1947 में बीजी खेर, जीवी मावलंकर और जीबी पंत द्वारा शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया था. पंडित पंत ने उन्हें नैतिक व्यवस्था का सबसे बड़ा पैरोकार और दौर का विश्व शांति का सबसे प्रभावी चैंपियन बताया. इस बार समिति के सलाहकार जेन्स अरुप सीप ने अनुकूल फिर भी स्पष्ट रूप से सहायक साबित नहीं होने वाली रिपोर्ट दी. समिति के अध्यक्ष गुन्नार जाह्न ने दर्ज किया कि दो सदस्य क्रमशः ईसाई रूढ़िवादी हरमन स्मिट इंगेब्रेत्सेन और ईसाई उदारवादी ईसाई ओफ्तेदल तो गांधी का समर्थन करते थे, लेकिन अन्य क्रमशः लेबर पार्टी के राजनीतिज्ञ मार्टिन ट्रैनमेल और पूर्व विदेश मंत्री बिर्गर ब्रैडलैंड सहित गांधी को शांति पुरस्कार के योग्य नहीं पाते हैं और भारत विभाजन और उससे उपजे दंगों के बीच उन्हें नामित नहीं करना चाहते हैं. उस वर्ष शांति का नोबेल पुरस्कार द क्वेकर्स को दिया गया था.
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गांधी को मरणोपरांत दिया जा सकता था नोबेल पुरस्कार
नोबेल साइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार 1948 के नोबेल शांति पुरस्कार के नामांकन की आखिरी तारीख से दो दिन पहले गांधी की हत्या के रूप में एक तकनीकी समस्या आ गई. उस साल गांधीजी के लिए छह नामांकन आए थे, जिनमें 1947 और 1946 के नोबेल पुरस्कार विजेता द क्वेकर्स और एमिली ग्रीन बाल्च के प्रस्ताव भी शामिल थे. सीप ने लिखा है, 'जिन लोगों पर गांधी ने अपनी छाप छोड़ी है, उनकी संख्या को देखते हुए उनकी तुलना केवल धर्मों के संस्थापकों से की जा सकती है.' किसी शख्स को मरणोरांत नोबेल पुरस्कार भी विशेष स्थितियों में दिया जा सकता है, लेकिन गांधी किसी संगठन से संबंधित नहीं थे और उन्होंने कोई वसीयत भी नहीं छोड़ी थी. ऐसे में यह स्पष्ट नहीं था कि मरणोपरांत पुरस्कार राशि किसे मिलेगी. आखिरकार समिति ने कहा कि उस वर्ष कोई उपयुक्त जीवित उम्मीदवार नहीं था.
तो महात्मा को नोबेल नहीं मिलने से क्या संदेश निकलता है
नोबेल समिति द्वारा दर्ज की गई जानकारी के अनुसार गांधी के मामले में ऐसा हुआ था. 1960 तक शांति का नोबेल पुरस्कार विशेष रूप से यूरोपीय और अमेरिकियों को दिया जाता रहा. 1960 में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी कार्यकर्ता अश्वेत अल्बर्ट जॉन लुटुली को शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. नोबेल समिति की नजर में गांधी एक अलग व्यक्ति थे. वह एक वास्तविक राजनेता या अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रस्तावक नहीं, मानवतावादी राहत कार्यकर्ता नहीं, एक आयोजक नहीं वैश्विक शांति कांग्रेस से जुड़े शख्स नहीं थे. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या गांधी को पुरस्कार पर ब्रिटेन द्वारा संभावित प्रतिकूल प्रतिक्रिया की आशंका से समिति प्रभावित थी? इसका जवाब है नहीं. समिति के अभिलेखागार में उलब्ध दस्तावेज यह सुझाव नहीं देते हैं कि इस पर कभी विचार भी किया गया था.
HIGHLIGHTS
- 1960 तक शांति का नोबेल पुरस्कार विशेष रूप से यूरोपीय और अमेरिकियों को दिया जाता रहा
- दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी कार्यकर्ता अश्वेत अल्बर्ट जॉन लुटुली को शांति का नोबेल मिला
- 1948 में गांधी के नाम पर आधा दर्जन लोगों ने प्रस्ताव पेश किया, लेकिन उनकी हत्या ने पानी फेर दिया