दक्षिणी अफगानिस्तान में स्थित इस जीर्ण-शीर्ण हालत वाले क्लीनिक के वार्ड रोगियों से अटे पड़े हैं. यह अफगानिस्तान (Afghanistan) में मानवीय संकट की एकबानगी मात्र है, जो यह देश साल भर पहले फिर से सत्ता में तालिबान (Taliban) शासन आने के बाद झेल रहा है. पिछले महीने हेलमंद प्रांत के मूसा कला जिला अस्पताल ने सिर्फ हैजे के मरीजों को छोड़कर बाकी रोगियों के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए थे. इसके बावजूद अस्पताल का इमरजेंसी वार्ड हैजे से पीड़ित अनगिनत रोगियों से भर गया, जिनकी कलाइयों में इंट्रावेनेस ड्रिप की सुइयां घुसी हुई थीं और वे जंग लगी बैंचों पर पसरे हुए थे. यह तब था जब जिला अस्पताल के पास हैजे के टेस्ट की सुविधा नहीं थी. गौरतलब है कि पीने के साफ पानी और सीवरेज की सामान्य व्यवस्था नहीं होने से फैल रही गंदगी आम अफगानियों को हैजाग्रस्त बना रही है. संभवतः इन्हीं कारणों से संयुक्त राष्ट्र (United Nations) अफगानिस्तान के मानवीय संकट को दुनिया का सबसे बद्तर संकट करार दे रहा है.
भूखे बच्चे
अफगानिस्तान खासकर दक्षिण में छाई गरीबी ने चिंता को औऱ गहरा दिया है. यूक्रेन पर रूसी युद्ध के बाद बढ़ी महंगाई और सूखे के रूप में प्राकृति की मार ने अफगानिस्तान में गरीबी को क्रूर मजाक बना दिया है. लश्कर गाह में अपने छह महीने के कुपोषित पोते का इलाज कराने आई एक महिला के मुताबिक अमीर (तालिबान) के शासन में आने के बाद हम लोगों के लिए खाद्य तेल भी मयस्सर नहीं है. गरीब लोग तो तालिबान के पैरों तले रौंदे जा रहे हैं. उसके पौत्र का पांचवीं बार यहां उपचार हो रहा है. अस्पताल के कुपोषित वार्ड में एक-एक बिस्तर पर दो-दो बच्चे लेटे हुए हैं. कुछ बच्चे सुई की मदद से दूध ले रहे हैं, तो कुछ भारी-भारी सांसें लेकर मानों ताकत जुटाने की कोशिश कर रहे हैं. अस्पताल में भर्ती एक अन्य बच्चे की मां रूंधी आवाज में बताती है कि हमें सुखी ब्रेड तक ढूंढे नहीं मिल रही. तीन-चार दिन से कुछ भी खाने को नहीं मिला है. सहायक नर्सिंग सुपरवाइजर होमेरा नौरोजी बताती है कि नर्सिंग स्टाफ को आराम करने का समय नहीं है. अस्पताल आने वाले ज्यादातर मरीज गंभीर हालत में आते हैं, क्योंकि घर से अस्पताल की यात्रा जल्द पूरा करने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं. जिले में कितने लोगों की मौत हुई है, यह जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है. इसकी वजह एक यह भी है कि अधिकांश मरीज अस्पताल आ ही नहीं पाते और घर पर ही दम तोड़ देते हैं.
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सरकारी कर्मियों को महीनों से वेतन नहीं
अफगानिस्तान की दुर्दशा वास्तव में 15 अगस्त 2015 से पहले ही शुरू हो गई थी, जब तालिबान ने अमेरिकी फौज की वापसी के बीच काबुल पर कब्जा कर लिया. इसके बाद पूरे देश पर तालिबान के नियंत्रण ने 38 मिलियन आबादी को करारी चोट पहुंचाई. अमेरिका ने तालिबान शासन के आते ही सेंट्रल बैंक के 7 बिलियन डॉलर फ्रीज कर दिए. नतीजतन बैंकिंग सेक्टर ढह गया और इसके साथ ही विदेशी मदद के रूप में आने वाली मदद भी तुरंत बंद हो गई. अफगानिस्तान को अपनी जीडीपी की 45 फीसदी बराबर रकम विदेशी मदद बतौर मिलती थी. पिछले साल से तो संभावित दानवीरों ने एक बीमारू राष्ट्र की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा है. एक ऐसा देश जिसे तालिबान ने अपनी कट्टर धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप इस्लामिक अमीरात के नए नाम से नवाजा है. अफगानिस्तान एनालिस्ट नेटवर्क की रोक्साना शपूर के मुताबिक अब भला कैसे एक ऐसे देश की सहायता कर सकते हैं, जिसकी सरकार को ही आपने मान्यता नहीं दी है. जून में आए भूकंप के बाद मानवीय सहायता पहुंचाना आसान रहा, क्योंकि यह गैर-राजनीतिक और मानवीय जीवन को बचाने के लिए उठाया जाने वाला कदम था. गौरतलब है कि जून में आए भूकंप में हजार से कहीं ज्यादा लोगों की जान गई और हजारों लोग बेघर हो गए. खाद्य सहायता और स्वास्थ्य देखभाल के लिए तो जैसे-तैसे धन की व्यवस्था हो जा रही है, लेकिन अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दीर्घकालिक परियोजनाओं के लिए विकास सहायता नहीं है. शिक्षकों, डॉक्टरों समेत तमाम सरकारी विभागों में कार्यरत लोगों को महीनों से वेतन नहीं मिला है.
लोगों के व्यवसाय और व्यापार भी ध्वस्त
धूल-मिट्टी से अटे मूसा कला के फार्मिंग आउटपोस्ट पर शिपिंग कंटेनर बाजार चल रहा है, जहां बच्चे कातर निगाहों से संभावित ग्राहकों की बाट जोह रहे हैं. स्थानीय अर्थव्यवस्था मोटर साइकिल की मरम्मत, पोल्ट्री उत्पादों की बिक्री और इनर्जी ड्रिंक्स के इर्द-गिर्द घूम रही है. इस शहर ने 2001-2021 तक के युद्ध में सबसे ज्यादा खून-खराबा देखा है. चट्टानों की मदद से अस्थायी रास्ता बना यहां से लश्कर गाह को जोड़ा गया है. इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि शांति के आगाज के साथ ही मानवीय मदद की आस और धुंधली पड़ गई है. हालांकि स्थानीय लोग अब सड़क पर बगैर डरे निकल सकते हैं. पहले इन सड़कों पर माइंस बिछी रहती थी, पिछली सरकार में भ्रष्टाचार का बोलबाला था. अब कम से कम उसका रोना नहीं पड़ रहा है. हालांकि लोग तालिबान के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंधों को अपनी बेबसी और दुर्दशा के लिए कहीं जिम्मेदार मानते हैं. लोगों की जरूरतें और मांगें बढ़ गई हैं. हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि कट्टरता भी कम जिम्मेदार नहीं है. तालिबान की दमनकारी सामाजिक नीतियों ने किसी सौदेबाजी पर पहुंचने का रास्ता और दुरूह कर दिया है. लाखों लड़कियां तालिबान की इन दमनकारी सामाजिक नीतियों की वजह से स्कूलों से दूर हैं.
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शासन कैसे हो
हेलमंद प्रांत में तालिबान का झंडा अब खुलेआम दिख जाएगा, जो गोलियों से बिंधी इमारतों पर फहराता है. हालांकि दो दशकों बाद फिर से नियंत्रण अपने हाथों में लेने के बाद तालिबान बेहद जर्जर राष्ट्र पर अपना शासन कर रहा है. लश्कर गाह के ही कुछ लोग तालिबान के शासन करने की क्षमता को सवालिया नजरों से देखते हैं. उनके लिहाज से सरकार चलाने के लिहाज से तालिबान के पास रत्ती भर भी अनुभव नहीं है.
HIGHLIGHTS
- हैजे से कितने बच्चे मरे इसका आंकड़ा डॉक्टरों के पास नहीं
- शिक्षकों, डॉक्टरों समेत सरकारी कर्मियों को वेतन के लाले
- तालिबान राज में आम अफगानी जिंजदी जी नहीं ढो रहा है