Advertisment

PM Modi से पहले वाजपेयी तक, कश्मीर पर भारत-पाक की गुप्त शांति वार्ता हमेशा विफल क्यों रही

भले ही पाकिस्तान और भारत में सरकारें बदल गई हों, लेकिन दोनों ही देशों की राजधानी में बैठे हुक्मरानों की कश्मीर को लेकर सोच में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है.

author-image
Nihar Saxena
एडिट
New Update
Pervez Atal

परवेज मुशर्रफ कारगिल युद्ध के बाद चाहते थे शांति वार्ता परवान चढ़े.( Photo Credit : न्यूज नेशन)

Advertisment

लगभग पांच साल पहले सर्दियों की एक सुबह पोलो खेलने वाला एक कुलीन शख्स मध्य लंदन के एक बेहद प्रतिष्ठित होटल पहुंचा. इस उम्मीद में कि उसने अब तक जितने भी बर्बर मैच खेले थे, उन्हें खत्म करने का समय आ गया था. पाकिस्तान (Pakistan) की खुफिया इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) के पूर्व उप प्रमुख मेजर जनरल साहिबजादा इसफंदियार पटौदी को उस गुप्त मिशन के लिए चुना गया था. पटौदी को उस व्यक्ति से मिलना था, जिसने लंबे समय तक पाकिस्तानी खुफिया के खिलाफ भारत (India) के गोलकीपर के रूप में काम किया था. जाति से तमिल, लेकिन पंजाबी भाषी उस शख्स ने पाकिस्तान में जिहादियों के खिलाफ रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) के संचालन की कमान संभाल रखी थी. पटौदी ने अपनी तीन बैठकों में से पहली में भारतीय अधिकारी को समझाने की कोशिश की कि तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा (Qamar Javed Bajwa) नियंत्रण रेखा (LOC) के पार आईएसआई के गुप्त युद्ध को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे. अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए उन्हें कश्मीर (Kashmir) पर रियायतों के रूप में भारत की सहायता की आवश्यकता थी.

2018 में भी हुई थीं गुप्त बैठकें
पिछले महीने की शुरुआत में पाकिस्तानी स्तंभकार हामिद मीर और जावेद चौधरी ने बताया कि 2018 की गुप्त बैठकें वास्तव में भारत-पाकिस्तान के इतिहास को बदल कर रख देने वाली थीं. इन दोनों पाकिस्तानी पत्रकारों ने अपने-अपने सूत्रों के हवाले से दावा किया था कि अप्रैल 2021 में हिंगलाज माता मंदिर में दर्शन करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूर्व प्रधान मंत्री इमरान खान से मिलना था. इस मुलाकात के दौरान कश्मीर में यथास्थिति को लेकर एक समझौते की घोषणा करनी थी. हालांकि राजनीतिक प्रतिक्रिया के डर से खान के समझौते से पीछे हटने के बाद शिखर सम्मेलन की योजना ध्वस्त हो गई. इन नाटकीय खुलासों पर न तो इस्लामाबाद और न ही नई दिल्ली की ओर से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की गई. हालांकि बैठकों के विवरण को अगर छोड़ दें तो रिपोर्ट दोनों देशों में नेताओं द्वारा शांति की लगातार खोज को सामने लाती है. साथ ही उन कारणों को भी जिनकी वजह से 'ऐतिहासिक' अवसरों पर वार्ता हमेशा विफल रही है.

यह भी पढ़ेंः पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का निधन, लंबे समय से चल रहे थे बीमार

परवेज मुशर्रफ ने भी कश्मीर पर गुप्त बातचीत के दिए थे निर्देश 
कारगिल में अपनी हार के बाद पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ ने कश्मीर में हिंसा को और बढ़ा दिया. नतीजा यह रहा कि दोनों देशों के बीच हुए युद्ध में जितने जवान भारत ने नहीं खोए थे, उससे कहीं ज्यादा सैनिकों को पाकिस्तान प्रेरित और प्रायोजित आतंकवाद में खोने पड़े. 2001 में संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सिर्फ सैन्य प्रतिशोध की धमकी दी. अर्जन तारापोर लिखते हैं, 'हालांकि पूर्ण युद्ध के अनिश्चित परिणामों और उसमें निहित परमाणु हमलों के जोखिम की सोचकर भारत पीछे हट गया. इस पर भले ही जनरल मुशर्रफ को खुश होना चाहिए था, लेकिन जनरल ने 2003 में नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम के लिए सहमति व्यक्त की. साथ ही प्रधान मंत्री वाजपेयी और तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के साथ गुप्त वार्ता को अमली-जामा पहनाने का आदेश दिया. जनरल परवेश मुशर्रफ के शासन में गृह मंत्री रहे लेफ्टिनेंट जनरल मोइनुद्दीन हैदर के मुताबिक यह निर्णय इसलिए लिया गया क्योंकि जिहादवाद को बढ़ावा देने की पाकिस्तान को भारी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ रही थी. 

चार सूत्रीय फॉर्मूले पर सहमत थे भारत-पाक
2007 के अंत में मनमोहन सिंह के गुप्त दूत सतिंदर लांबा ने कहा कि दोनों देश चार-सूत्रीय फॉर्मूले पर सहमत हो गए थे. इसके तहत नियंत्रण रेखा को सीमा मान दोनों तरफ के कश्मीर को उच्च स्तर की स्वायत्तता दी जानी थी. हालांकि 26/11 के हमलों के बाद समझौता टूट गया. कश्मीर पर गुप्त संवाद की फाइलें 2014 की गर्मियों में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को उनके पूर्ववर्ती द्वारा सौंप दी गई थीं. हालांकि उस गर्मी में एलओसी पर तनाव फिर बढ़ गया था, लेकिन जल्द ही शांति बहाली के प्रयास फिर से शुरू हो गए. 2015 के अंत में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने बैंकॉक में अपने समकक्ष नासिर जंजुआ से मुलाकात की. इस गुप्त बैठक के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री नवाज शरीफ की पोती की शादी पर बेहद अप्रत्याशित तौर पर लाहौर पहुंच बधाई तक दे डजाली. हालांकि 2008 की ही तरह इस मेल-मिलाप पर नए साल की शुरुआत में पठानकोट में भारतीय वायु सेना के अड्डे पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमले में पानी फेर दिया. भले ही शांति प्रक्रिया को बचाने की कोशिश में डोभाल की फिर से जांजुआ से मुलाकात हुई. इस बार भी सीमा पार बढ़ती हिंसा ने शांति की संभावना को खत्म कर दिया.

यह भी पढ़ेंः बाइडेन के आदेश पर US ने ड्रैगेन के जासूसी गुब्बारे को मार गिराया

बाजवा ने भी की शांति बहाली की पहल
ऐसा लगता है कि शांति प्रक्रिया को फिर से शुरू करने के प्रयास अक्टूबर 2018 में शुरू हुए थे, जब जनरल बाजवा ने ब्रिटेन के दौरे पर गए थे. इस दौरे पर जनरल बाजवा की यूनाइटेड किंगडम के तत्कालीन चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल निकोलस पैट्रिक कार्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मार्क सेडविल से मुलाकात हुई थी. जनरल बाजवा के ब्रिटेन से गहरे व्यक्तिगत संबंध थे, जो उनकी भाभी अस्मा बाजवा और भाइयों तारिक और जावेद बाजवा का घर है. इसके अलावा लंदन भी दुनिया की उन कुछ राजधानियों में शामिल था, जो पाकिस्तान का पक्ष सहानुभूति के साथ सुनता था. तेजी से गिरती अर्थव्यवस्था और तहरीक-ए-तालिबान जिहादियों के साथ चल रहे हिंसक आतंकी टकराव के दौर में जनरल बाजवा इस नतीजे पर पहुंचे थे कि उन्हें भारत के साथ शांति की जरूरत है. उस पर रही सही कसर एफएटीएफ ने पाकिस्तान को आतंक के वित्त पोषण के आरोप में निगरानी सूची में डाल पूरी कर दी थी. पाकिस्तान उन दिनों गहरे अंतरराष्ट्रीय दबाव में भी आ गया था.

बाजवा ने भी फिर बढ़ाया था गुप्त वार्ता का दौर
जनरल मुशर्रफ की तरह ही सेना प्रमुख बाजवा ने दबाव में गुप्त वार्ता शुरू की. लंदन से प्रोत्साहन पाकर होकर आईएसआई एक बैठक के लिए भारतीय खुफिया संस्था रॉ तक पहुंची. हालांकि इस गुप्त बातचीत के बारे में कुछ ही विवरण सामने आए. फिर भी माना जाता है कि रॉ के अधिकारी और पटौदी ने कई प्रस्तावों पर चर्चा की, जिसमें नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम बहाल करना भी शामिल था. फिर इतिहास ने खुद को दोहराया और 2019 के पुलवामा आतंकवादी हमले से यह गुप्त वार्ता भी पटरी से उतर गई. इस आतंकी हमले में जनरल बाजवा पर कथित भरोसा भी खेत रहा. हालांकि नई दिल्ली ने जल्द ही सेना प्रमुख को एक और मौका देने का दबाव महसूस किया. बालाकोट पर सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में हवाई हमले के बाद अबू धाबी के क्राउन प्रिंस अबू मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान ने पीएम मोदी और इमरान को फोन किया. राजनयिक अहमद अल-बन्ना ने बाद में कहा भी कि दोनों नेताओं से शांतिपूर्ण तरीके से मतभेदों को सुलझाने की कोशिश करने का आग्रह किया गया था. पश्चिमी देशों ने भी सावधानी के साथ इन घटनाक्रमों पर नजर बनाए रखी. जून 2019 में लंदन की यात्रा के दौरान बाजवा ने ब्रिटेन से गुप्त वार्ता को फिर से शुरू करने की सुविधा देने का आग्रह किया. जनरल ने जोर देकर कहा कि वह पुलवामा हमले की योजना से अनभिज्ञ थे और आगे के आतंकी हमलों को रोकेंगे.

यह भी पढ़ेंः बोधगया में भगवान बुद्ध का ऐसा मंदिर, जहां 1002 प्रतिमाएं है स्थापित

कश्मीर गतिरोध
फरवरी 2021 की शुरुआत में डोभाल ने तत्कालीन आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद से गुप्त रूप से मुलाकात की. भारत दो कारणों से पाकिस्तान संग फिर से बात करने को तैयार हुआ था. भले ही पाकिस्तान में राजनेताओं ने मोदी सरकार के अगस्त 2019 में कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करने के बाद भारत पर तीखा हमला बोला है, लेकिन पाक प्रेरित जिहादी हिंसा कम रही. भारत और चीन के बीच तनाव बढ़ने के बावजूद इस्लामाबाद ने नियंत्रण रेखा पर सैन्य दबाव नहीं डाला. डोभाल-फैज संवाद ने 2021 में सीमा संघर्ष विराम की बहाली के लिए जमीन तैयार की. भले ही नियंत्रण रेखा के पार सीमित आतंकवादी घुसपैठ जारी रही हो, कश्मीर में आतंकी हिंसा का स्तर प्रधानमंत्री मोदी के पदभार ग्रहण करने के बाद से सबसे निचले स्तर पर था. आंकड़ों से पता चलता है कि जनरल बाजवा ने जिहादी समूहों पर अंकुश लगाने की अपनी बात रखी थी.

इमरान ने डर से पीछे खींच लिए कदम
अगर इमरान कश्मीर में 2019 के बाद की यथास्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते तो शायद नई दिल्ली खुश होती, लेकिन वजीर-ए-आजम हिम्मत नहीं जुटा सके. पिछले साल पाकिस्तान में ब्रिटेन के उच्चायुक्त क्रिश्चियन टर्नर ने एक बंद कमरे की बैठक में कहा था कि जनरल बाजवा भारत के संविधान के रद्द किए गए अनुच्छेद 35ए की बहाली की मांग कर रहे थे. मोदी सरकार के इस कदम से बाहर के लोग भी जम्मू और कश्मीर में जमीन खरीदने के हकदार हो गए थे. जनरल बाजवा का तर्क था कि उन्हें इन राजनीतिक रियायतों की जरूरत थी ताकि कश्मीर में इमरान खान समेत सत्ता प्रतिष्ठान के कट्टरपंथियों के दबाव को काटा जा सके. कश्मीर पर नरम रवैया अपनाने से इमरान को राजनीतिक नुकसान का डर था. यही वजह है कि वाणिज्य मंत्री के रूप में भारत से चीनी और कपास की खरीद को मंजूरी देने के चौबीस घंटे बाद प्रधान मंत्री इमरान ने अपनी ही सिफारिश को खारिज कर दिया. यहां तक कि भारतीय पीएम मोदी को शांति के लिए बेहतरीन साथी बताने के महीनों के भीतर इमरान उनकी सरकार को 'नाज़ी-प्रेरित' कह रहे थे.

यह भी पढ़ेंः HAL: एशिया की सबसे बड़ी हेलीकॉप्टर फैक्ट्री तैयार, पीएम मोदी करेंगे उद्घाटन; जानें खासियत

अब भारत नहीं चाहता बातचीत
हालांकि अब भले ही पाकिस्तान में सरकार बदल गई हो, लेकिन दोनों ही देशों की राजधानी में बैठे हुक्मरानों की कश्मीर को लेकर सोच में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है. भारतीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार पाकिस्तान के साथ कश्मीर पर बात नहीं करेगी. भारतीय अधिकारियों का तर्क है कि कश्मीर पर पाकिस्तान का पीछे हटना उसकी वित्तीय समस्याओं, अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के जोखिम और जिहादियों के खिलाफ देश के अपने युद्धों में सैन्य हताहतों की संख्या में वृद्धि के कारण हुआ है. भारतीय अधिकारियों के मुताबिक भले ही जिहादी समूहों पर लगाम लगाई गई हो, लेकिन उन्हें खत्म नहीं किया गया है. इसका मतलब यह है कि इस्लामाबाद जब चाहेगा तब इनके जरिये आतंकी हिंसा को फिर से शह देने लगेगा. नई दिल्ली का मानना ​​है कि कश्मीर पर समय उसके पक्ष में है. 

HIGHLIGHTS

  • कारगिल हमले के बाद परवेज मुशर्रफ भी चाहते थे गुप्त वार्ता हो
  • पांच साल पहले तत्कालीन पाक सेना प्रमुख भी थे शांति के पैरोकार
  • अब भारत कश्मीर पर किसी तरह की कोई वार्ता करने को नहीं तैयार
PM Narendra Modi INDIA ISI pakistan पाकिस्तान भारत Nawaz Sharif LOC पीएम नरेंद्र मोदी kashmir Dubai कश्मीर Pervez Musharraf एलओसी आईएसआई RAW Qamar Javed Bajwa Peace Talks रॉ शांति वार्ता कमर जावेद बाजवा
Advertisment
Advertisment
Advertisment