Section 6A of Citizenship Act 1955: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया. सर्वोच्च अदालत ने नागरिकता कानून की धारा 6ए की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है, जिसके तहत 24 मार्च 1971 को या उससे पहले असम आने वाले अप्रवासियों को नागरिकता दिए जाने के प्रावधान हैं. आइए जानते हैं कि नागरिकता कानून की धारा 6ए क्या है और इसको लेकर ये फैसला कैसे असम पॉलिटिक्स को हिला कर रख देगा, क्योंकि इस फैसले ने नागरिकता पर चल रही बहस को और बल देने का काम किया है.
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क्या है नागरिकता कानून की धारा 6A?
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असम समझौते (Assam Accord) की सबसे अहम चीज थी कि इसमें बताया गया था कि किसे असम में भारत का नागरिक कहा जाएगा और किसे नहीं. इसके सेक्शन 5 में कहा गया है 1 जनवरी 1966 ‘विदेशियों’ की पहचान और उनको हटाने के लिए बेस-कट-ऑफ डेट के रूप में काम करेगा, लेकिन इसमें बेस-कट-ऑफ डेट के बाद और 24 मार्च 1971 तक असम में आने वालों के रेगुलाइजेशन के प्रावधान भी शामिल हैं.
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असम समझौते की इस बात को लागू किए जाने के लिए सिटिजनशिप एक्ट 1955 में बदलाव किया गया और उसमें धारा 6ए को जोड़ा गया. इसमें कहा गया कि 1966 से पहले असम में जो भी आया होगा उसे भारत का नागरिक मान लिया जाएगा. वहीं, 1966-1971 के बीच असम में आए लोग नागरिकता के लिए रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं, लेकिन 10 साल तक उनके पास वोटिंग का अधिकार नहीं होगा. मगर 24 मार्च 1971 के बाद जो भी असम में आएगा, उसको भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा.
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धारा 6A को SC में क्यों दी गई चुनौती?
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असम पब्लिक वर्क्स जैसे असमिया अस्मिता की बात करने वाले संगठनों ने 2012 में SC में याचिका लगाई और उसमें यह कहा कि धारा 6A भेदभावपूर्ण है और संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता के अधिकार का उल्लंघन करती है.
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यह असम के मूल निवासियों के अधिकारों का हनन करती है. इसके चलते असम के मूल निवासी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन गए हैं. असम की 18% आबादी अवैध बांग्लादेशी अप्रवासी की है. इसके विपरीत पड़ोसी राज्य, जो बांग्लादेश के साथ सीमा साझा करते हैं. उनमें कम अवैध अप्रवासी हैं. जैसे पश्चिम बंगाल में 7%, मेघालय में 1% और त्रिपुरा में 10% हैं. यह सारी बातें इस याचिका में कही गई हैं.
किस बेंच ने सुनाया फैसला?
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नागरिकता कानून की धारा 6 का ये मामला बड़ा ही पेचीदा था, इसलिए याचिका को सुनवाई के लिए संविधान पीठ के पास भेज दिया. इस बेंच में CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एसएन सुंदरेशवारा, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे. इस बेंच ने 4:1 से अपना फैसला दिया.
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बेंच ने धारा 6ए पर फैसला सुनाते हुए कहा कि नागरिकता कानून की धारा 6ए कानून सम्मत है. इससे बंधुत्व और फ्रैटरनिटी के सिद्धांत का हनन नहीं होता है. एक सूबे में किसी दूसरे जातीय समूह की मौजूदगी से स्थानीय जातीय समूह के अधिकारों का हनन नहीं होता है. असम की संस्कृति के संरक्षण के लिए कानून बने हुए हैं.
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CJI ने भी कहा कि पाकिस्तानी सेना ने 26 मार्च 1971 ऑपरेशन सर्च लाइट शुरू किया था, जिससे बांग्लादेश में दमन हुआ. ऐसे में 25 मार्च 1971 की जो कटऑफ डेट है, उसे आधार मिल जाता है. इससे पहले के प्रवासियों को बंटवारे से प्रभावित प्रवासी माना जा सकता है. कोर्ट ने ये भी कहा कि कटऑफ डेट के बाद भी प्रवासियों का भी आना जारी है. अत: अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए बनाए प्रावधानों पर ठोस अमल की आवश्यकता है.
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असम की सियासत पर क्या असर?
असम की सियासत में अवैध अप्रवासियों का मुद्दा हमेशा से ही हावी रहा है. राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा कई बार कह चुके हैं कि वो मियां मुसलमानों को असम की भूमि पर कब्जा नहीं करने देंगे. बता दें कि मियां मुसलमान उन लोगों को कहा जाता है, जो बांग्लादेश से आकर असम में घुसपैठ कर रहे हैं. इस फैसले से असम सरकार की ओर अवैध घुसपैठियों के खिलाफ की जा रही कार्रवाईयों पर एक तरह से सही होने की मुहर लगती है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को असम में चली एनआरसी कवायद से जोड़कर के भी देखा जा रहा है, लेकिन बात उतनी सीधी नहीं है. असम में एनआरसी का मकसद 1971 के बाद आए अवैध प्रवासियों की पहचान था, फैसला 1971 तक आए लोगों को नागरिकता देने के संबंध में है फिर असम की हिमंता बिस्वा शर्मा की सरकार ने अब तक 2019 में प्रकाशित एनआरसी को स्वीकार नहीं किया है. ऐसे में आने वाले दिनों में असल में नागरिकता को लेकर और बहस छिड़ सकती है.
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