सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने 3-2 के बहुमत वाले फैसले के साथ सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत EWS आरक्षण बरकरार रखा है. इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इसे संविधान (Constitution) की मूल भावना का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण की घोषणा जनवरी 2019 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार (NDA) ने आम चुनाव से कई महीने पहले की थी. सरकार ने कहा था कि शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक रूप से कमजोर तबके से आने वाले लोगों को भी दिया जाएगा. इसके लिए सरकार ने जमीन के मालिकाना हक, सालाना आय या घर के आकार पर ईडब्ल्यूएस की सीमा तय की थी. इस घोषणा से उन लोगों को बहुत राहत मिली थी जो आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत लंबे समय से करते आ रहे थे. हालांकि इसके आलोचकों का कहना था कि राजनीतिक दल इसके जरिये सवर्णों और अन्य प्रभावी समुदायों को खुश कर रहे हैं. उनका तर्क था कि आरक्षण का विद्यमान ढांचा दलित, जनजातीय और पिछड़ी जातियों के लिए है. इसकी घोषणा अनुसूचित जातियों के समूह के बड़े पैमाने पर विरोध के कुछ महीनों बाद की गई थी.
क्या कहता है कानून
12 जनवरी 2019 को संसद में संविधान का 103वां संशोधन पास हुआ था. इस संविधान संशोधन के जरिये सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए अनुच्छेद 15(6) और 16(6) को भी जोड़ा. इन अनुच्छेदों ने सरकार को आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने की शक्ति प्रदान की. इस संविधान संशोधन को संसद के दोनों सदनों खासकर लोकसभा में भारी समर्थन मिला. कानून के मुताबिक ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ प्राप्त करने के लिए उम्मीदवार की सालाना पारिवारिक आय 8 लाख रुपए से कम होनी चाहिए, उसके पास 5 एकड़ से कम जमीन होनी चाहिए, एक हजार वर्गफुट क्षेत्रफल से कम आकार का आवास होना चाहिए. संसद में संविधान संशोधन पारित होने के बाद कुछ राज्य सरकारों ने भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण लागू करने इच्छा जाहिर की. हालांकि सभी राज्य सरकारों ने इस कानून को लागू करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है. कुछ राज्यों ने केंद्र सरकार के तय मानकों को ही अपनाया. हालांकि केरल जैसे कुछ राज्यों ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ प्राप्त करने के मानकों में कुछ फेरबदल भी किया.
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आखिर पूरा विवाद है क्या
आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए आरक्षण की व्यवस्था भारत के सामाजिक-आर्थिक इतिहास में एक मील का पत्थर थी. आजादी के बाद पहली बार सरकार जाति और जनजाति के ऐतिहासिक उत्पीड़न से इतर अन्य वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई करने जा रही थी. पहली बार उच्च जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू हो रही थी. गौरतलब है कि 1990 में पिछड़ी जातियों के लिए पहली बार और फिर 2006 में आरक्षण व्यवस्था की समय सीमा बढ़ाने पर कई उच्च जातियों के समूहों ने भारी विरोध प्रदर्शन किया था. हालांकि ईडब्ल्यूएस आरक्षण कानून बनाते ही सरकार के निर्णय को चुनौती दी गई. कुछ याचिकाओं में कहा गया कि आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को आरक्षण संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, जिसके तहत सामाजिक स्तर पर वंचित अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान के लिए लिए आरक्षण की व्यवस्था के खिलाफ है. उन याचिकाओं में यह भी तर्क दिया गया कि आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए आरक्षण की व्यवस्था गरीबी निवारण का जरिया भी नहीं है. कुछ याचिकाओं में कहा गया कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण सुप्रीम कोर्ट के 50 फीसदी आरक्षण के मानक से जुड़े आदेश की भी अवहेलना करता है. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में इंदिरा साहनी में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण न होने का ऐतिहासिक आदेश दिया था. उस वक्त 49.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था थी, जिसके तहत अनुसूचित जातियों को 15 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों को 7.5 फीसदी और अन्य पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण दिया जाता था. इसके विरोध में तीसरा तर्क यह दिया गया कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ उन वर्गों को ही मिलेगा जो आरक्षण के तय मानकों में से किसी में नहीं आते हैं. यह कानून सबसे वंचित समूह के लोगों को आरक्षण से बाहर रखता है. साथ ही इस कानून ईडब्ल्यूएस आरक्षण वर्ग में उच्च जातियों का वर्चस्व हो जाएगा. याचिकाओं में तमाम आधिकारिक सर्वेक्षणों का हवाला दिया गया, जो कहते थे कि भारत की अति गरीब आबादी का एक बड़ा हिस्सा वंचित जातियों और जनजातियों से आता है. इस विवाद को मद्रास हाईकोर्ट के पिछले साल आए एक फैसले से और हवा मिली. इस फैसले में मद्रास हाईकोर्ट ने मेडिकल की शिक्षा के अखिल भारतीय आरक्षण में आर्थिक रूप से कमजोर तबके को शामिल किए जाने की मांग खारिज कर दी थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बाद में फैसले को रद्द कर दिया, लेकिन उसने सालाना 8 लाख रुपये की पात्रता मानदंड पर भी सवाल उठाया और पूछा कि यह संख्या कहां से आई.
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सरकार का क्या कहना है
सरकार ने उन तर्कों को सिरे से नकार दिया की ईडब्ल्यूएस आरक्षण खारिज कर देना चाहिए,क्योंकि वह सुप्रीम कोर्ट के 50 आरक्षण नियम से ज्यादा है. सरकार की ओर से कहा गया कि असाधारण परिस्थितियों में अदालत द्वारा तय की गई सीमा का उल्लंघन किया जा सकता है. सरकार ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को अनिवार्य बताया. इसके पीछे उसका तर्क था कि पिछड़े शब्द का आशय खासतौर पर सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन से है. ऐसे में सरकार के पास एक अन्य श्रेणी बनाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था. सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए कहा था कि यह किसी भी तरह से अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिकारों का हनन नहीं है. यह किसी भी तरह से उनके हिस्से को प्रभावित नहीं करेगा और न ही इससे सामान्य वर्ग को कोई नुकसान होगा. केंद्र सरकार ने कहा कि इसके लिए सरकारी नौकरियों या शैक्षणिक संस्थानों में सीटों की संख्या में इजाफा किया जाएगा. दूसरे शब्दों में कहें कि इससे किसी खास वर्ग को आवंटित सीटों या नौकरियों की कुल संख्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि उसके पास गरीब वर्गों के उत्थान के लिए काम करने का विशेषाधिकार है. इसका जिक्र संविधान की प्रस्तावना में भी किया गया है. ऐसे में आरक्षण के लिए एक आर्थिक पैमाना तय करना किसी लिहाज से संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं है. केंद्र सरकार के ईडब्ल्यूएस आरक्षण कानून को मध्य प्रदेश, असम और आंध्र प्रदेश का समर्थन प्राप्त था, लेकिन तमिलनाडु ने इसका विरोध किया था.
HIGHLIGHTS
- कमजोर आर्थिक तबके को आरक्षण पर दी गई थी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
- सरकार ने इसके पक्ष में अदालत के समक्ष प्रभावी ढंग से अपनी बात रखी
Source : News Nation Bureau