तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) लगभग एक दशक पहले के अपने आतंक, जबरन वसूली और बंधक बनाने के कुकृत्यों के साथ पाकिस्तान (Pakistan) में वापसी कर चुका है. हालांकि स्थिति अभी भी उतनी खराब नहीं है, जितनी तब थी. टीटीपी की आतंकी सक्रियता ने पाकिस्तान के अफगान तालिबान (Afghan Taliban) के साथ संबंधों को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया है. पाकिस्तान सरकार और पाकिस्तान का सैन्य प्रतिष्ठान (Pakistan Army) टीटीपी को शरण देने का आरोप अफगान तालिबान पर लगाती आ रही है. 2 जनवरी को पाकिस्तान सरकार और अफगानिस्तान अमीरात सरकार के बीच बेहद आक्रामक बयानों का आदान-प्रदान इस बात का संकेत था कि काबुल में तालिबान (Taliban) का कब्जा पाकिस्तान के निहित उद्देश्यों पर खरा नहीं उतर रहा है. साथ ही दोनों के संबंध भी पटरी से उतर रहे हैं. दोनों देशों के बीच संबंधों ने विगत महज 16-17 महीनों में ही उतार-चढ़ाव भरा सफर तय कर लिया है. ध्यान करें सितंबर 2021 में काबुल के उच्च सुरक्षा वाले 5-सितारा होटल सेरेना में अपने सहयोगियों के साथ आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद का चाय पीना, अफगान मीडिया के सामने सब कुछ ठीक हो जाने का दावा करने से लेकर विगत दिनों पाकिस्तान के गृह मंत्री राणा सनाउल्लाह का अफगानिस्तान में टीटीपी के ठिकानों पर बमबारी करने की धमकी तक कहानी खुद बयान करता है. सनाउल्लाह के बयान का दोहा स्थित तालिबान के एक सदस्य अहमद यासिर ने ट्वीट के साथ जवाब दिया कि अफगानिस्तान (Afghanistan) सीरिया नहीं है और न ही पाकिस्तान सीरिया में कुर्द ठिकानों पर बमबारी करने वाला तुर्की है. अहमद यासिर ने अपने ट्वीट में कहा, 'यह अफगानिस्तान है, जहां तमाम साम्राज्य कब्रिस्तान में दफन हैं. हम पर सैन्य हमले के बारे में कभी न सोचें, वर्ना आप भारत के साथ बांग्लादेश युद्ध के बाद समझौते की शर्मनाक पुनरावृत्ति के साथ खत्म भी हो सकते हैं.' दोनों तरफ की इस तुर्शी भरी बयानबाजी के बाद पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने दो दिवसीय बैठक के अंत में रसातल तक जा पहुंची अर्थव्यवस्था सहित देश के सामने विद्यमान अन्य मुद्दों पर एक दृढ़, लेकिन अधिक संयमित बयान दिया. इस बयान में कहा गया है, 'किसी भी देश को आतंकवादियों को पनाहगाह और सुविधाएं मुहैया कराने की अनुमति नहीं दी जाएगी. पाकिस्तान के पास अपने लोगों की सुरक्षा के संबंध में सभी अधिकार सुरक्षित हैं. पाकिस्तान की सुरक्षा से कतई कोई समझौता नहीं हो सकता है और पाकिस्तान की एक-एक इंच जमीन पर सरकार का पूरा अधिकार कायम रहेगा.'
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अफगानिस्तान में तालिबान के दोबारा कब्जे ने टीटीपी को मजबूत किया
अफगान तालिबान के साथ पुराने और नजदीकी संबंध रखने वाला टीटीपी अफगान तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा करने के बाद पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम आदिवासी इलाकों में एक बार फिर सक्रिय हो गया है. इस इलाके को पहले एफएटीए कहा जाता था, लेकिन अब यह खैबर पख्तूनख्वा प्रांत का हिस्सा है. पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान सहित पाकिस्तान में कुछ धड़ों ने अफगान तालिबान की जीत की सराहना ऐसे की थी मानो अमेरिका पर इस्लाम जीत गया हो. कुछ अति दक्षिणपंथी कट्टरपंथी दलों ने तो यहां तक घोषणा कर दी कि वह दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान में भी शरिया लागू होगा. उस समय गैलप के एक सर्वेक्षण में 2,000 से अधिक सर्वेक्षणकर्ताओं में से 55 प्रतिशत शरिया कानून के पक्ष में थे. हालांकि इस जोशीले कट्टरपंथी धड़ों के उत्साही बयानों के बीच दो महीने पहले ही सेवानिवृ्त्त होने वाले पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने उस समय चेतावनी दी थी कि अफगान तालिबान और पाकिस्तान का पुराना दुश्मन टीटीपी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. पाकिस्तान में नरमपंथी धड़ों ने भी उस समय टीटीपी के पाकिस्तान पर पलटवार की चेतावनी दी थी. उनकी यह दूरदर्शिता आज सच साबित हो रही है. उस समय चिंता का केंद्रीय कारण अफगानिस्तान के नए तालिबान शासकों द्वारा काबुल की जेलों से बड़ी संख्या में बंद टीटीपी कैदियों की रिहाई से जुड़ा था. इन घटनाओं से उत्साहित होकर टीटीपी के नेताओं ने घोषणा तक कर दी कि अफगानिस्तान में तालिबान की जीत का मॉडल पाकिस्तान में दोहराया जाएगा. इसके साथ ही टीटीपी ने पाकिस्तानी इलाकों में अपने आतंकी हमलों से जुड़ी एक लंबी खामोशी तोड़ दी. उन्होंने केपी प्रांत के आदिवासी हिस्सों में भी खुद को स्थापित करना शुरू कर दिया. शरिया के अनुरूप टीटीपी ने पुरुषों से कहा कि वे अपनी दाढ़ी न काटें और क्षेत्र के निवासियों से कर के रूप में पैसे वसूलने शुरू कर दिए. ऐसे में पाकिस्तानी अधिकारियों के मन में विद्यमान एक बड़ी आशंका या कहें कि एक बड़ा डर यह भी है कि कहीं टीटीपी इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (आईएसकेपी) के लिए पाकिस्तान के दरवाजे न खोल दे. दोनों आतंकी संगठन गहरे से आपस में जुड़े हुए हैं.
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पाक सेना को टीटीपी से निपटने में आ रही है बड़ी मुश्किल
लंबे समय से पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान की नीति पाकिस्तानी तालिबान से लड़ने के बजाय उसके साथ शांति स्थापित करने की रही है. पाकिस्तानी सेना और इस नीति के आलोचकों का कहना है कि अपनी लड़ाइयों को आतंकी समूहों के सुपुर्द कर अपने व्यवसायों में व्यस्त रहने के लिए इतना अभ्यस्त हो गए कि पाकिस्तान सैन्य प्रतिष्ठान वास्तव में अब लड़ने वाली सेना नहीं रही. इस कड़ी में पाकिस्तानी सेना सोचती थी कि उसे अपने ही लोगों से लड़ने वाली छवि नहीं मिले. तत्कालीन सैन्य प्रतिष्ठान ने 2007 में इस्लामाबाद की लाल मस्जिद पर पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ द्वारा आदेशित कमांडो हमले से सेना ने यह सबक लिया था. जनरल पवरेज मुर्शरफ के इस कदम की पाकिस्तान में व्यापक रूप से आलोचना हुई थी और इसी की वजह टीटीपी अस्तित्व में आया. 2008-09 के दौरान सुंदर स्वात घाटी पर टीटीपी के गुपचुप कब्जे से पाकिस्तान के सत्तारूढ़ सैन्य प्रतिष्ठान की न सिर्फ नींद टूटी, बल्कि वह पहली बार टीटीपी से खौफजदा भी हुआ. इसके बाद घबराए पाकिस्तान सैन्य प्रतिष्ठान ने टीटीपी के खिलाफ अपना पहला बड़ा ऑपरेशन करने का फैसला किया. यही नहीं, इस ऑपरेशन को पाकिस्तान के हुक्मरानों ने भारत की रॉ का कारनामा भी करार दिया. दिसंबर 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में टीटीपी प्रायोजित आतंकी हमले में 132 छात्रों और 17 शिक्षकों की हत्या के बाद पाकिस्तानी सेना का सबसे गंभीर ऑपरेशन शुरू हुआ. उस समय टीटीपी आतंकी समूह के कई शीर्ष और कैडर अफगानिस्तान भाग गए थे.
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2021 में पाक सेना फिर से शांति की दुहाई देने लगी
अफगानिस्तान की धरती पर टीटीपी के सुरक्षित ठिकाने पाकिस्तान और भारत समर्थक अशरफ गनी सरकार के बीच विवाद का विषय बने रहे. अगस्त 2021 में गनी सरकार के चले जाने और अफगान तालिबान की जीत का श्रेय लेने के लिए बड़ी संख्या में पाकिस्तानी इसके लिए खुद की पीठ थपथपा रहे थे. यह अलग बात है कि काबुल की सत्ता पर तालिबान राज की वापसी के साथ टीटीपी नए जोश-ओ-खरोश के साथ सक्रिय हो गया. सितंबर 2021 से टीटीपी ने पाकिस्तान में अपना आतंकी युद्ध तेज कर दिया. यह देखकर पाकिस्तानी सेना फिर एक बार शांति की दुहाई देकर पैरवी करने लगी. तत्कालीन प्रधान मंत्री इमरान खान हमेशा टीटीपी से बात करने और तालिबान जीवन के तरीके को समझने-समझाने के पक्षधर रह. आईएसआई के बॉस लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद ने कोर कमांडर पेशावर के रूप में तालिबान सरकार से बातचीत शुरू की. पाकिस्तानी सेना चाहती थी कि टीटीपी हिंसा का रास्ता छोड़कर मुख्यधारा में शामिल हो, लेकिन टीटीपी की मुख्य मांग केपी प्रांत से एफएटीए क्षेत्रों को अलग करने की थी. संभवतः वे इस तरह उसे अपनी सुरक्षित पनाहगाह बनाना चाहते थे, जिस पर सिर्फ अफगान तालिबान की ही आवाजाही सुनिश्चित की जा सके. इस कड़ी में जून 2022 में पाकिस्तानी सरकार और टीटीपी के बीच एक युद्धविराम भी घोषित किया गया था. हालांकि वार्ता के किसी करवट न बैठते देख टीटीपी युद्धविराम समझौते को तोड़ बातचीत के दायरे से बाहर हो गया. गौरतलब है कि बीते साल 29 नवंबर को पाकिस्तान के नए सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर के कमान संभालते ही टीटीपी ने युद्धविराम समाप्त करने की घोषणा कर दी. इसके बाद से टीटीपी के आतंकी हमलों में तेजी आई है. इन आतंकी हमलों में इस्लामाबाद में आत्मघाती बम विस्फोट भी शामिल है, जो 2014 के बाद से राजधानी में इस तरह की पहली घटना है. 20 दिसंबर को टीटीपी ने बन्नू में एक आतंकवाद निरोधी केंद्र में पुलिसकर्मियों और सेना के अधिकारियों को बंधक बनाते हुए सभी कैदियों को रिहा कर दिया. जब बंधकों की रिहाई के लिए बातचीत विफल हो गई, तो सेना ने एक बड़ा अभियान शुरू किया. इसमें टीटीपी के 33 कैडरों और दो स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप के कमांडो मारे गए. इसके बाद टीटीपी और पाकिस्तान सेना के बीच खाई और चौड़ी हो गई है.
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आज अच्छे-बुरे तालिबान के बीच पिस रहा पाकिस्तान
पाकिस्तान के दृष्टिकोण से अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी का सबसे संतोषजनक परिणाम भारत का दरकिनार होना था. पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठान और हुक्मरानों को अफगानिस्तान में भारत की सक्रियता फूटी आंख नहीं सुहाती थी, जो बीते दो दशकों से बुनियादी ढांचा विकसित करने और अन्य सहायता प्रदान करने के लिए काम कर रहा था. यह अलग बात है कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान को विभाजित करने वाली डूरंड रेखा पर मतभेदों ने गहराती खाई को और चौड़ा करने का काम किया. अफगानों ने इसे कभी भी पाकिस्तान के साथ एक अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार नहीं किया, तो तालिबान की वजह से पाकिस्तान इस सीमा रेखा पर खुली आवाजाही की अनुमति नहीं देना चाहता है. इसके अलावा जुलाई 2022 में काबुल में अमेरिका द्वारा अल-कायदा प्रमुख अयमान अल-जवाहिरी की हत्या ने दोनों पक्षों के बीच तनाव और बढ़ाने में योगदान दिया है. इस घटना में पाकिस्तान सुरक्षा प्रतिष्ठान की भूमिका पर सवाल खड़ा कर दिया है. जाहिर है तालिबान शासन के तहत नए अफगानिस्तान में पाकिस्तान की एक बड़ी भूमिका की उम्मीदें साकार नहीं हो पा रही हैं. और तो और, पिछली बार के विपरीत इस्लामाबाद तालिबान शासन को मान्यता नहीं देने में बाकी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ खड़ा है. रोचक बात यह है कि यह काबुल शासन में आंतरिक मंत्री और आईएसआई के लाडले सिराजुद्दीन हक्कानी के बारे में कहा जाता है कि वह दक्षिण-पूर्वी अफगानिस्तान में टीटीपी को पनाह दे रहा है. लंबे समय से हक्कानी और टीटीपी पर नजर रखने वाले एंटोनियो गुइस्तोजी के अनुसार, सिराजुद्दीन हक्कानी टीटीपी का इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ अपनी बढ़त बनाने के रूप में कर रहा है. पंद्रह साल पहले पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठान ने अच्छे और बुरे तालिबान के बीच अंतर करने की कोशिश की थी. अच्छे तालिबान में पाकिस्तान के निहित स्वार्थों को पूरा करने वाले अफगान तालिबान, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा सरीखे अन्य आतंकी समूह थे. इनमें तमाम सुन्नी कट्टरपथी आतंकी समूह भी प्रमुख हैं. टीटीपी बुरा तालिबान था, क्योंकि यह आतंकी संगठन पाकिस्तान, उसके नागरिकों और सुरक्षा बलों और अन्य राज्य के बुनियादी ढांचों से जुड़े प्रतीकों को निशाना बना रहा था. आज बदले हालातों में अच्छा तालिबान और बुरा तालिबान एक ही तरफ हैं. यही वजह है कि पाकिस्तान अपने ही बनाए हुए विरोधाभास में फंसता नजर आ रहा है.
HIGHLIGHTS
- निहित स्वार्थवश पाकिस्तान ने सालों पहले छेड़ा था अच्छे-बुरे तालिबान का राग
- आज 'अच्छा' अफगान तालिबान और 'बुरा' तालिबान टीटीपी के बीच पिस रहा पाक
- सबसे बड़ा डर यह कि टीटीपी कहीं आईएसकेपी के लिए दरवाजे नहीं खोल दे