साल 2024 के लोकसभा चुनाव की दहलीज पर खड़े 80 सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश पर पूरे देश की नजरे हैं. ये वही राज्य है जहां से दिल्ली का रास्त निकलता है. इतिहास गवाह है कि भारतीय राजनीति में जिस भी राजनीतिक दल या गठबंधन ने यूपी फतह किया है, दिल्ली पर उसी का राज रहा है. यही वजह है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों ने नए-नए सियासी समीकरण बैठाना शुरू कर दिए हैं. एक तरफ जहां 25 से ज्यादा विपक्षी पार्टियां एक छत्र I.N.D.I.A के तहत आकर सत्ताधारी बीजेपी के गठबंधन NDA को टक्कर देने की कोशिश में जुटे हैं. वहीं, दूसरी तरफ पिछले करीब 10 सालों से यूपी सियायत में अपना दबदबा बनाने वाली बीजेपी अपने किले को बचाने में कोई कोरी कसर नहीं छोड़ना चाहती है. शायद यही वजह है कि राज्य की योगी सरकार द्वारा लोकसभा चुनाव से पहले कई बड़े संदेश देने की कोशिश की जा रही है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश और यूपी की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल की अनुमति के बाद शासन ने कवियत्री मधुमिता हत्याकांड के दोषी पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी और उनकी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी की रिहाई का आदेश पारित कर दिया. अमरमणि और उनकी पत्नी की रिहाई के खिलाफ मुधमिता शुक्ला की बहन निधि शुक्ला सुप्रीम कोर्ट पहुंची, लेकिन कोर्ट ने रिहाई पर किसी तरह की रोक लगाने से इनकार कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार के नोटिस जारी कर 8 हफ्ते में जवाब दाखिल करने को कहा है.
इस बीच सियासी गलियारों में ये चर्चा है कि आखिर सुशासन और अपराध मुक्त शासन का दावा करने वाली यूपी की योगी सरकार की आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसे अमरमणि त्रिपाठी जैसे सजायाफ्ता अपराधी को रिहा करने का आदेश जारी करना पड़ा? जानकारों का कहना है कि लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी अमरमणि पर बड़ा राजनीतिक हमला कर एक खास वर्ग के वोटरों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती हैं. यही वजह है कि अमरमणि की रिहाई की पर कांग्रेस को छोड़ अब तक किसी विपक्षी पार्टियों की तरफ बयान नहीं आया है. यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष अजय राय ने कहा है कि "इस क्राइम में शामिल लोगों को जेल से बाहर नहीं आना चाहिए. इससे समाज में गलत संदेश जाएगा." लेकिन यूपी की राजनीति में अमरमणि त्रिपाठी आज भी खासा रसूख रखते हैं.
अमरमणि त्रिपाठी ने अपराध की दुनिया से राजनीति का सफर तय किया है. राजनीति में एंट्री से पहले ही अमरमणि पर हत्या, मारपीट, किडनैपिंग जैसे आरोप लग चुक थे. जैसे-जैसे अमरमणि के क्राइम का ग्राफ बढ़ता गया, उसकी हनक लखनऊ तक दिखाई देने लगी. ये वो दौर था जब यूपी के पूर्वांचल में ब्राह्मण और राजपूत के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी. ब्राह्मणों का नेतृत्व हरिशंकर तिवारी कर रहे थे. वहीं, ठाकुरों के बीच वीरेंद्र प्रताप शाही अपनी पकड़ बनाए हुए थे. ऐसे में दोनों गुट लगातार आमने-सामने आ रहे थे. अमरमणि त्रिपाठी ने हरिशंकर तिवारी का साथ देना शुरू किया. बहुत जल्द ही अमरमणि हरिशंकर के सबसे करीबी हो गए. हरिशंकर को भी एक ऐसे ही हथियार की तलाश थी, जो वीरेंद्र प्रताप शाही को टक्कर दे सके.
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ब्राह्मण गुट का नेतृत्व कर रहे हरिशंकर तिवारी का दिया था साथ
हरिशंकर तिवारी ने अमरमणि को 1980 के चुनाव में वीरेंद्र शाही के खिलाफ लक्ष्मीपुर सीट से चुनावी मैदान में उतार दिया. अमरमणि सीपीआई के टिकट पर मैदान में उतरे, लेकिन हार गए. साल 1985 में भी अमरमणि फिर मैदान में उतरे, फिर हार गए. साल 1989 के चुनाव में अमरमणि ने कांग्रेस के टिकट पर चुनावी ताल ठोंकी और जीत का स्वाद चखा. अमरमणि त्रिपाठी पहली बार विधायक बने. हालांकि, साल 1991 और 1993 के विधानसभा चुनाव में फिर अमरमणि हारे. साल 1996 में एक बार फिर अमरमणि कांग्रेस के टिकट पर मैदान में उतरे और जीत हासिल की. हालांकि, तब यूपी में बीजेपी-बीएसपी गठबंधन की सरकार बनी थी. इसके बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया. कल्याण सिंह ने उन्हें पार्टी में आते ही मंत्री बना दिया. लेकिन साल 2001 में बस्ती जिले के एक बड़े कारोबारी के बेटे के अपरण मामले में उनका नाम आने पर तत्कालीन सीएम राजनाथ सिंह ने अमरमणि को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया. बीजेपी से किनारे किए गए अमरमणि ने तब बीएसपी का दामन थामा.
मधुमिता शुक्ला हत्याकांड में उम्रकैद की सजा काट रहे थे त्रिपाठी
2002 विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने अमरमणि को फिर से उम्मीदवार बना दिया. वो फिर चुनाव जीत गए. मायावती की सरकार बनी, हालांकि, बीएसपी-बीजेपी सरकार एक साल तक ही चली. इसी दौरान अमरमणि की लखीमपुर खीरी की वीर रस की कवियत्री मधुमिता शुक्ला से पहचान बढ़ी. इसके बाद अमरमणि का बुरा दौर शुरू हो गया. 9 मई 2003 को लखनऊ की पेपर मिल कॉलोनी में रहने वाली मधुमिता शुक्ला के घर में दो बदमाश घुसे. गोलियों की बौछार कर उसकी हत्या कर दी. मधुमिता के परिवार की तरफ से दाखिल एफआईआर में अमरमणि त्रिपाठी, उनकी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी, भतीजे रोहित मणि त्रिपाठी, संतोष राय और पवन पांडे को आरोपी बनाया गया. प्रदेश में बीएसपी सरकार थी और अमरमणि त्रिपाठी मंत्री थे. CBCID ने 20 दिन की जांच के बाद मामला CBI को सौंपा. गवाहों से पूछताछ हुई तो दो गवाहों ने बयान बदले थे. साल 2007 के चुनाव में अमरमणि सपा के टिकट पर मैदान में उतरे और चुनाव जीते. मधुमिता केस कोर्ट में चार सालों तक चला. 24 अक्टूबर 2007 को देहरादून सेशन कोर्ट ने पांचों लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई. महाराजगंज की लक्ष्मीपुर सीट साल 2008 के परिसीमन के बाद नौतनवां कही जाने लगी. 2012 में सपा ने इस सीट से अमरमणि के बेटे अमनमणि को टिकट दिया और वे चुनाव हार गए. इसके बाद साल 2017 में अमनमणि निर्दलीय मैदान में उतरे और चुनाव जीत गए. लेकिन साल 2022 के विधानसभा चुनाव में वो चुनाव हार गए.
ब्राह्मणों में पैठ बनाने की जुगत में बीजेपी
अमरमणि त्रिपाठी नैनीताल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट गए, लेकिन सजा बरकरार रही. अमरमणि त्रिपाठी को उम्र कैद की सजा को 16 साल बाद राज्यपाल की अनुमति के बाद खत्म करने का निर्देश दिया गया है. अमरमणि और मधुमणि की उम्र, सजा की अवधि और सजा के दौरान जेल में अच्छे आचरण को देखते हुए सजा माफ की गई. ऐसा माना जा रहा है कि करीब 20 साल बाद अमरमणि के जेल से बाहर आने के बाद पूर्वांचल में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं. भले साल 2007 के बाद अमरमणि ने चुनाव नहीं लड़ा हो, लेकिन उसकी राजनीतिक विरासत को बेटे अमनमणि ने आगे बढ़ाया. एक बड़े वर्ग में उसका रसूख है. राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि पूर्वांचल में बीजेपी ने ओम प्रकाश राजभर और दारा सिंह चौहान जैसे चेहरों को साधकर ओबीसी वोट बैंक में अपनी पैठ बढ़ाई है. वहीं, अमरमणि के जरिए ब्राह्मणों के बीच पार्टी के आधार के और जमने का संदेश जाना तय माना जा रहा है.