विगत गुरुवार की शाम जैसे ही नॉर्वेजियन नोबेल समिति ने बेलारूस के मानवाधिकार पैरोकार एलेस बियालियात्स्की, रूस के मानवाधिकार संगठन 'मेमोरियल' और यूक्रेन के मानवाधिकार संगठन 'सेंटर फॉर सिविल लिबर्टीज' को शांति के नोबेल पुरस्कार (Nobel Peace Prize) की घोषणा की, एक बड़ा पुराना यक्ष प्रश्न फिर सामने आकर खड़ा हो गया! भला यह कैसे संभव है कि वैश्विक स्तर पर शांति के सबसे बड़े दूत और आधुनिक इतिहास में दमन, उत्पीड़न और भेदभाव के खिलाफ अहिंसक संघर्ष के महान प्रेरक भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को उनके जीवित रहते या मरणोपरांत शांति के नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) से सम्मानित नहीं किया गया?
यह यक्ष प्रश्न खुद नोबेल समिति को मथ रहा
नोबेल पुरस्कारों की वेबसाइट पर कुछ सवाल सामने आते हैं, क्या नॉर्वेजियन नोबेल समिति का दायरा बेहद संकीर्ण है? क्या नोबेल समिति के सदस्य गैर यूरोपीय लोगों के स्वतंत्रता संघर्ष की सराहना करने में अक्षम हैं? या नॉर्वेजियन नोबेल समिति के सदस्य ऐसे किसी शख्स को शांति का नोबेल पुरस्कार देने से डरते हैं, जो उनके देश और ग्रेट ब्रिटेन के संबंधों को नुकसान पहुंचा सके? इसी के आगे लिखा हुआ है- 'महात्मा गांधी लापता पुरस्कार विजेता.', नोबेल वेबसाइट आगे कहती है, '1960 तक नोबेल का शांति पुरस्कार खासतौर पर यूरोपीय और अमेरिकी को ही दिया गया. इस पर निगाह डालने से लगता है कि नॉर्वेजियन नोबेल शांति समिति का दायरा बेहद संकीर्ण है. नोबेल के शांति पुरस्कार के पूर्व विजेताओं से गांधीजी बेहद अलग थे. वास्तव में गांधीजी कोई राजनेता नहीं थे और ना ही किसी अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रस्तावक थे. इस कड़ी में वह मानवीय राहत पहुंचाने वाले कार्यकर्ता भी नहीं थे और वह अंतरराष्ट्रीय शांति सम्मेलनों के आयोजक भी नहीं थे. सच तो यह है कि उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिलता तो वह एक नई नस्ल का प्रतिनिधित्व करते.'
यह भी पढ़ेंः क्या वाकई यूक्रेन में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है रूस?
हालांकि गांधीजी का शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए कई बार नामांकन हुआ
गांधीजी का नोबेल के शांति पुरस्कार के लिए पहली बार नामांकन नोट 'फ्रेंड्स ऑफ इंडिया' की नॉर्वेजियन शाखा की महिला सदस्यों ने लिखा था. यह यूरोप और अमेरिका में फैला भारत समर्थित नेटवर्क था. हालांकि नोबेल समिति के सलाहकार प्रोफेसर जैकब वर्म मूलर ने अपनी रिपोर्ट में तर्क दिया, 'गांधी यद्यपि एक अच्छे, महान और संत थे. उन्होंने अपनी नीतियों में कई बार तीखे बदलाव किए, जिसने उन्हें एक स्वतंत्रता सेनानी और एक तानाशाह, एक आदर्शवादी और एक राष्ट्रवादी दोनों ही बना दिया.' वर्म मूलर ने यह लिखते हुए उन आलोचकों का जिक्र किया जो आरोप लगाते थे, 'गांधी लगातार शांतिवादी नहीं रहे. वह अपने ही आदर्शों के सार्वभौमिक होने पर संदेह करते थे. दक्षिण अफ्रीका में उनका संघर्ष सिर्फ भारतीयों के लिए था, न कि समग्र अश्वेतों के लिए.' 1947 में नोबेल के शांति पुरस्कार के लिए गांधीजी का नामांकन बीजी खेर, जीवी मावलंकर और जीबी पंत ने किया. पंत ने महात्मा गांधीजी को 'नैतिक व्यवस्था का सबसे बड़ा प्रतिवादक और आज के दौर में विश्व शांति के सबसे प्रभावी चैंपियन' बतौर उल्लेखित किया. इस बार नोबेल समिति के सलाहकार और इतिहासविद जेंस अर्प सीप ने पंत की टिप्पणी को 'बिल्कुल अनुकूल है. फिर भी साफतौर पर सहायक नहीं है' कह कर पानी फेर दिया. समिति के अध्यक्ष गुन्नार जाह्न की टिप्पणी के मुताबिक समिति के दो सदस्यों क्रिश्चियन कंजर्वेटिव हर्मन स्मिट इंगेब्रेट्सन और क्रिश्चियन लिबरल क्रिस्टीन ऑफ्त्डल ने महात्मा गांधी का पक्ष लिया, लेकिन अन्य तीन में से दो क्रमशः लेबर राजनेता मार्टिन ट्रेनमिल, भूतपूर्व विदेश मंत्री बर्गर ब्रैडलैंड भारत के विभाजन और इस कारण भड़के दंगों के ऐन बीच में गांधी को सम्मानित नहीं करना चाहते थे. उस वक्त भी शांति का नोबेल पुरस्कार क्वैर्क्स को मिला.
मरणोपरांत इस कारण नहीं मिल सका गांधीजी को शांति का नोबेल
1948 में गांधीजी की हत्या के दो दिन पहले ही शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकन बंद हुए थे. उस साल गांधीजी के लिए आधा दर्जन लोगों ने नामांकन दाखिल किए थे. इनमें 1947 के क्वैर्क्स और 1946 के एमिली ग्रीन बाल्क नोबेल विजेता भी शामिल थे. नोबेल समिति के सलाहकार जेंस अर्प सीप ने लिखा कि जिन लोगों के दृष्टिकोण और विचारधारा पर गांधीजी ने अपनी छाप छोड़ी. ऐसे में अब 'उनकी तुलना केवल धर्म के संस्थापकों से ही की जा सकती है'. नोबेल की स्थापना करने वालों ने कुछ खास स्थितियों में मरणोपरांत नोबेल पुरस्कार देने के विधिक प्रावधान भी बनाए थे. हालांकि गांधीजी किसी संगठन से जुड़े हुए नहीं थे और ना ही उन्होंने कोई वसीयत छोड़ी थी. ऐसे में यह साफ नहीं था कि पुरस्कार राशि किसको मिलेगी. नोबेल समिति के अधिवक्ता ओल टॉर्लीफ रीड ने नोबेल देने वाली संस्था से राय मांगी, जिसने मरणोपरांत गांधीजी को नोबेल देने से मना कर दिया. अंततः समिति ने कहा कि 'उस साल शांति के नोबेल का कोई उपयुक्त जीवित उम्मीदवार नहीं है'. हालांकि बताते हैं कि समिति के अध्यक्ष गुन्नार जाह्न ने इस पर तीखी असहमति जताई थी.
यह भी पढ़ेंः OPEC+ Cuts दुनिया चिंता में, लेकिन भारत निश्चिंत क्यों... जानें क्यों
शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए गांधीजी को 'बहिष्कृत' किए जाने का खाका
- 1960 तक जब रंगभेद विरोधी कार्यकर्ता जॉन लुटुली को नोबेल नहीं दिया गया, उससे पहले तक शांति का नोबेल पुरस्कार खासतौर पर यूरोपीय या अमेरिकी को ही दिया जाता था, नोबेल पुरस्कारों की वेबसाइट के मुताबिक गांधी 'अलग हट' के थे, जो कोई राजनेता नहीं थे और ना ही किसी अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रस्तावक थे. इस कड़ी में वह मानवीय राहत पहुंचाने वाले कार्यकर्ता भी नहीं थे और वह अंतरराष्ट्रीय शांति सम्मेलनों के आयोजक भी नहीं थे.
- हालांकि नोबेल समिति के आर्काइव में ऐसा एक भी सुझाव मौजूद नहीं है, जो बताता हो कि गांधीजी को शांति के नोबेल पुरस्कार पर ब्रिटिश सरकार की संभावित नकारात्मक प्रतिक्रिया की वजह से उन्हें महरूम रखा गया.
- 1947 में समिति के अधिसंख्य सदस्य एक भ्रामक समाचार से गांधीजी की शांतिवाद को संदेह से देख रहे थे. इस समाचार में गांधीजी के हवाले से लिखा गया था, 'अगर पाकिस्तान से न्याय हासिल करने का कोई अन्य रास्ता नहीं है, तो भारतीय सरकार को उसके खिलाफ युद्ध छेड़ देना चाहिए और जिन मुसलमानों की निष्ठा पाकिस्तान के प्रति है, उन्हें भारतीय संघ में नहीं रहना चाहिए.'
HIGHLIGHTS
- नोबेल पुरस्कार की वेबसाइट पर भी गांधीजी से जुड़े प्रश्नों की भरमार
- तीन बार शांति के नोबेल के लिए हुआ नामंकन, हर बार हुआ खारिज
- मरणोपरांत भी कई पेंच-ओ-खम की वजह से वंचित रह गए थे राष्ट्रपिता