अंग्रेजी सरकार का विरोध देश में चरम पर था बावजूद इसके सही दिशा, सही प्रयास और असंगठित नेतृत्व के चलते कोई भी क्रांतिकारी अपने उद्देश्यों में कामयाबी हासिल नहीं कर पा रहा था। 1857 की पहली ही क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार यह समझ गई थी कि हिंदुस्तान पर राज करने के लिए हिंदु-मुस्लमानों के बीच दूरी पैदा करना ज़रुरी है।
1857 की क्रांति के बाद सतर्क हुई विदेशी हुकुमत ने भारत पर से ईस्ट इंडिया कंपनी की कमान लेकर खुद ब्रिटेन की महारानी के हाथों में सौंप दी थी।
अंग्रेजों की ज़्यादतियां भी पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गई थी और इसी के साथ मज़बूत हो गया था ब्रिटेन का प्रशासन और सैन्य क्षमता। अब अंग्रेजी हुकुमत को चुनौती देना इतना आसान नहीं था। विद्रोह करने वाले को तुरंत मौत के घाट उतार दिया जाता था। इस सबके बीच भारतीय आमजन गरीब से और गरीब होता जा रहा था।
किसानों की हालत दयनीय थी। दो वक्त की रोटी को लाचार किसानों के पास न पहनने को सही से कपड़े होते थे न पेट भर खाना और उस पर भी उन्हें मजबूर होकर नील की खेती करनी पड़ती और उस पर भी तिन कठिया ब्याज ने किसानों की कमर तोड़ रखी थी।
लेकिन वो कहते हैं न कि जहां चाह वहां राह… आखिरकार डूबते को तिनके का सहारा मिल गया और चंपारण में गांधी जी का आगमन हुआ।
चंपारण में गांधी जी का आगमन
चंपारण में गांधी जी कैसे आए यह भी एक दिलचस्प कहानी है। अफ्रीका में भारतीयों के लिए अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सफल सत्याग्रह के बाद जब वो भारत आए तो भारतीयों में एक नई प्रकार की उमंग और उम्मीद जगी। यूं तो महात्मा गांधी पहले भी भारत आ चुके थे और अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों के संघर्ष से भली-भांति वाकिफ थे।
लेकिन लोगों की वेदना, दुखों और अंग्रेजी हुकुमत के जुल्मों का अहसास सही मायने में उन्हें पहली बार चंपारण आकर ही हुआ। लोगों की शक्लों और जिस्मों से झांकता हुआ कंकाल चीख-चीख कर अंग्रेजों के जुल्मों की कहानी कह रहा था।
1894 में अफ्रीका में सफल सत्याग्रह के बाद गांधी जी जब भारत लौटे और 1916 में लखनऊ में कांग्रेस के सालाना सत्र में शरीक होने पहुंचे तो वहां उनकी मुलाकात चंपारण के नील किसान और कॉलेज में अध्यापक राजकुमार शुक्ल से हुई। उन्होंने गांधी जी को चंपारण आने का निमंत्रण दिया।
इसके बाद राजकुमार शुक्ल और चंपारण के पीर मोहम्मद अंसारी (जो कि एक पत्रिका भी निकालते थे) ने गांधी जी को कई बार पत्र लिख कर चंपारण की स्थिति के बारे में अवगत कराया।
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उन्होंने वहां अंग्रेजी सरकार द्वारा कराई जाने वाली जबरन नील की खेती और टिंकथिया लगान प्रणाली के बारे में भी बताया। गांधी जी की पहली बिहार यात्रा 10 अप्रैल 1917 को हुई जब वो पहली दफा पटना पहुंचे और 5 दिनों की यात्रा के बाद मुज़फ्फरपुर से चंपारण के जिला मुख्यालय मोतिहारी पहुंचे।
चंपारण के किसानों की दयनीय स्थिति देख गांधी जी ने 17 अप्रैल को चंपारण सत्याग्रह की शुरुआत की
चंपारण सत्याग्रह
चंपारण में नील के 70 कारख़ाने थे। लगभग पूरा ज़िला इन कारख़ानों को अपने हाथों में ले चुका था। इन खेतों को यूरोपीय मालिक अब हर तरह से स्थानीय सामंती वर्ग से छीन चुके थे। चंपारण में ज़मीन का लगान तो सभी को ही देना होता था लेकिन इसमें भी ऊंची और नीची जाति के लिए भेदभाव था।
चंपारण में ज़मीन का लगान मालिक की जाति के हिसाब से तय होता था। ऊंची जाति वालों को छोटी जाति वालों की तुलना में कम लगान देना पड़ता था। इस समय समाज में कुरीतियां भी अपने चरम पर थी।
चंपारण पहुंच कर गांधी जी ने वहां किसानों की मार्मिक स्थिति का जायज़ा लिया और इसी दौरान ब्रजकिशोर वर्मा, राजेंद्र प्रसाद और मजरुल हक जैसे नेताओं ने गांधी जी से मुलाकात करना शुरु कर दिया। चंपारण में गांधी जी की मौजूदगी से गोरे घबरा गए थे। उन्होंने गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया और उन पर मुकदमा चलाना शुरु कर दिया।
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टिंकाथिया प्रणाली
किसानों को अपनी भूमि के 20 भागों में से तीन भागों में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया जाता था और उस पर कर वसूला जाता था।
गांधी जी का सविनय अवज्ञा आंदोलन
गांधी जी को इस मुकदमें में बहुत दबाने की कोशिश की गई और उन पर चंपारण के किसानों को भड़काने का आरोप भी लगा। लेकिन अपनी चतुर वकालत और अच्छे वक्ता होने का परिचय देते हुए चंपारण के किसानों की व्यथा अंग्रेजी हुकुमत के सामने रखी।
इसके बाद ब्रिटिश अदालत और सरकार पीछे हटते हुए अपनी साख बचाने की कोशिश करती नज़र आई। इसके बावजूद जब अंग्रेजी हुकुमत उनकी नहीं सुनी तो उन्होंने अहिंसा की राह पर चलते हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन की बात कही।
अंग्रेजी प्रशासन डर गया और गांधी जी को जेल में डाल दिया गया, जबकि अदालत में केस अभी भी जारी था। राजकुमार शुक्ल, कृपलानी और मज़रुल हक़ उनसे मिलते रहे। इस बीच गोरों का किसानों पर आतंक जारी था और जबरन किसानों को घर से निकाल-निकाल कर नील की खेती के लिए मजबूर किया जाता रहा।
किसान अपनी फरियाद लेकर गांधी जी से मिलते रहे, उधर अंग्रेजों ने भी जनता की आवाज़ को दबाने के लिए सभी हथकंडे अपनाए लेकिन विद्रोह के सुर बढ़ते ही जा रहे थे।
किसानों की दुर्दशा पर बनी पहली सरकारी रिपोर्ट
अंग्रेजी हुकुमत ने अपना पैंतरा बदला और यकायक अदालत ने गांधी जी पर से मुकदमा हटा लिया लेकिन साथ ही उन्हें आदेश दिया कि किसानों की दुर्दशा पर रिपोर्ट तैयार कर अदालत में जमा कराएं और चंपारण छोड़ कर चले जाएं।
इसके बाद बिहार के गवर्नर ने एक कमेटी बनाई जिसमें गांधी जी को भी सदस्य के तौर पर रखा गया। इस कमेटी को किसानों की हालात के बारे में रिपोर्ट देनी थी।
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अंग्रेजी हुकुमत को लगा कि गांधीजी के कमेटी में होने के बावजूद किसान कमेटी के अन्य मजिस्ट्रेट के सदस्यों और सरकारी कर्मचारियों की मौजूदगी में अपनी परेशानियां खुलकर नहीं रख पाएंगे और गोरों की चाल कामयाब हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, उलटे गांधी जी की उपस्थिति से किसान बिना डरे अपनी व्यथा सरकारी कमेटी को बताने लगे। करीब 8,000 किसानों ने अपनी बातें रखीं और इन सबूतों को मिटा पाना मुश्किल था।
जांच के बाद लोगों की तकलीफों के बाद पता चला और कमेटी ने सिफारिश की किसानों का असंवैधानिक तरीके से छीना गया हिस्सा वापस दिया जाए। जनता पर ज्यादतियां बंद हो और टिंकथिया पद्धति को समाप्त किया जाए। इसके बाद 100 सालों से चल रही टिंकथिया प्रणाली समाप्त हो सकी।
चंपारण का असली महत्व उनके जीवनी के लेखक डीजी तेंदुलकर के शब्दों में लिखा गया कि, 'गांधीजी ने एक हथियार बना दिया जिसके द्वारा भारत को स्वतंत्र बनाया जा सकता था।'
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Source : Shivani Bansal