एक बार फिर विनायक दामोदर सावरकर उर्फ वीर सावरकर (Veer Sawarkar) को लेकर राजनीति गर्मा गई है. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस (Congress) और वीर सावरकर को लेकर शुरू हुआ ताजा विवाद इस बार उत्तर प्रदेश विधान परिषद की चौखट तक आ पहुंचा है. एक तरफ भारतीय जनता पार्टी (BJP) वीर सावरकर को भारत रत्न देने की बात कर उन्हें महान देशभक्त बताती है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठु करार दे लगातार विरोध कर रही है. हालांकि इस रस्साकशी के बीच यह बात जानना बेहद रोचक रहेगा कि कांग्रेस और वीर सावरकर कभी एक-दूसरे के प्रशंसक हुआ करते थे, यहां तक कि वीर सावरकर ने एक समय कांग्रेस को 'आजादी की मशालवाहक' तक करार दिया था. और तो और वीर सावरकर के जेल से छूटने के बाद कांग्रेस के कई नेताओं ने कई शहरों में वीर सावरकर के स्वागत में कार्यक्रम तक रखे थे. फिर यह दुश्मनी कैसे हुई, यह जानना बेहद रोचक रहेगा.
वैचारिक संघर्ष बदल गया गहरी दुश्मनी में
संभवतः इसीलिए कहते हैं कि इतिहास के अंधरे गलियारे गहरे रहस्य समेटे हुए होते हैं. किसी पत्थर पर पड़ा हाथ एक ऐसा रोचक घटनाक्रम सामने ले आता है, जो इतिहास को नए सिरे से परिभाषित करने की मांग करने लगता है. वीर सावरकर और कांग्रेस के मामले में भी ही हो रहा है. एक तरफ कांग्रेस जहां हर मौके पर वीर सावरकर का विरोध कर उनके जुड़ी बातों को सामने लाने की बात कर रही है ताकि नई पीढ़ी को उनके बारे में पता चल सके. वहीं इतिहास के गर्भ तले कुछ ऐसा करवट लेता है, जो एक बार फिर आजादी से पहले और बाद में कांग्रेस की भूमिका को ही कठघरे में खड़ा कर देता है. कुछ ऐसी ही उलटबांसी का प्रतीक है वीरा सावरकर और कांग्रेस का वैचारिक संघर्ष.
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सावरकर ने कांग्रेस को बताया था आजादी की मशालवाहक
आधुनिक भारत में हिंदुत्व राष्ट्रवाद के पुरोधा माने जाने वाले सावरकर ने बाल गंगाधर तिलक और दादा भाई नौरोजी ही नहीं बल्कि महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस और नरीमन जैसे नेताओं की तारीफ समय-समय पर करते थे. यहां तक कि एक बार तो उन्होंने कांग्रेस को 'आज़ादी की मशाल वाहक' करार दिया था. कांग्रेस से अच्छे संबंधों वाले उन्हीं दिनों में ब्रिटिश सरकार ने काला पानी से सावरकर को रिहा करने से मना किया था. ऐसे में 1920 में गांधी, वल्लभभाई पटेल और तिलक ने ब्रिटिश शासकों से सावरकर को बगैर शर्त छोड़ जाने की मांग रखी थी. ऐसे गहरे संबंधों के बावजूद वीर सावरकर और कांग्रेस एक घटना को लेकर इस तरह आमने-सामने आए कि जन्म-जन्मांतर की दुश्मनी पैदा हो गई.
सावरकर की रिहाई पर स्वागत कार्यक्रम ऱखे थे कांग्रेस ने
इतिहास में दर्ज घटनाओं के मुताबिक नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविन्स में कुछ हिंदू युवतियों का अपहरण हो गया. इस अपरहरण कांड से जुड़ी तमाम किस्म की खबरें आ रही थीं. एक खबर ये भी थी कि कुछ स्थानीय नेताओं ने अगवा की गई युवतियों को वापस मुस्लिम अपहरणकर्ताओं को सौंपे जाने की मांग की थी. उनकी इस मांग का कांग्रेस के नेताओं ने अपनी सभा में समर्थन किया था. इससे आहत और क्रोधित महाराष्ट्र के मिरज में एक भाषण में सावरकर ने समर्थन करने वाले कांग्रेसी नेताओं को 'राष्ट्रीय हिजड़े' कह दिया. इसके बाद कांग्रेस की नाराज़गी वीर सावरकर से बढ़ चली. यहां तक कि इस बयान से पहले सावरकर के जेल से रिहा होने को लेकर 1936 में कांग्रेस के कई नेताओं ने कई शहरों में स्वागत कार्यक्रम रखे थे. यह अलग बात है कि सावरकर के इस बयान के बाद ये सारे कार्यक्रम रद्द कर दिए गए.
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वैभव पुरंदरे की किताब में जिक्र
इस पूरे प्रसंग का उल्लेख वैभव पुरंदरे लिखित पुस्तक 'सावरकर: द ट्रू स्टोरी ऑफ फादर ऑफ हिंदुत्व' में है, जिसमें कहा गया है कि पुणे में सावरकर के स्वागत कार्यक्रम के प्रभारी कांग्रेसी नेता एनवी गाडगिल ने स्वागत प्रभारी पद छोड़ा और कहा कि सावरकर ने जिस खबर पर कड़ी प्रतिक्रिया दी, वही झूठी थी. पुरंदरे ने अपनी किताब में लिखा कि गाडगिल ने कहा था कि डॉ. खान साहिब के नाम से मशहूर अब्दुल जफ्फार खान ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया कि लड़कियां अपहरणकर्ताओं को सौंपी जानी चाहिए. अब्दुल गफ्फार खान सीमांत गांधी के नाम से मशहूर गफ्फार खान के भाई थे. ये उनके नाम से छपा ज़रूर था. गाडगिल के इस बयान के बाद रिपोर्टिंग को लेकर सवाल खड़े हुए.
कांग्रेस ने धीरे-धीरे कर दिया दरकिनार सावरकर को
गाडगिल के इस कदम के बाद सावरकर ने कहा कि अगर खान साहिब के नाम से छपा ये बयान 'वास्तविक नहीं हुआ तो मुझसे ज़्यादा खुशी किसी और को नहीं होगी'. पुरंदरे लिखते हैं कि सावरकर ने इस मुद्दे पर कई तरह से सफाइयां दीं और कांग्रेस के साथ कई किस्म की बातचीत हुई, लेकिन सावरकर को कांग्रेस ने ब्लैकलिस्ट में डाल दिया और आने वाले कुछ समय में सावरकर का जो भी कार्यक्रम होता, वहां कांग्रेसी काले झंडे लेकर विरोध प्रदर्शन करते. इस पूरे घटनाक्रम के बाद सावरकर और कांग्रेस के बीच फिर कभी नहीं बनी. सावरकर बाबासाहेब आंबेडकर को छोड़ नेहरू, गांधी और सभी प्रमुख कांग्रेसी नेताओं की समय समय पर आलोचना करते रहे. उधर, कांग्रेस भी पूरी ताकत से सावरकर के विरोध में खड़ी हुई और सावरकर को धीरे-धीरे भारतीय राजनीति से दरकिनार करती चली गई.