स्वतंत्रता संग्राम में चौरीचौरा की घटना के बारे में हम सभी ने सुना है कि किस तरह वहां पर क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत करते हुए थाने को फूंक दिया था लेकिन इसी चौरीचौरा की धरती पर इस घटना से छह दशक पहले क्रांति की एक चिंगारी उठी थी, जिसे शोला बनाने का काम बाबू बंधू सिंह ने किया था. साल 1857 में भारत की पहली स्वाधीनता क्रांति की शुरुआत हुई थी. मेरठ से शुरू इस क्रांति ने पूरे देश को अपनी जद में ले लिया था लेकिन पूर्वांचल में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने का काम 1856 में ही कर दिया गया था. जिसके नायक चौरीचौरा क्षेत्र के डुमरी रियासत के जमीदार बाबू बंधू सिंह थे.
बाबू बन्धू सिंह संघर्ष की अनूठी गुरिल्ला शैली के कारण फिरंगियों में दहशत और आतंक का पर्याय बन गये थे. बाबू बन्धू सिंह का जन्म चौरी-चौरा क्षेत्र के डुमरी रियासत में बाबू शिव प्रसाद सिंह के घर 1 मई 1833 को हुआ था. उस समय पूरा इलाका अंग्रेजी राज्य के शोषण, बर्बरता और अन्याय के खिलाफ कसमसा रहा था. छः भाईयों मे बड़े बाबू बन्धू सिंह के ऊपर इसका गहरा असर पड़ा. बंधु सिंह ने अंग्रेजों के बर्बर रवैये का खुलकर विरोध करना शुरू कर दिया और अपने लोगों को संगठित कर उन्होंने छोटी सेना भी बना ली थी. उन्हीं दिनों बलिया के सैनिक मंगल पाण्डेय ने बैरकपुर छावनी मे फिरंगियों के विरुद्ध खुला विद्रोह कर दिया.
इस खबर के यहां पहुंचते ही यह भोजपुरिया इलाका दहकने लगा. बाबू बंधू सिंह के वंशज अजय कुमार सिंह टप्पू का कहना है कि उस समय इस क्षेत्र मे भयंकर अकाल पड़ा था. उसी समय अंग्रेजी अफसरों की देख-रेख मे सरकारी खजाना बिहार से लाद कर आ रहा था. बन्धू सिंह ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर वह खजाना लूट लिया और पीड़ितो में बांट दिया. यहीं से बंधू सिंह अंग्रेजी हुकूमत के आंख की किरकिरी बन गए. बन्धू सिंह ने अपने साथियों के साथ गोरखपुर पर हमला कर जिला कलेक्टर को मारकर अपना शासन कायम कर लिया. इस इलाके की दो प्रमुख नदियों घाघरा और गंडक पर कब्जा कर फिरंगियों के आवागमन को रोक दिया.
हताश होकर अंग्रेजो ने गोरखपुर पर आक्रमण के लिए नेपाल के राजा से मदद मांगी. राजा ने अपने प्रधान सेनापति पहलवान सिंह को फौज लेकर रवाना कर दिया. पहलवान सिंह तो इस भीषण युद्ध मे मारा गया. लेकिन बाबू बन्धू सिंह को भागकर जंगलो मे शरण लेनी पड़ी. अंग्रेजों ने बन्धू सिंह की हवेली को आग के हवाले कर दिया और उनकी रियासत को उपहार स्वरूप मुखविरों में बांट दिया. चौरीचौरा के स्थानीय निवासी सुभाष पासवान बताते हैं कि इस घटना के बाद देवी भक्त बाबू बन्धू सिंह शत्रुघ्नपुर के जंगलों में छिपकर रहने लगे और अपने साथियों के साथ अंग्रेजों के सफाये में जुट गए.
छिपकर हमला करने और बाद में घने जंगलों में छिप जाने से उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की नाक में दम कर दिया. बन्धू सिंह अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार देते थे. वर्तमान में जहां तरकुलहा देवी का मन्दिर हैं, वहां तरकुल के पेड़ के नीचे मिट्टी की पिण्डी बनाकर देवी की उपासना करते थे. यहीं पर अंग्रेजों के सिर कलम कर मां के चरणों में बलिदान चढ़ाते थे तथा अंग्रेजो से लड़ने की शक्ति मांगते थे.
बताया जाता है कि पास के कुएं में डाले गए नरमुण्डों से पूरा कुआँ भर गया. इस मंदिर के पास नाली का पानी भी अंग्रेजों की खून से लाल हो जाता था और गोरे अंग्रेजों की बलि देने की वजह से इस नाले का नाम गोर्रा नाला पड़ गया.
इस तबाही से घबराकर ब्रिटिश हुक्मरानों ने अपनी "बांटों और राज करो" की नीति के तहत बंधु सिंह के साथियों को अपनी तरफ करने की कोशिश की. अंग्रेजों के हमदर्द सरदार सूरत सिंह मजीठिया ने अपने एक आदमी निर्मल द्वारा धोखे से बाबू बन्धू सिंह को शत्रुघ्नपुर के जंगल मे गिरफ्तार करवा दिया. 12 अगस्त 1858 को बाबू बन्धू सिंह को गोरखपुर शहर के अलीनगर चौराहे पर स्थित बरगद के पेड़ पर सरेआम फांसी पर लटका दिया गया. कहते हैं कि बन्धू सिंह को फांसी पर लटकाते ही फन्दा टूट गया. ऐसा एक दो बार नहीं बल्कि सात बार फांसी का फंदा टूटने से अंग्रेज किसी अज्ञात शक्ति का एहसास कर अचंभित व भयभीत हो गए. आठवीं बार बाबू बन्धू सिंह ने फन्दा स्वयं अपने हाथों से अपने गले मे डाला और अपने अराध्य देवी से विनती की कि उन्हें अब मुक्ति दे.
इधर बन्धु सिंह को फांसी हुई उधर अराध्य देवी की पिण्डी के पास तरकुल का पेड़ टूटकर गिर गया और उसमे से खून की धारा बहने लगी. खून इतना था कि बगल में स्थित फरेन नाले का पानी लाल हो गया. यह खबर फैलते ही जनसैलाब उमड़ पड़ा, काफी समय तक पेड़ से खून गिरता रहा फिर बन्द हो गया. फांसी के इस घटनाक्रम से आश्चर्यचकित लोगों ने उस अदृश्य शक्ति का नाम तरकुलहा देवी रख दिया. यहीं एक मन्दिर बनवाया गया. क्रान्तिकारियों के लिए यह स्थल उर्जा का केन्द्र और धाम बन गया. सन 1947 में देश आजाद तो हो गया लेकिन बंधू सिंह के योगदान और बलिदान को हुक्मरानों ने लगभग भुला दिया.
साल 2017 में योगी सरकार बनने के बाद यहां बंधू सिंह की याद में स्मारक और कई निर्माण कार्य किया गया. हालांकि यहां के लोकगीतों और लोक नृत्यों में आज भी बाबू बंधू सिंह की वीरता की कहानियां गाई जाती हैं और लोगों के दिलों में बंधू सिंह आज भी जिंदा हैं.
Source : Deepak Shrivastava