बंगाल चुनाव में अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेंगे कांग्रेस-लेफ्ट

बंगाल में बीजेपी के जबरदस्त राजनीतिक उभार के चलते कांग्रेस और लेफ्ट दोनों के सामने अपने-अपने सियासी आधार को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है.

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Nihar Saxena
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Rahul Gandhi Sitaram Yechuri

बंगाल में फिर साथ आए कांग्रेस औऱ लेफ्ट अपना अस्तितिव बचाने.( Photo Credit : न्यूज नेशन)

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कांग्रेस आलाकमान ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए वाम दलों के साथ गठबंधन को अपनी सहमति दे दी है. 2016 में भी कांग्रेस ने वाम दलों के साथ गठबंधन किया था और 44 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. हालांकि बदले सियासी हालात में दोनों पार्टियों के सामने अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की चुनौती है. यह तब है जब बंगाल की सत्ता पर तीन दशक तक कांग्रेस और करीब साढ़े तीन दशक तक वामपंथी दलों का सियासी वर्चस्व कायम रहा, लेकिन आज हालात बदले हुए हैं.

अमित शाह ने बढ़ाया सियासी तापमान
गृह मंत्री अमित शाह के दो दिवसीय दौरे से पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों ने अपनी सक्रियता से सूबे की सियासी तपिश को बढ़ा दिया है. हालिया दौरे के दौरान बीजेपी में टीएमसी, कांग्रेस और लेफ्ट के तमाम दिग्गज नेता शामिल हुए. ऐसे में कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन ने तालमेल की घोषणा कर दी है. हालांकि अभी यह साफ नहीं हुआ है कि कांग्रेस कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी, लेकिन पार्टी सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस सीट साझा समझौते में उचित हिस्सेदारी चाहती है.

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1977 से वापस नहीं आई कांग्रेस सूबे की सत्ता में
कांग्रेस साल 1977 के चुनाव में सत्ता से बाहर हुई तो आजतक वापसी नहीं कर सकी जबकि लेफ्ट पिछले दस सालों से सत्ता का वनवास झेल रही है. ऐसे में बंगाल के सियासी रण में बीजेपी और टीएमसी के बीच सिमटते चुनाव को त्रिकोणीय बनाने के लिए कांग्रेस और लेफ्ट ने गठबंधन किया है. पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष और लोकसभा में संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने गुरुवार को ऐलान किया कि कांग्रेस और वाम मोर्चा मिलकर पश्चिम बंगाल का चुनाव लड़ेंगे. चौधरी ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गठबंधन को हरी झंडी दे दी है. 

2016 में भी साथ लड़े थे कांग्रेस-लेफ्ट
बता दें कि पश्चिम बंगाल 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. इसके बाद भी ममता बनर्जी के सामने कोई खास चुनौती नहीं खड़ी कर सके थे. हालांकि तब कांग्रेस विधानसभा में दूसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और पार्टी ने 44 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि सीपीएम को 26 और बाकी लेफ्ट के घटक दलों को कुछ सीटें मिली थी. बीजेपी महज 3 सीट जीत सकी थी. 

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बीजेपी के उभार ने कांग्रेस-लेफ्ट के वजूद पर लगाया ग्रहण
पिछले पांच सालों में पश्चिम बंगाल के सियासी हालात काफी बदल गए हैं. मौजूदा विधायकों के पाला बदलने की वजह से कांग्रेस के पास फिलहाल 23 विधायक ही बचे हैं जबकि बीजेपी के पास 16 विधायक हैं. बंगाल में बीजेपी के जबरदस्त राजनीतिक उभार के चलते कांग्रेस और लेफ्ट दोनों के सामने अपने-अपने सियासी आधार को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है. इसी सियासी मजबूरी या सियासी हालात को देखते हुए एक बार फिर दोनों को साथ आना पड़ा है. बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट के साथ आने का सीधा मतलब खुद के वजूद को बचाना है, क्योंकि राज्य में सियासी लड़ाई बीजेपी और टीएमसी के बीच ही है. 

कांग्रेस-लेफ्ट का गिरा है वोट प्रतिशत
गौरतलब है कि 2016 के विधानसभा चुनाव के बाद से बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट दोनों ही पार्टियों का ग्राफ डाउन हुआ है, जबकि बीजेपी की राजनीतिक ताकत बढ़ी है. पंचायत चुनाव हो या फिर 2019 का लोकसभा चुनाव बीजेपी राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी है. लोकसभा में बीजेपी 18 सीटें और 40 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही है. वहीं, कांग्रेस महज 2 सीटें और 5.67 फीसदी वोट पा सकी है जबकि लेफ्ट को 6.34 फीसदी वोट मिले, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. 

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बेहतर प्रदर्शन की चुनौती
यही वजह है कि कांग्रेस और वाम मोर्चा ने यह फैसला सोच-समझकर लिया है. दोनों दल इस बात को बखूबी जानते हैं कि अगर टीएमसी या बीजेपी में से कोई भी सत्ता में आया, तो बंगाल पर उनकी सियासी पकड़ और भी कमजोर हो जाएगी और सत्ता में वापसी का सपना सिर्फ सपना ही बनकर रह जाएगा. हालांकि, पिछले चुनाव में कांग्रेस और वाम मोर्चा का गठबंधन  टीएमसी को सत्ता में आने से नहीं रोक पाया था. इसके बावजूद दोनों साथ आए हैं, ऐसे में उनके सामने अपने पिछले प्रदर्शन को सिर्फ़ बरकरार रखने की नहीं बल्कि उससे कहीं बेहतर प्रदर्शन करने की चुनौती है. 

कांग्रेस ने दुविधा के बाद लिया फैसला
अगले साल 294 सदस्यीय बंगाल विधानसभा का चुनाव है. तृणमूल कांग्रेस के पास जहां सत्ता बरकरार रखने की चुनौती है, वहीं कांग्रेस को भी राज्य में अपनी जमीन बरकरार रखनी है. कांग्रेस इस बात को लेकर दुविधा में थी कि वह वाम दलों के साथ जाए या तृणमूल के साथ चुने. हालांकि तालमेल पर अंतिम समझौते से पहले दोनों पार्टियों के राज्य स्तरीय नेता एक साथ कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं.

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