भारत का विभाजन (Indian Partition) एक जटिल मामला है जिसके लिए किसी एक व्यक्ति को ज़िम्मेदार ठहराना आसान होता है, लेकिन ऐसा है नहीं. इसमें मुस्लिम लीग (Muslim League), हिंदू महासभा, कांग्रेस और ब्रितानी शासन, सबकी भूमिका है. किसकी कम-किसकी ज़्यादा... इस पर बहस की बहुत गुंजाइश है. यह सच है कि मुस्लिम लीग ने अलग देश की मांग की थी और उनकी ये मांग पूरी हो गई. यही वजह है कि विभाजन का पूरा दोष मुसलमानों (Indian Muslims) पर डाल दिया गया, लेकिन ऐसा नहीं है सभी मुसलमान विभाजन के पक्ष में थे या केवल मुसलमान ही इसके लिए ज़िम्मेदार थे.
कई मु्स्लिम नेता खिलाफ रहे विभाजन के
मौलाना आज़ाद और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान विभाजन के सबसे बड़े विरोधी थे और उन्होंने इसके ख़िलाफ़ पुरज़ोर तरीक़े से आवाज़ उठाई थी, लेकिन उनके अलावा इमारत-ए-शरिया के मौलाना सज्जाद, मौलाना हाफ़िज़-उर-रहमान, तुफ़ैल अहमद मंगलौरी जैसे कई और लोग थे जिन्होंने बहुत सक्रियता के साथ मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति का विरोध किया था. इतिहासकार उमा कौरा ने लिखा है कि विभाजन की रेखा तब गहरी हो गई जब 1929 में मोतीलाल नेहरू कमेटी की सिफ़ारिशों को हिंदू महासभा ने मानने से इंकार कर दिया. मोतीलाल नेहरू कमेटी ने अन्य बातों के अलावा इस बात की भी सिफ़ारिश की थी कि सेंट्रल एसेंबली में मुसलमानों के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित हों.
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जिन्ना का मुस्लिम नेता बतौर उभार
आयशा जलाल ने लिखा है कि 1938 आते-आते जिन्ना मुसलमानों के 'अकेले प्रवक्ता' बन गए क्योंकि वे ही उनकी मांगों को ज़ोरदार तरीक़े से उठा रहे थे. दूसरी ओर इतिहासकार चारू गुप्ता ने लिखा है, 'कांग्रेस के भीतर के हिंदूवादी और हिंदू महासभा के नेता जिस तरह 'भारत माता, मातृभाषा और गौमाता' के नारे लगा रहे थे उससे बहुसंख्यक वर्चस्व का माहौल बन रहा था' जिसमें मुसलमानों का ख़ुद को असुरक्षित समझना अस्वाभाविक नहीं था.
बंगाल में भद्रजनों का मुसलमान विरोध
ये भी ग़ौर करने की बात है कि 1932 में गांधी-आंबेडकर के पुणे पैक्ट के बाद जब 'हरिजनों' के लिए सीटें आरक्षित हुईं तो सर्वणों और मुसलमानों, दोनों में बेचैनी बढ़ी कि उनका दबदबा कम हो जाएगा. इतिहासकार जोया चटर्जी का कहना है कि 1932 के बाद बंगाल के हिंदू-मुसलमानों का टकराव बढ़ता गया जो विभाजन की भूमिका तैयार करने लगा. दरअसल 1905 में धर्म के आधार पर बंगाल का विभाजन करके अंग्रेजों ने विभाजन की नींव तैयार कर दी थी. वे लिखती हैं, 'पूर्वी बंगाल में फ़ज़ल-उल-हक़ की 'कृषि प्रजा पार्टी' का असर बढ़ा और पूना पैक्ट के बाद 'हरिजनों' के लिए सीटें आरक्षित हुईं जिसका असर ये हुआ कि सवर्ण हिंदुओं का वर्चस्व घटने लगा, इसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी. इसका नतीजा ये हुआ है कि बंगाल के भद्रजन ब्रिटिश विरोध के बदले, मुसलमान विरोधी रुख़ अख़्तियार करने लगे.'
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हिंदूवाद की ओर झुकाव
विलियम गोल्ड ने लिखा है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेताओं--पुरुषोत्तम दास टंडन, संपूर्णानंद और गोविंद बल्लभ पंत का झुकाव हिंदूवाद की ओर था जिसकी वजह से मुसलमान अलग-थलग महसूस कर रहे थे. मगर दूसरी ओर ये भी सच है कि विभाजन में उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की सांप्रदायिकता की भूमिका भी कम नहीं थी. फ्रांसिस रॉबिनसन और वेंकट धुलिपाला ने लिखा है कि यूपी के ख़ानदानी मुसलमान रईस और ज़मींदार समाज में अपनी हैसियत को हमेशा के लिए बनाए रखना चाहते थे और उन्हें लगता था कि हिंदू भारत में उनका पुराना रुतबा नहीं रह जाएगा.
अंग्रेजों की नीति
मुशीरुल हसन, पापिया घोष और वनिता दामोदरन जैसे अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि 1937 में कांग्रेस के नेतृत्व में जब सरकार बनी तो हिंदू और मुसलमान, दोनों ओर के सांप्रदायिक तत्वों में सत्ता का बड़ा हिस्सा हथियाने की होड़ लग गई जो 1940 के बाद लगातार कटु होती गई. जब कांग्रेस से जुड़े मुसलमान ख़ुद को अलग-थलग महसूस करने लगे तो जिन्ना की मुस्लिम लीग ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसका पूरा फ़ायदा उठाया. ग़ौर करने की बात है कि अंग्रेज़ों ने मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों को बढ़ावा दिया क्योंकि वे उनसे नहीं लड़ रहे थे, जबकि 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान लगभग सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था, ऐसे में लीगी-महासभाई तत्वों की बन आई.
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कांग्रेस में सत्ता की भूख
समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने अपनी किताब 'गिल्टी मेन ऑफ़ पार्टिशन' में लिखा है कि कई बड़े कांग्रेसी नेता जिनमें नेहरू भी शामिल थे वे सत्ता के भूखे थे जिनकी वजह से बंटवारा हुआ. नामी-गिरामी इतिहासकार बिपन चंद्रा ने विभाजन के लिए मुसलमानों की सांप्रदायिकता को ज़िम्मेदार ठहराया है जबकि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1937 के बाद कांग्रेस मुसलमान जनमानस को अपने साथ लेकर चलने में नाकाम रही इसलिए विभाजन हुआ.
माउंटबेटन ने ठोंकी आखिरी कील
कई इतिहासकारों का मानना है कि 1946 के बाद जब सांप्रदायिक हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई तो विभाजन के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेज़ी हुकूमत ने भी स्थिति को बद से बदतर बनाया. माउंटबेटन और रेडक्लिफ़ ने बंटवारे के मामले में बहुत जल्दबाज़ी दिखाई. पहले भारत की आज़ादी के लिए जून 1948 तय किया गया था. माउंटबेटन ने इसे खिसका कर अगस्त 1947 कर दिया गया जिससे भारी अफ़रा-तफ़री फैली और असंख्य लोगों की जानें गईं.
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विभाजन का तवारीख
- 1858 में पूरी तरह भारत में ब्रिटिश शासन लागू हो गया था.
- 1885 में आजादी की मांग के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई.
- 1905 में मुस्लिम हितों के नाम पर ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई.
- 1920 में महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की.
- 1933 में कैम्ब्रिज के छात्र रहमतुल्लाह चौधरी ने पाकिस्तान का नाम सुझाया.
- 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना ने अलग मुस्लिम मुल्क की पहली बार मांग रखी.
- 1946 के कैबिनेट मिशन प्लान में हिंदू और मुस्लिमों को साथ रहने का प्रस्ताव दिया गया.
- 1947 के अगस्त में बंगाल में जबरदस्त सांप्रदायिक तनाव फैला और 5000 लोग मारे गए.
- 1947 जून में तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड माउंटबेटन के विभाजन प्रस्ताव को जिन्ना और कांग्रेस ने मंजूरी दी.
- 1947 जुलाई में ब्रिटिश पार्लियामेंट में इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट पास हुआ.
- 14 और 15 अगस्त को भारत दो हिस्सों में विभाजित हो गया. भारत से अलग होकर पाकिस्तान पहली बार अस्तित्व में आया.
- 1950 में आजाद भारत को भारतीय गणराज्य का नाम मिला.
- 1956 में पाकिस्तान धर्म के आधार पर बनने वाला पहला मुल्क बना.