सामान्य अर्थों में योग का अर्थ जोड़ होता है. यह जोड़ शरीर और मन का है, आत्मा और परमात्मा है, मनुष्य और प्रकृति का है. क्योंकि आज या अतीत में कभी जीवन इतना आसान नहीं था. संसार में रहते हुए विभिन्न तरह के कार्य करते हुए मनुष्य का शरीर और मन के बीच काफी दूरी हो जाती है, जिससे तरह-तरह की समस्याएं उत्पन्न होने लगती है. योग एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है. भारतीय संस्कृति में 'योग' की प्रक्रिया और धारणा हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है. हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म में योग के अनेक सम्प्रदाय हैं, योग के विभिन्न लक्ष्य हैं तथा योग के अलग-अलग व्यवहार हैं. परम्परागत योग तथा इसका आधुनिक रूप विश्व भर में प्रसिद्ध हैं.
सबसे पहले 'योग' शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है. इसके बाद अनेक उपनिषदों में इसका उल्लेख आया है. कठोपनिषद में सबसे पहले योग शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जिस अर्थ में इसे आधुनिक समय में समझा जाता है. माना जाता है कि कठोपनिषद की रचना ईसापूर्व पांचवीं और तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के बीच के कालखण्ड में हुई थी. पतञ्जलि का योगसूत्र योग का सबसे पूर्ण ग्रन्थ है. इसका रचनाकाल ईसा की प्रथम शताब्दी या उसके आसपास माना जाता है. हठ योग के ग्रन्थ 9वीं से लेकर 11वीं शताब्दी में रचे जाने लगे थे. इनका विकास तन्त्र से हुआ.
योग के प्रकार
योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुंचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय समय पर मिलता रहा. उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा. योग की प्रामाणिक पुस्तकों में शिवसंहिता तथा गोरक्षशतक में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है.
यह भी पढ़ें: Shahrukh Khan को नहीं मिल रहा काम? R Madhvan से मांगा बैकग्राउंड रोल
1.मंत्रयोग : 'मंत्र' का समान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मन्त्रः'. मन को त्राय (पार कराने वाला) मंत्र ही है. मन्त्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- मनन इति मनः. जो मनन, चिन्तन करता है वही मन है. मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है. मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती है मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है. मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है मंत्र जप में तीन घटकों का काफी महत्व है वे घटक-उच्चारण, लय व ताल हैं. तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है. मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार वाचिक, मानसिक, उपांशु और अणपा से किया जाता है.
2. हठयोग: हठ का शाब्दिक अर्थ हठपूर्वक किसी कार्य को करने से लिया जाता है. हठ प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है- "हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते. सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥" ह का अर्थ सूर्य तथा ठ का अर्थ चन्द्र बताया गया है. सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है. शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं. सूर्यनाड़ी अर्थात पिंगला जो दाहिने स्वर का प्रतीक है. चन्द्रनाड़ी अर्थात इड़ा जो बायें स्वर का प्रतीक है. इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है. इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है. हठ प्रदीपिका में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्ध तथा नादानुसधान. घेरण्डसंहिता में सात अंग- षटकर्म, आसन, मुद्राबन्ध, प्राणायाम, ध्यान, समाधि जबकि योगतत्वोपनिषद में आठ अंगों का वर्णन है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
3. लययोग: चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है. साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं.
4.राजयोग: राजयोग सभी योगों का राजा कहलाया जाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है. राजयोग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है. राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है. महर्षि पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है. इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्त प्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेक ख्याति प्राप्त होती है.
पतंजलि का योग सूत्र
भारतीय दर्शन में, षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है. पतंजलि, व्यापक रूप से औपचारिक योग दर्शन के संस्थापक माने जाते है. पतंजलि योग, बुद्धि के नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है जिसे राज योग के रूप में जाना जाता है. पतंजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द को परिभाषित करते है, जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है.
योग को संस्कृत के एक सूत्र में योग: चित्त-वृत्ति निरोध: कहा गया है. तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिकी है. "योग बुद्धि के संशोधनों का निषेध है." स्वामी विवेकानंद इस सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते है,"योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूप (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध करता है.
पतंजलि के 'अष्टांग योग" में योग को यम, नियम और आसन में विभक्त किया गया है. सबसे पहले योग करने वाले व्यक्ति को यम का पालन करना चाहिए. यम मनुष्य के आंतरिक बनावट को प्रभावित करता है. नियम शरीर की शुद्धता और स्वास्थ्य से संबंधित है तो आसन के तहत योग को करने की प्रक्रिया होती है.
1. यम : सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य.
2. नियम: शौच, सन्तोष, तपस, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान.
3.आसन: आसन को पांच भागों में बांटा गया है.
1.प्राणायाम : प्राण, सांस, "अयाम ", को नियंत्रित करना या बंद करना. साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गयी है.
2.प्रत्याहार : बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार
3. धारणा : एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना
4.ध्यान : ध्यान की वस्तु की प्रकृति का गहन चिंतन
5.समाधि : ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना. इसके दो प्रकार है-सविकल्प और निर्विकल्प. निर्विकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती. यह योग पद्धति की चरम अवस्था है.