भारत के कई राज्यों में पड़ोसी देश श्रीलंका जैसी आर्थिक बदहाली (Economic Crisis Like Sri Lanka) की आशंका जताए जाने के बाद देश में मुफ्त की योजनाओं ( Free Schemes policy) को लेकर नई बहस छिड़ गई है. श्रीलंका की तरह पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल जैसे कई भारतीय राज्य भी कर्ज के भारी जाल में उलझे हुए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक अगर केंद्र सरकार की मदद का सहारा नही होता तो ये भी श्रीलंका की तरह आर्थिक तौर पर कंगाल हो चुके होते. इन दबावों के चलते राज्यों की तरह केंद्र सरकार भी कर्ज के जाल में लगातार फंसती जा रही है.
देश को आर्थिक बदहाली से बचाने के लिए लगातार नीतियों और उसपर अमल में तेजी के साथ रणनीति बनाई जा रही है. आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ केंद्र सरकार को कृषि और स्वास्थ्य जैसे मदों में सब्सिडी धीरे-धीरे कम करने और मुफ्त की योजनाओं पर प्रतिबंध लगाने की सलाह दे रहे हैं. आइए, जानते हैं कि क्या भारत में जनकल्याणकारी नीतियों के तहत गरीबों को मुफ्त फायदे की सरकारी योजनाओं पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना कैसा निर्णय होगा और इसके क्या परिणाम हो सकते हैं?
राज्यों को किसलिए और कब चाहिए कर्ज
आर्थिक मामलों के जानकार डॉ. नागेंद्र कुमार शर्मा के मुताबिक कर्ज लेना केवल तभी फायदेमंद होता है, जब उस रकम का इस्तेमाल आर्थिक संसाधन पैदा करने में लगाया जाए. इसके मुकाबले रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में दिखता है कि देश के अधिकतर राज्य अपने बजट का बड़ा हिस्सा पिछली देनदारियों को चुकाने और कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करने में लगा रहे हैं. इससे उन्हें लोकप्रियता तो प्राप्त होती है, लेकिन राज्यों के सुचारु रुप से चलाने लिए कोई आमदनी हासिल नहीं होती. इस तरह के कर्ज राज्यों के लिए बोझ बनते और लगातार बढ़ते जा रहे हैं.
आर्थिक रूप से सही नहीं राज्यों का खर्च
रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब ने वित्त वर्ष 2014-15 से 2018-19 के बीच केवल पांच फीसदी रकम आर्थिक संसाधन बनाने में खर्च की. वहीं इस दौरान करीब 45 फीसदी रकम को पिछली देनदारियों पर खर्च किया. आंध्र प्रदेश ने केवल 10 प्रतिशत के करीब रकम आर्थिक संसाधन पैदा करने वाले मदों में लगाया. इसी दौरान उसने लगभग 25 फीसदी रकम जरूरी देनदारियों पर खर्च किया. बाकी राज्यों ने भी इसी तरह आर्थिक संसाधन पैदा करने पर कम और देनदारियों और कल्याणकारी योजनाओं पर भारी खर्च किया. खर्च करने के इस तरीके को आर्थिक दृष्टि से सही नहीं माना जा सकता.
जीएसडीपी के सामने रिकॉर्ड ऊंचाई पर कर्ज
देश के विभिन्न राज्यों का औसतन कर्ज बीते वित्त वर्ष 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक तिहाई यानी लगभग 31.3 फीसदी तक के ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है. सबसे खराब स्थिति पंजाब की है. पंजाब का कर्ज उसके जीएसडीपी (ग्रास स्टेट डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) का रिकॉर्ड 53.3 फीसदी तक पहुंच चुका है. दूसरे सबसे खराब हालत में राजस्थान का नंबर है. उसका कर्ज उसके जीएसडीपी का 39.8 फीसदी हो चुका है. इसी प्रकार पश्चिम बंगाल का कर्ज 38.8 फीसदी, केरल का 38.3 फीसदी, गुजरात 23 फीसदी, महाराष्ट्र 20 फीसदी और आंध्र प्रदेश का कर्ज उसके जीएसडीपी का 37.6 फीसदी हो चुका है.
डॉ. शर्मा ने कहा कि आदर्श स्थिति में किसी राज्य को अपने जीएसडीपी के 20 फीसदी से अधिक कर्ज नहीं लेना चाहिए. केवल गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्य ही इस लक्ष्य के कुछ करीब है. वहीं देश के कई राज्य इस लक्ष्य से कोसों दूर हैं.
महज वोट के लिए योजनाओं से बढ़ा कर्ज
आर्थिक मामलों के जानकार और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने कहा कि एक कल्याणकारी राज्य होने से भारत की मूल संकल्पना में गरीब नागरिकों का हित करना शामिल है. इसलिए केंद्र-राज्य सरकारों की जिम्मेदारी होती है कि रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित लोगों को ये सुविधाएं हासिल करने में मदद करें. हालांकि, ऐसा करने में यह ध्यान रखना जाना चाहिए कि मदद केवल जरूरतमंदों तक पहुंचनी चाहिए. महज वोट हासिल करने के लिए गैरजरूरी लोगों को मदद करने से देश पर कर्ज का बोझ बढ़ेगा. इससे बचने की कोशिश की जानी चाहिए.
गरीबों की मदद से इकोनॉमी को ताकत
गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने बताया कि आईएमएफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में केंद्र सरकार ने अगर कोरोना काल में गरीबों को अन्न योजना और दूसरे तरह से आर्थिक मदद न की होती तो बड़ी आबादी गरीबी के बेहद निचले स्तर पर पहुंच जाती. केंद्र ने गरीब लोगों को मदद करके उन्हें गरीबी रेखा के नीचे जाने से बचाया है. उन्होंने कहा कि गरीबों को आर्थिक मदद देना हमेशा गलत नहीं होता. गरीबों के हाथ तक पैसा पहुंचने से निचले स्तर पर खर्च बढ़ता है. इससे वस्तुओं की मांग बढ़ती है और बाजार में गति पैदा होती है. रोजगार के संसाधन बढ़ते हैं. इस तरह गरीबों पर पैसा खर्च करके भी सरकार अर्थव्यवस्था को गति देने की कोशिश करती है.
सामाजिक सुरक्षा टैक्स का सुझाव क्यों
भाजपा के प्रवक्ता के तर्कों के सामने डॉ. नागेंद्र कुमार शर्मा का मानना है कि किसी देश के आर्थिक संसाधन की पूरी परिकल्पना केवल इस बात पर आधारित है कि सरकार सक्षम वर्ग से उचित मात्रा में टैक्स ले. उसके जरिए राष्ट्र में आर्थिक संसाधनों और मूलभूत ढांचे का विकास करे. साथ ही देश के गरीब या जरूरतमंद लोगों तक कल्याणकारी मदद पहुंचाए. इस प्रकार समाज के गरीब लोगों और बेरोजगार युवाओं को मदद दी जानी चाहिए. इसके लिए टैक्स भी समाज के लोगों के जरिए ही लाने की कोशिश होनी चाहिए.
दुनिया के कई देशों में सामाजिक सुरक्षा टैक्स
डॉ. नागेंद्र कुमार शर्मा ने बताया कि सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सभी नागरिकों से चीन में 10 फीसदी और रूस में 11 फीसदी का टैक्स लिया जाता है. यूरोप और अमेरिका के कई देशों में भी सामाजिक सुरक्षा टैक्स लिया जाता है. इस रकम से समाज के आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों को मदद दी जाती है. उन्होंने कहा कि इसी प्रकार भारत में भी सामाजिक सुरक्षा टैक्स लगाया जाना चाहिए. बाद में इसके जरिए ही कल्याणकारी योजनाओं को संचालित किया जाना चाहिए.
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गरीबों की मदद सक्षम नागरिकों की जिम्मेदारी
आर्थिक विशेषज्ञों ने कहा कि इसके लिए देश मे आम लोगों के बीच आर्थिक जागरूकता बढ़ानी होगी. साथ ही समाज को समझना होगा कि गरीब लोगों की मदद करना भी सक्षम नागरिकों की जिम्मेदारी है. इस तरह यह देश पर कर्ज का बोझ नहीं पैदा करेगा और गरीब लोगों को जरूरी मदद भी मिलती रहेगी. वहीं सरकारें भी मुफ्त योजनाओं से किनारा करने की तरफ सोच पाएगी.
HIGHLIGHTS
- गरीब लोगों की मदद करना भी सक्षम नागरिकों की जिम्मेदारी
- भारत की मूल संकल्पना में गरीब नागरिकों का हित शामिल है
- राज्य को अपने GSDP के 20 फीसदी से ज्यादा कर्ज नहीं लेना चाहिए