Advertisment

'इमरजेंसी की तरह ये फैसला भी कांग्रेस के लिए बना रहा है गले की हड्डी'

राहुल गांधी के बयान के बाद देश में एक बार इमरजेंसी के वक्त की चर्चाएं होने लगी हैं. बीते दिन राहुल गांधी ने 45 साल पहले देश में लगाई गई इमरजेंसी को गलती माना तो जिस पर फिर से बहस छिड़ गई है.

author-image
Dalchand Kumar
एडिट
New Update
Sanjay Gandhi

'आपातकाल के बाद संजय गांधी ने खुद को स्थापित करने को किया था ये काम'( Photo Credit : फाइल फोटो)

Advertisment

राहुल गांधी के बयान के बाद देश में एक बार इमरजेंसी के वक्त की चर्चाएं होने लगी हैं. बीते दिन राहुल गांधी ने 45 साल पहले देश में लगाई गई इमरजेंसी को गलती माना तो जिस पर फिर से बहस छिड़ गई है. राहुल गांधी के इस आश्चर्यजनक बयान के बाद यह बहस ऐसे वक्त में जोर पकड़ रही है जब 5 राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं. विपक्षी दल भी इमरजेंसी के दौर को लेकर कांग्रेस पर हमलावर हो गए हैं. हालांकि आपको हम जो बताने जा रहे हैं, वो भी कांग्रेस के लिए अब तक किसी मुसीबत से कम नहीं रहा है. इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की सरकार ने नसबंदी को लेकर जो फैसला लिया था, वो भी विवादों में अक्सर रहा है. चलिए. हम आपको इस बारे में पूरी जानकारी बताते हैं.

इमरजेंसी के फैसले में संजय गांधी का था बड़ा प्रभाव

कहा जाता है कि इमरजेंसी लागू करने के फैसले में संजय गांधी का बड़ा प्रभाव था, उस दौरान भी जिस तरह से देश में फैसले लागू किए जा रहे थे वह पूरी तरह से संजय के ही नियंत्रण में थे. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर के मुताबिक, इमरजेंसी के बाद जब उनकी मुलाकात संजय गांधी से हुई तो उन्होंने इसपर उनसे बात की. तभी संजय गांधी ने उन्हें बताया था कि वह देश में कम से कम 35 साल तक आपातकाल को लागू रखना चाहते थे, लेकिन मां ने चुनाव करवा दिए.

खुद को स्थापित करने के लिए संजय गांधी को थी एक मुद्दे की तलाश

25 जून 1975 को आपातकाल लगने के बाद ही राजनीति में आए संजय गांधी के बारे में यह साफ हो गया था कि आगे गांधी-नेहरू परिवार की विरासत वही संभालेंगे. संजय भी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे. उस समय वृक्षारोपण, दहेज उन्मूलन और शिक्षा जैसे मुद्दों पर जोर था, लेकिन संजय को लगता था कि उन्हें किसी त्वरित करिश्मे की बुनियाद नहीं बनाया जा सकता. संयोग से यही वह दौर भी था जब दुनिया में भारत की आबादी का जिक्र उसके अभिशाप की तरह होता था. अमेरिका सहित कई पश्चिमी देश मानते थे कि हरित क्रांति से अनाज का उत्पादन कितना भी बढ़ जाए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती आबादी के लिए वह नाकाफी ही होगा. उनका यह भी मानना था कि भारत को अनाज के रूप में मदद भेजना समंदर में रेत फेंकने जैसा है जिसका कोई फायदा नहीं. ऐसा सिर्फ अनाज ही नहीं, बाकी संसाधनों के बारे में भी माना जाता था.

संजय ऐसा करने में होते कामयाब तो मिलती एक असाधारण उपलब्धि

अपनी किताब द संजय स्टोरी में पत्रकार विनोद मेहता लिखते हैं, ‘अगर संजय आबादी की इस रफ्तार पर जरा भी लगाम लगाने में सफल हो जाते तो यह एक असाधारण उपलब्धि होती. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा होती.’ यही वजह है कि आपातकाल के दौरान परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से लागू करवाना संजय गांधी का अहम लक्ष्य बन गया. इस दौरान उन्होंने देश को दुरुस्त करने के अपने अभियान के तहत सौंदर्यीकरण सहित कई और काम भी किए, लेकिन अपनी राजनीति का सबसे बड़ा दांव उन्होंने इसी मुद्दे पर खेला. उन्हें उम्मीद थी कि जहां दूसरे नाकामयाब हो गए हैं वहां वे बाजी मार ले जाएंगे.

इंदिरा गांधी पर नसबंदी कार्यक्रम का दबाव बढ़ने लगा था

25 जून 1975 से पहले भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर इस बात का दबाव बढ़ने लगा था कि भारत नसबंदी कार्यक्रम को लेकर तेजी दिखाए. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और एड इंडिया कसॉर्टियम जैसे संस्थानों के जरिये अपनी बात रखने वाले विकसित देश यह संदेश दे रहे थे कि भारत इस मोर्चे पर 1947 से काफी कीमती समय बर्बाद कर चुका है और इसलिए उसे बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने के लिए यह कार्यक्रम युद्धस्तर पर शुरू करना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते भारत में काफी समय से जनसंख्या नियंत्रण की कई कवायदें चल भी रही थीं. गर्भनिरोधक गोलियों सहित कई तरीके अपनाए जा रहे थे, लेकिन इनसे कोई खास सफलता नहीं मिलती दिख रही थी.

'इंदिरा के लिए मजबूती थी नसबंदी कार्यक्रम'

आपातकाल शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों का गुट और भी जोरशोर से नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की वकालत करने लगा. इंदिरा गांधी ने यह बात मान ली. जानकारों के मुताबिक यह उनकी मजबूरी भी थी, क्योंकि वे खुद कुछ ऐसा करना चाह रही थीं जिससे लोगों का ध्यान उस अदालती मामले से भटकाया जा सके जो उनकी किरकिरी और नतीजतन आपातकाल की वजह बना. उन्होंने संजय गांधी को नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की जिम्मेदारी सौंप दी जो मानो इसका इंतजार ही कर रहे थे.

नसबंदी कार्यक्रम के जरिए बड़ा संदेश देना चाहते थे संजय गांधी

इसके बाद कुछ महीनों तक इतने बड़े कार्यक्रम के लिए कामचलाऊ व्यवस्था खड़ी करने का काम हुआ. संजय गांधी ने फैसला किया कि यह काम देश की राजधानी दिल्ली से शुरू होना चाहिए और वह भी पुरानी दिल्ली से जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है. उन दिनों भी नसबंदी को लेकर कई तरह की भ्रांतियां थीं. मुस्लिम समुदाय के बीच तो यह भी धारणा थी कि यह उसकी आबादी घटाने की साजिश है. संजय गांधी का मानना था कि अगर वे इस समुदाय के बीच नसबंदी कार्यक्रम को सफल बना पाए तो देश भर में एक कड़ा संदेश जाएगा. यही वजह है कि उन्होंने आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश ताकत का इस्तेमाल करते हुए यह अभियान शुरू कर दिया. अधिकारियों को महीने के हिसाब से टारगेट दिए गए और उनकी रोज समीक्षा होने लगी.

टेलीग्राफ से भेजा गया था एक संदेश

'सबको सूचित कर दीजिए कि अगर महीने के लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ वेतन रुक जाएगा बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी होगा. सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मुझे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें.' यह टेलीग्राफ से भेजा गया एक संदेश है. इसे आपातकाल के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने अपने मातहतों को भेजा था. जिस लक्ष्य की बात की गई है वह नसबंदी का है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नौकरशाही में इसे लेकर किस कदर खौफ रहा होगा.

संजय गांधी ने जोर-शोर से चलाया था नसबंदी अभियान

आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने जोर-शोर से नसबंदी अभियान चलाया था. इस पर जोर इतना ज्यादा था कि कई जगह पुलिस द्वारा गांवों को घेरने और फिर पुरुषों को जबरन खींचकर उनकी नसबंदी करने की भी खबरें आईं. जानकारों के मुताबिक संजय गांधी के इस अभियान में करीब 62 लाख लोगों की नसबंदी हुई थी. बताया जाता है कि इस दौरान गलत ऑपरेशनों से करीब दो हजार लोगों की मौत भी हुई.

जल्दबाजी में इस अभियान से कई कांग्रेसी भी नाराज थे

जानकार मानते हैं कि इसे युद्धस्तर की बजाय धीरे-धीरे और जागरूकता के साथ आगे बढ़ाया जाता तो देश के लिए इसके परिणाम क्रांतिकारी हो सकते थे. लेकिन जल्द से जल्द नतीजे चाहने वाले संजय गांधी की अगुवाई में यह अभियान ऐसे चला कि देशभर में लोग कांग्रेस से और भी ज्यादा नाराज हो गए. माना जाता है कि संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम से उपजी नाराजगी की 1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने में सबसे अहम भूमिका रही.

Source : News Nation Bureau

Indira gandhi emergency Sanjay Gandhi संजय गांधी emergency time period
Advertisment
Advertisment