संभावना है कि 20 जनवरी को निर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) द्वारा राष्ट्रपति का पद ग्रहण करने के बाद भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक साझेदारी का ग्राफ ऊपर की ओर चढ़ता रहेगा. भले ही मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) 3 नवंबर 2020 का चुनाव हार गए हैं लेकिन उनके द्वारा बनाया गया विदेश नीति का व्यापक एजेंडा उनके उत्तराधिकारियों द्वारा अपनाया जाएगा, भले ही वे इस पर कम अमल करें या ज्यादा.
रणनीतिक महत्व रहेगा बरकरार
बाइडेन के बयानों और उनकी नामित टीम के महत्वपूर्ण सदस्यों-स्टेट सेक्रेटरी एंटनी ब्लिंकन और सीआईए के डायरेक्टर विलियम बर्न्स को देखें तो भारत को रणनीतिक रूप से अब भी उतना ही महत्व मिलने की संभावना है, जितनी ट्रंप प्रशासन के दौरान मिली थी. बाइडेन ने अपने चुनाव अभियान के दौरान बताया था कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी और पूर्व बराक ओबामा प्रशासन के तहत भारत-अमेरिका साझेदारी के लिए पूरा समर्थन दिया था. ऐसे में वॉशिंगटन डीसी में लंबे करियर के चलते ब्लिंकन भी इससे प्रभावित हुए होंगे. जब बाइडेन ओबामा के उप-राष्ट्रपति थे, उस वक्त ब्लिंकन बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे. उन्होंने उसी प्रशासन में राज्य के डिप्टी सेक्रेटरी के तौर पर भी काम किया था.
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एंटनी ब्लिंकन बनेंगे आधार
ब्लिंकन को व्यापक रूप से बाइडेन का करीबी विश्वासपात्र माना जाता है, वे उनके चुनाव अभियान के लिए विदेश नीति सलाहकार भी थे. हडसन इंस्टीट्यूट के साथ बातचीत में ब्लिंकन ने पिछले साल घोषणा की थी कि बाइडेन एक राष्ट्रपति के रूप में भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने और गहरा करने के लिए बहुत ऊंची प्राथमिकता देंगे. इसी तरह फरवरी 2020 में अटलांटिक में एक आर्टिकल में विलियम बर्न्स ने इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए स्वीकार किया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में अमेरिका-भारत रणनीतिक साझेदारी की गति तेज हुई है, जिसने विश्व मंच पर भारत के लिए अधिक आश्वस्त भूमिका निभाई है.
बीजिंग की तुलना में भारत की स्थिति मजबूत
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति टीम द्वारा उन मुद्दों पर बाइडेन प्रेसीडेंसी के साथ बेहतर तरीके से काम न करने के कारण वैसी अभूतपूर्व रियायतें मिलने की संभावना कम हैं, जैसी ट्रंप प्रशासन में मिलीं थीं. ट्रंप के 4 साल के कार्यकाल में भारत को हमेशा ऊंचा दर्जा मिला. मोदी-ट्रंप के मजबूत व्यक्तिगत संबंध से लेकर भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिए एक सामान्य दृष्टिकोण तक, अमेरिका और भारत ने कई मुद्दों पर एक जैसा नजरिया रखा. ट्रंप प्रशासन ने चीन को लेकर विदेश नीति में निर्णायक बदलाव किया, जो एशिया में आक्रामक रूप से फैलता जा रहा था. भारत के मामले में भी यह ऐसा ही था जिसके कारण लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर झड़पें हुईं. ट्रंप ने चीन पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाकर उसके साम्राज्यवादी विस्तार को नियंत्रित किया. कुल मिलाकर ट्रंप प्रेसीडेंसी की चीन की सीसीपी के साथ खुली दुश्मनी और भारत के साथ समर्थन के कारण नई दिल्ली ने बीजिंग के तुलना में खुद को मजबूत स्थिति में पाया.
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फिर भी कुछ चुनौतियां हैं बरकरार
हालांकि बाइडेन और उपराष्ट्रपति-चुनी गई कमला हैरिस ने चुनाव प्रचार के दौरान ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वे भारत में भाजपा सरकार को न केवल धार्मिक और जातिगत अल्पसंख्यकों के अधिकारों बल्कि उनकी भावनाओं के लिए भी जिम्मेदार ठहराएंगे. भारतीय मूल की अमेरिकी हैरिस ने तो अल्पसंख्यकों से संबंधित आंतरिक मामलों पर मोदी सरकार से सवाल भी किए. गौरतलब है कि विलियम बर्न्स ने भारत को मजबूत करने में मोदी की भूमिका को स्वीकार तो किया लेकिन उन्होंने मोदी और ट्रंप दोनों को 'दुनिया में समस्या का एक हिस्सा बताते हुए कहा कि ये लोकतंत्र को बर्बाद करने में व्यस्त हैं. जाहिर है कि ये कुछ ऐसे कठिन मुद्दे हैं जिनसे निपटने के लिए भारत को कूटनीति की आवश्यकता होगी.
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Source : News Nation Bureau