यह पहलवानी ही थी, जिसने 82 साल की उम्र में गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में आखिरी सांस लेने वाले मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) को राजनीति में प्रवेश दिलाया. 1960 के दशक की बात है मुलायम सिंह यादव स्थानीय स्तर पर हो रही कुश्ती प्रतिस्पर्धा में भाग ले रहे थे. कुश्ती के मुकाबले देखने मैनपुरी, जसवंत नगर के तत्कालीन विधायक नत्थू सिंह भी आए हुए थे, जो 20 के वय में रहे मुलायम सिंह यादव के दांवपेंच से बेहद प्रभावित हुए. कुश्ती खत्म होने के बाद उन्होंने मुलायम सिंह यादव को बुलाकर परिचय पूछा और बातचीत शुरू की. पहलवानी के साथ-साथ मुलायम सिंह उन दिनों और उस उम्र में भी राजनीति की समझ रखते थे. इसका सबब बने थे राम मनोहर लोहिया (Ram Manohar Lohia), जिनसे प्रेरित हो मुलायम सिंह ने 15 की वय से ही राजनीति में रुचि लेनी शुरू कर दी थी. जाहिर है कुश्ती के दांवपेंच से प्रभावित नत्थू सिंह अब मुलायम सिंह की राजनीतिक समझ से और भी प्रभावित हुए. इस हद तक कि उन्होंने अपनी ही सीट मैनपुरी, जसवंत नगर से चुनाव लड़ने का न्योता दे डाला. मुलायम सिंह यादव ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) के उम्मीदवार के रूप में 1967 विधानसभा चुनाव में इसी सीट से विधायक चुने गए. गौरतलब है कि 1965 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में राम मनोहर लोहिया ने अपनी पार्टी सोशलिस्ट पार्टी-लोहिया का विलय कर दिया था. इसके बाद मुलायम सिंह यादव ने अपने समग्र राजनीतिक सफर में आठ विधानसभा और 7 लोकसभा चुनाव में विजय प्राप्त की.
आपातकाल ने दिए मुलायम सिंह को परवाज़
आपातकाल के समय तक मुलायम सिंह यादव फिर विधायक निर्वाचित हो चुके थे, लेकिन इस बार वह समाजवादी नेता चौधरी चरण सिंह की भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) के टिकट पर चुनाव जीत कर आए थे. राम मनोहर लोहिया के अलावा चौधरी चरण सिंह ने भी मुलायम सिंह यादव पर गहरी छाप छोड़ी थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, जिसने मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक सफर में और 'सुर्खाब' जोड़ने का काम किया. तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करने पर उन्हें पहली बार जेल जाना पड़ा. 1977 के आम चुनाव के बाद भारतीय क्रांति दल भारतीय लोक दल में तब्दील हो चुकी थी और सभी विपक्षी पार्टियां जनता पार्टी के गठन के लिए एक साथ आईं. मुलायम सिंह यादव जनता पार्टी के सबसे युवा नेता था. बाद में जब जनता पार्टी में टूट हुई तो मुलायम सिंह यादव ने चरण सिंह के धड़े लोक दल के साथ जाना बेहतर समझा. 1989 के आते-आते मुलायम सिंह यादव भारतीय राजनीति के एक प्रमुख स्तंभ बन चुके थे, जिसने जनता दल के बैनर तले कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में महती भूमिका निभाई. उस वक्त वह भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. बतौर सीएम पदभार संभालते वक्त उनकी उम्र 50 के लगभग थी.
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मंडल-कमंडल का संघर्ष
1990 का दशक भारतीय राजनीति के साथ-साथ मुलायम सिंह यादव के लिए भी एक निर्णायक युग था. यह दौर मंडल-कमंडल के संघर्ष का था. मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया गया था, तो भारतीय जनता पार्टी का हिंदुत्व एजेंडा देश भर में हुंकार भर रहा था. 1991 मुलायम सिंह यादव और बीजेपी की राजनीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण बदलाव का वाहक बना. राम मंदिर आंदोलन के दौरान अयोध्या में कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग के विरोध ने बीजेपी ने मुलायम सिंह यादव सरकार से समर्थन वापस ले लिया. 30 अक्टूबर 1990 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादवे के आदेश पर अयोध्या में एकत्रित और बाबरी मस्जिद की ओर कूच को आमादा कारसेवकों पर पुलिस ने फायरिंग कर दी. पुलिस की गीलोबारी से अफता-तफरी मच गई, जिसकी परिणिति भगदड़ के रूप में भी सामने आई. पुलिस ने अयोध्या की सड़कों और गलियों में कारसेवकों को दौड़ा-दौड़ा कर पकड़ा. 2 नवंबरको फिर से पुलिस और कारसेवकों में संघर्ष हुआ. इस बार भी कारसेवक बाबरी मस्जिद पर बदली रणनीति के साथ कूच के लिए आमादा थे. कारसेवकों पर फायरिंग के बाद 1991 में बीजेपी ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. फिर चुनाव हुए और बीजेपी ने कल्याण सिंह के नेतृत्व में यूपी में सरकार बनाई.
समाजवादी पार्टी का गठन, बसपा से गठबंधन और केंद्र की राजनीति
1992 के अक्टूबर में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया. इसी साल दिसंबर में कारसेवकों ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विवादास्पद ढांचा ढहा दिया. उस वक्त कांग्रेस केंद्र में थी और ढांचा ढहते ही उसने उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त कर सूबे में राष्ट्रपति शासन लगा दिया. इसके बाद मुलायम सिंह यादव ने मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी संग गठबंधन कर 1993 का विधानसभा चुनाव लड़ा और उत्तर प्रदेश के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. यह अलग बात है कि 1995 में मायावती के समर्थन वापस लेने पर उनकी सरकार गिर गई. इसके बाद मुलायम सिंह यादव ने अपना ध्यान राष्ट्रीय यानी केंद्र की राजनीति पर केंद्रित किया. उन्होंने 1996 का लोकसभा चुनाव लड़ा और सांसद चुने गए. तत्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार में वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे थे, लेकिन अंततः जनता दल के एचडी देवगौड़ा पीएम बने और मुलायम सिंह यादव को रक्षा मंत्री के पद से संतोष करना पड़ा.
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मंडल ने कमंडल को किया मजबूत
2003 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने नाटकीय ढंग से सूबे की राजनीति में वापसी की. मुलायम सिंह यादव फिर पर्याप्त समर्थन जुटा 2003 के सितंबर में तीसरी बार यूपी के सीएम बने और 2007 तक कार्यकाल पूरा किया. यह साल उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुआ और तब से एक ही पार्टी को बहुमत मिलने का शुरू हुआ चलन आज तक जारी है. 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुई. 2012 में बहुमत हासिल करने की बारी समाजवादी पार्टी की रही, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने इस बार खुद के बजाय अपने बेटे अखिलेश यादव को सूबे का मुख्यमंत्री बनाया. सपा को 224 सीटों पर विजय प्राप्त हुई थी. इस विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की लोकप्रियता पर सवार सपा के तेज नारायण पांडे ने अयोध्या सीट पर भी कब्जा कर लिया, जहां बीजेपी पिछले 21 सालों से चुनाव नहीं हारी थी. इस जीत पर मुलायम सिंह यादव ने हर्षित स्वर में कहा था, 'अयोध्या ने मुझे माफ कर दिया'. 2017 में सपा आंतरिक उधेड़बुन और कलह का शिकार हो चुकी थी, मुलायम सिंह और बेटे अखिलेश समेत भाई-भाई और चाचा-भतीजे में तीखे तीर चले... एका हुआ, लेकिन सपा पहले जैसी नहीं रह गई थी. खुद मुलायम सिंह यादव भी लग रहा था कि सपा में रुचि खो चुके हैं. तीन दशक बाद 2014 में केंद्र में अपने बल पर जबर्दस्त बहुमत के साथ सरकार बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने तीन साल बाद उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने. केंद्र और उत्तर प्रदेश में बीजेपी की दोबारा सरकार ने सिद्ध कर दिया है कि अंततः मंडल पर कमंडल भारी पड़ चुका है.
सभी राजनीतिक दलों से आत्मिक रिश्ते
सिर्फ कांग्रेस ही नहीं भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक दलों के साथ मुलायम सिंह यादव के आत्मिक रिश्ते रहे. सुविज्ञ रहे कि 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुलायम सिंह यादव के परपौत्र के सैफई में हो रहे तिलक समारोह में भाग लेने पहुंचे थे. इस घटना के ठीक चार साल बाद 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में संसद के आखिरी सत्र में पीएम नरेंद्र मोदी की शान में कसीदे पढ़ते हुए उनके फिर से पीएम बनने की कामना व्यक्त की थी. जाहिर है मुलायम सिंह यादव सर्वोत्कृष्ट राजनेता थे. वह अपने वोट बैंक को जानते-समझते थे, अपनी राजनीति को जानते थे और सबसे बड़ी बात अपनी सीमाओं से भली-भांति परिचित थे. इन्हीं सीमाओं में रहते हुए उन्होंने राजनीति की लंबी पारी खेली. अपने राजनीतिक कौशल के बल पर यूपी और केंद्र की सियासत में महती भूमिका निभाने वाले मुलायम सिंह यादव हमेशा याद रखे जाएंगे.
HIGHLIGHTS
- पहलवानी का शौक रखते हुए शिक्षक बने मुलायम सिंह यादव को अंततः कुश्ती ने ही दिखाया राजनीति का दरवाजा
- 60 के दशक में मैनपुरी के तत्कालीन विधायक नत्थू सिंह कुश्ती के दांव-पेंच फिर राजनतिक समझ से हुए थे प्रभावित
- 1967 में मैनपुरी से पहली बार विधायक बने मुलायम सिंह यादव आठ बार एमएलए और सात बार एमपी चुने गए