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मिलिए नाइश हसन से जिन्होंने हलाला पर की है PHD, दादा थे स्वतंत्रता सेनानी

देश की वह पहली महिला हैं, जिन्होंने हलाला जैसी बुराई की शिकार महिलाओं पर पीएचडी की है. यह नाइश हसन ही हैं, जिन्होंने हलाला, मुताह, मिसियार, बहुविवाह और मौजूदा शरिया कानून 1937 के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.

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Shailendra Kumar
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Naish Hasan

नाइश हसन मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ रहीं लड़ाई( Photo Credit : IANS)

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देश की जंग-ए-आजादी में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में से एक रहे उत्तर प्रदेश के नाजिम अली की विरासत को उनकी पौत्री नाइश हसन आगे बढ़ा रहीं हैं. लखनऊ की रहने वालीं नाइश हसन आज मुस्लिम महिलाओं की आवाज बन चुकी हैं. पिछले दो दशक से वह महिलाओं के हक की लड़ाई योजनाबद्ध तरीके से लड़ रहीं हैं. जिसमे मुसलमान औरत की मुकम्मल आजादी के सभी पक्ष शामिल हैं. देश की वह पहली महिला हैं, जिन्होंने हलाला जैसी बुराई की शिकार महिलाओं पर पीएचडी की है. यह नाइश हसन ही हैं, जिन्होंने हलाला, मुताह, मिसियार, बहुविवाह और मौजूदा शरिया कानून 1937 के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. महिलाओं को इन कुप्रथाओं से निजात दिलाने की अपनी याचिका के कारण वह सुर्खियों में रहीं हैं.

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नाइसा हसन को जानिए

नाइश हसन उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के तेरी गांव की रहने वालीं हैं. उनके दादा नाजिम अली ने 1916 में 20 वर्ष की उम्र में देश की आजादी की जंग में खुद को समर्पित कर दिया और 1947 तक लड़ते रहे. आजादी के बाद वह जयसिंहपुर विधानसभा क्षेत्र से पहले विधायक चुने गए. लखनऊ विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमफिल और फिर शकुंतला मिश्रा विश्वविद्यालय से पीएचडी करने वालीं नाइश हसन ने बताया कि उनके दादा बेटियों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करते थे तो उन्हें समाज का ताना सुनना पड़ता था. मगर, प्रगतिशील सोच के दादा हमेशा हवा के खिलाफ खड़े होकर अपनी ही नहीं समाज की सभी बेटियों को पढ़ाई-लिखाई के लिए प्रेरित करते रहे. देश के भले के लिए वह उन मुस्लिम नेताओं में शुमार रहे, जिन्होंने देशहित में मुस्लिम लीग का मुखर होकर विरोध किया.

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2005 से तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की

पढ़ाई के दौरान ही नाइश हसन के पास ऐसे तमाम मामले सामने आए, जहां छोटी-छोटी बात पर पतियों ने बीवियों को तीन-तलाक देकर उन्हें घर से निकाल दिया. ऐसी महिलाओं के दर्दनाक किस्से सुनकर नाइश हसन ने उनकी आवाज बनने का फैसला लिया. 2005 से उन्होंने तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की. शाहबानो केस के बाद जो खामोशी रही उसे भरने में वह सबसे बड़ी आवाज बनीं. जिस पर उन्हें मुस्लिम समाज के अंदरखाने भारी विरोध सहना पड़ा. मगर, स्वतंत्रता सेनानी रहे दादा नाजिम अली की ही विरासत को आगे बढ़ाते हुए नाइश मिशन पर डटीं रहीं. उनके बार-बार तीन तलाक पर आवाज उठाने से देश में यह मुद्दा विमर्श का विषय बनना शुरू हुआ. अब तीन तलाक की शिकार हुईं महिलाएं भी सामने आने लगीं.

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तर्क और तथ्यों के जरिए समाज का मन बदलने में मिली सफलता

नाइश हसन ने बताया, तीन तलाक, हलाला, मुताह, शरिया के बारे में अधिक से अधिक जानकारी के लिए उन्होंने रिसर्च करना शुरू किया. इसके लिए मुंबई से लेकर हैदराबाद तक के चक्कर उन्होंने लगाए. रिसर्च के कारण इतनी जानकारी हुई कि अब वह इन विषयों पर किसी बड़े वकील के टक्कर में बहस करने के काबिल हो चुकीं हैं. तर्क और तथ्यों के जरिए वह समाज के लोगों का धीरे-धीरे मन बदलने में सफल हो रहीं हैं.

देश की पहली मुस्लिम महिला हैं हलाला पर पीएचडी करने वाली

नाइश हसन संभवता देश की पहली मुस्लिम महिला हैं, जिन्होंने मु्स्लिम समाज की हलाला जैसी बुराई पर पीएचडी की है. नाइश हसन ने कहा, समाज में कई बातें फैलाईं गईं. जब मैने समाज में प्रचलित कुप्रथाओं की पड़ताल करनी शुरू की तो पता चला कि कुरान में इन सब का जिक्र नहीं है. यह सब कुछ मौलवी का कपोल-कल्पनाएं हैं. ऐसे में मैने इन कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की. शाहबानो केस में 1986 में आए जजमेंट को दबाव में आने और फैसले के पलटने से इंसाफ की आस लगाए बैठीं महिलाओं का साहस टूट गया था. लंबे समय बाद जब फिर दूसरी महिला शायरा बानो ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तब जाकर हौसला बढ़ा. तीन तलाक के बाद अब हलाला, मुताह के खात्मे की आस जगी है. सुप्रीम कोर्ट में लंबित याचिका पर जल्द न्याय की आस है.

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'हिंदुस्तान के मुसलमानों की देशभक्ति में कोई कमी नहीं'

देश, धर्म आदि मसलों को लेकर हुए सवाल पर नाइश हसन का कहना है कि हिंदुस्तान के मुसलमानों की देशभक्ति में कोई कमी नहीं है. मलाल इस बात का है कि कुछ लोग कई बार मुसलमानों की देशभक्ति पर संदेह करते हैं या फिर उनकी धार्मिक पहचान पर ज्यादा जोर देते हैं. उन्होंने कहा, मेरा मानना है कि एक इंसान की बहुत सी पहचानें होती है, उसे खाली उसकी धार्मिक पहचान से ही जोड़ कर देखना गलत है, मुसलमान होना तमाम पहचानो में से एक पहचान है, लेकिन उसे प्राथमिक पहचान कर दिया जाता है. हर समाज में अच्छे-बुरे दोनों तरह के लोग होते हैं.

'मेरे बाबा देशभक्ति और आपसी सौहार्द की मिसाल थे'

नाइस हसन ने कहा, किसी कौम को निशाने पर लिया जाना खतरनाक है. मेरे बाबा देशभक्ति और आपसी सौहार्द की मिसाल थे. उन्होंने मुल्क के लिए अपना जीवन लगा दिया. कट्टरपंथी सोच रखने वाले उनसे चिढ़ते थे. वो मुल्क से मोहब्बत करने वाले थे , जो छोटी सोच रखने वालों को मंजूर नही था, यही वजह रही कि उनके इंतकाल के बाद उनके जनाजे की नमाज कट्टर लोगों ने नहीं पढ़ी, ऐसे तमाम मुस्लिमों ने इस देश के लिए अपनी जान दी है. मुसलमान भी उतने ही देशभक्त हैं, जितने बाकी सब.

क्या एक मुस्लिम के तौर पर भेदभाव महसूस हुआ? इस सवाल पर नाइश हसन का कहना है कि चौंकाने वाली बात है कि छोटे शहरों की तुलना में बड़े शहरों में धार्मिक पहचान ज्यादा मायने रखती है. कुछ मौकों पर उन्होंने भेदभाव महसूस किया है. खासतौर से किराए पर मकान ढूंढने के दौरान कई बार धार्मिक पहचान का नुकसान उठाना पड़ता है.

Source : IANS/News Nation Bureau

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