पांच दशकों से अस्थिरता और हिंसक संघर्ष का सामना कर रहा अफगानिस्तान (Afghanistan) एक बार फिर तालिबान के बर्बर इस्लामिक कानूनों के दरवाजे पर खड़ा है. तालिबान (Taliban) के खौफ से पूरे देश में दहशत और भगदड़ का आलम है. राष्ट्रपति अशरफ गनी (Ashraf Ghani) देश को तालिबान के रहमोकरम पर छोड़ ताजिकिस्तान भाग चुके हैं. अमेरिका भी पूरी तरह से अपना बोरिया-बिस्तर समेटने में लगा हुआ है. अमेरिका (America) दूतावास से झंडा उतर चुका है और अमेरिकी फौज काबुल हवाइअड्डे पर स्थितियां सामान्य करने में लगी है. अफगानिस्तान के इन हालातों के बीच एक बड़ा सवाल यह खड़ा हो गया है कि इतने लंबे समय से आखिर अमेरिका और नाटो देशों की फौज वहां कर क्या रही थी? आखिर किन हालातों में विश्व की सुपर पॉवर ने आतंकियों के समूह के आगे हार मान ली?
तालिबान की उत्पत्ति
पहले जानते हैं कि तालिबान कब-कैसे और किन कारणों से अस्तित्व में आया. वास्तव में क्वेटा शूरा तालिबान का सर्वेसर्वा है. यह एक काउंसिल है, जो क्वेटा से अपनी गतिविधियों को अंजाम देती है. तालिबान को आज जो मकाम हासिल है, उसके पीछे पाकिस्तान सबसे बड़ा प्रेरक है. 1994 में पाकिस्तान ने तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर को परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन देना शुरू किया. पाकिस्तान की खुफिया संस्था आईएसआई ने लड़ाकों की भर्ती से लेकर वित्त पोषण तक के रास्ते दिखाए. 2013 में मुल्ला उमर की मौत के बाद मुल्ला अख्तर मंसूर तालिबान के शीर्ष पर आया, जिसे 2016 की ड्रोन स्ट्राइक में मार दिया गया. उसके बाद से मावलावी हैबतुल्ला अखुंदजादा तालिबान का कमांडर है. उमर का बेटा मुल्ला मोहम्मद याकूब भी कमांडर अखुंदजादा के साथ है. इसके अलावा तालिबान का सहसंस्थापक मुल्ला अब्दुल गनी बरादर और हक्कानी नेटवर्क का सिराजुद्दीन हक्कानी भी इसी दुर्दांत और शरिया के पैरोकार संगठन का हिस्सा है.
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तालिबान का प्रचार-प्रसार
पश्तून में तालिबान का अर्थ होता है 'छात्र'. यानी तालिबान की शुरुआत मदरसों से ही हुई, जो बाद में बड़ा आतंकी संगठन बनकर दुनिया के लिए खतरा बना. कहा जाता है कि उत्तरी पाकिस्तान में सुन्नी इस्लाम का कट्टरपंथी रूप सिखाने वाले एक मदरसे में तालिबान का जन्म हुआ था. अफगानिस्तान में सोवियत संघ की वापसी के बाद गृहयुद्ध की स्थिति बन गई. इस दौरान बीती सदी के नब्बे के दशक में तालिबान का दायरा फैलना शुरू हुआ. शुरुआती दौर में तो तालिबान को अवाम का समर्थन भी मिला. अफगानी लोग अन्य मुजाहिदीनों की तुलना में तालिबान को अधिक पसंद करते थे. इसकी बड़ी वजह अफगानिस्तान से भ्रष्टाचार और अराजकता को खत्म करने के तालिबानी वादे थे.
फिर ऐसे बढ़ता गया खौफ
यह अलग बात है कि बाद के दौर में तालिबान ने शरिया और इस्लामी कानूनों के नाम पर कड़ा रुख अपनाना शुरू किया. इन्हें अमली जामा पहनाने में तालिबान ने हिंसा का रास्ता अपनाया. इस्लामिक कानूनों के तहत दी जाने वाली बर्बर सजाओं ने लोगों में तालिबान के प्रति खौफ और दहशत भर दी. इस्लामिक कानूनों के नाम पर गीत-संगीत, मनोरंजन यानी टीवी और सिनेमा पर रोक लगा दी गई. अफगानी समाज में मर्दों का दाढ़ी रखना जरूरी हो गया, तो महिलाएं बिना सिर से पैर तक खुद को ढके बाहर नहीं आ-जा सकती थीं. लड़कियों की पढ़ाई पर रोक लगा दी गई. मलाला युसुफजई ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की तो उसे गोली मार दी गई.
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लेखा-जोखा कमाई के स्रोतों का
दो दशकों बाद अफगानिस्तान में तालिबान राज की वापसी के साथ यह चर्चा तेज हो गई है कि आखिर खरबों रुपए खर्च करने के बाद भी धन-संसाधन में कहीं नहीं ठहरने वाले तालिबान के आगे घुटने क्यों टेकने पड़े. हालांकि सच्चाई यही है कि तालिबान के पास पैसों की कोई कमी नहीं है. मोटे तौर पर उसकी हर साल एक बिलियन डॉलर से ज्यादा की कमाई है. प्रतिष्ठित फोर्ब्स पत्रिका ने 2016 में तालिबान को शीर्ष 10 धनवान आतंकी संगठनों की सूची में 5वें स्थान पर रखा था. उनके मुताबिक तालिबान को कई मदों से भारी-भरकम कमाई होती है. इनमें सबसे बड़ा काम है प्राकृतिक खनिजों के खनन का, जिससे उसे 464 मिलियन डॉलर प्राप्त होते हैं. नशे के काले कारोबार से भी उसे हर साल लगभग 416 मिलियन डॉलर मिलते हैं. विभिन्न सरकारी एजेंसियों, व्यापारियों और औद्योगिक घरानों से वसूली बतौर 160 मिलियन डॉलर मिलते हैं. इसके अलावा कई कट्टर समूहों से भी उसे 240 मिलियन डॉलर मिल जाते हैं. निर्यात से तालिबान को हर साल 240 मिलियन डॉलर, तो रियल एस्टेट से लगभग 80 मिलियन डॉलर हर साल मिलते हैं. और तो और रूस, ईरान, सउदी अरब और पाकिस्तान जैसे देशों से 100 मिलियन डॉलर से 500 मिलियन डॉलर के बीच रकम प्राप्त होती है.
HIGHLIGHTS
- तालिबान के उभार और मजबूती में पाकिस्तान का बड़ा हाथ
- फोर्ब्स पत्रिका ने तालिबान को 5वां धनी आतंकी संगठन माना
- कमाई के कई जरिये, खनन-नशे का कारोबार देता है मुनाफा