भारतीय लोकतंत्र की यह विडंबना ही है कि अक्सर राजनीतिक दलों में टूट होती रहती है. दलों के टूटने के बाद हर धड़ा अपने असली बताते हुए पार्टी के चुनाव चिंह्न और कार्यालय पर अपना दावा जाता है. दलों के टूटने के क्रम में सरकारों के बनने और बिगड़ने का खेल बी चलता है. विचारधारा से समझौता और अवसरवादी राजनीति करने का आरोप लगाते हुए एक ही दल के दो धड़े हो जाते हैं. ऐसे सवाल उठता है कि राजनीतिक दलों के टूटने-बिगड़ने के बाद पार्टी के सिंबल और प्रतीक पर अधिकार जातने वालों में कानून किसके पक्ष में खड़ा होता है. महाराष्ट्र में शिवसेना विधायकों की बगावत ने एक बार फिर से दल-बदल कानून की चर्चा को तेज कर दिया है. इस लेख में हम इसे लेकर चुनाव आयोग के क्या नियम हैं, उसकी चर्चा करेंगे.
महाराष्ट्र में शिव सेना में एकनाथ शिंदे की अगुवाई विधायकों के एक गुट ने बहुमत का दावा करते हुए पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह पर अपना अधिकार जताया है. बागी विधायकों के नेता एकनाथ शिंदे ने दावा किया है कि चूंकि उनके पास विधायकों की संख्या ज्यादा है, लिहाजा वही अब असली शिव सेना हैं और पार्टी का चुनाव चिन्ह और प्रतीक पर उनका अधिकार है. फिलहाल शिंदे गुट महाराष्ट्र विधानसभा में 55 में 40 विधायकों के अपने साथ होने का दावा कर चुका है. चुनाव आयोग को इसका फैसला करना है, पहले भी कई बार पार्टी टूटने के चलते इस तरह के मामले चुनाव आयोग में पहुंचे हैं. शिंदे और शिव सेना के बागी विधायक फिलहाल गुवाहाटी में हैं.
चुनाव आयोग इस बारे में चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश 1968 पर चलता है. जो राजनीतिक दलों को मान्यता देने और सिंबल आवंटित करने का काम करता है. इस आदेश का पैराग्राफ 15 साफ तौर पर पार्टी टूटने की सूरत में ये व्याख्या करता है तब पार्टी का नाम और सिंबल किसे दिया जाए. इसे लेकर कुछ शर्तें हैं. जिन्हें लेकर संतुष्ट होने के बाद ही चुनाव आयोग कोई फैसला लेता है.. बगैर पर्याप्त सुनवाई और दस्तावेजों और प्रमाणों के चुनाव आयोग कोई फैसला नहीं लेगा. वो पार्टी टूटने की सूरत में दोनों पक्षों की बातों को सुनेगा और फिर संतुष्ट होने पर ही कोई फैसला देगा.
यह नियम कब बना और पहली बार कब हुआ फैसला
भारत के लोकतंत्र के इतिहास में सबसे पहले कांग्रेस के टूटने के बाद मामला उटा कि असली पार्टी कौन है, और इस पर किसका अधिकार होगा. इसकी नौबत तब आई जबकि इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री होते हुए कांग्रेस के लोगों से अपील की कि वो राष्ट्रपति के चुनाव में अंतरात्मा की आवाज पर वोट दें. तब कांग्रेस सिंडिकेट ने अपना आधिकारिक प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को बना रखा था तो वीवी गिरी को इंदिरा गांधी का समर्थित उम्मीदवार माना जा रहा था. वह निर्दलीय थे.
कांग्रेस के अध्यक्ष निंजलिगप्पा ने पार्टी प्रत्याशी को वोट देने के लिए व्हिप जारी किया लेकिन बड़े पैमाने पर कांग्रेस के लोगों ने वीवी गिरी को वोट दिया. वो जीत गए. तब नवंबर 1969 को इंदिरा गांधी को कांग्रेस सिंडिकेट ने पार्टी ने निकाल दिया. इसके बाद इंदिरा ने अपनी अलग पार्टी बनाकर सरकार को बचा लिया. वह खुद प्रधानमंत्री बनी रहीं. इसके बाद पार्टी के चुनाव चिन्ह को लेकर मामला चुनाव आय़ोग में पहुंचा. तब आयोग ने कांग्रेस सिंडिकेट को ही असली कांग्रेस माना. उनके पास कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैलों का जोड़ा बने रहने दिया गया तो इंदिरा की कांग्रेस आर को गाय और बछड़ा का चुनाव चिन्ह मिला.
ऐसे मामलों में चुनाव आय़ोग की भूमिका
हालांकि इस मामले में चुनाव आयोग ने दोनों ही गुटों के सांसद और विधायकों की गिनती की. हाल के मामलों में चुनाव आयोग तब पार्टी के पदाधिकारियों औऱ चुने हुए प्रतिनिधियों दोनों की बात सुनकर फैसला करता रहा है और ये देखता है कि पार्टी टूटने की सूरत में पार्टी के कितने पदाधिकारी किस गुट के साथ हैं. उसके बाद वो चुने हुए सांसदों औऱ विधायकों की गिनती करता है.
शिव सेना के मामले में क्या कर सकता है चुनाव आयोग
शिव सेना की ताजा टूट में फिलहाल पार्टी के अमूमन सभी पदाधिकारी उद्धव ठाकरे के गुट के साथ हैं. और अगर इनके साथ सांसदों औऱ विधायकों को जोड़ लें तो उद्धव ठाकरे का पलड़ा ज्यादा भारी बैठता है. एकनाथ शिंदे के साथ अब तक पार्टी का कोई पदाधिकारी नहीं गया है. इंदिरा गांधी ने जब पार्टी तोड़ी थी तब कांग्रेस सिंडिकेट को असली कांग्रेस माना गया था क्योंकि तब कांग्रेस पार्टी के ज्यादातर पदाधिकारी सिंडिकेट के साथ थे. फिर सांसदों औऱ विधायकों को जोड़ने पर भी उनकी संख्या पर्याप्त थी.
चुनाव आयोग दूसरे गुट को क्या कहता है
तब आयोग उन्हें दूसरी पार्टी के तौर पर मान्यता दे देता है और उनसे नया नाम और नया सिंबल लेने को कहता है. हालांकि चुनाव आयोग अपने विवेक से दोनों ही गुटों को नया नाम बनाने और नया सिंबल लेने को कह सकता है और पुराने नाम और चुनाव चिन्ह को फ्रीज भी कर सकता है.
तमिलनाडु में एआईएडीएमके पर क्या हुआ
1986 में तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन के निधन के बाद भी एआईएडीएमके के दो गुट बन गए. अन्नाद्रमुक यानि एआईएडीएमके पर जयललिता ने भी दावा किया और एमजी रामचंद्रन की विधवा जानकी रामचंद्रन ने भी. जानकी रामचंद्रन 24 दिनों के लिए तमिलनाडु की मुख्यमंत्री भी बनीं. मगर जयललिता ने संगठन के ज़्यादातर विधायकों और सांसदों का समर्थन ही हासिल नहीं किया बल्कि पार्टी के कई पदाधिकारी भी उनकी ओर चले गए. नतीजतन पार्टी का आधिकारिक चुनाव चिह्न जयललिता को मिला.
लोकजन शक्ति पार्टी के विवाद में फैसला
पिछले साल अक्टूबर में तब भारतीय चुनाव आयोग ने चाचा पारस पासवान और भतीजे चिराग पासवान के बीच पार्टी और पार्टी सिंबल पर दावे की लड़ाई के बीच पार्टी के नाम और चुनाव चिह्न दोनों को फ्रीज कर दिया. नतीजतन अब लोक जनशक्ति पार्टी और चुनाव चिह्न पर इन दोनों का कोई अधिकार नहीं रह गया. दोनों को अपनी नई पार्टी बनानी पड़ी. नया चिह्न लेना पड़ा.
समाजवादी पार्टी का मामला कैसे हल हुआ
वर्ष 2017 में समाजवादी पार्टी पर कब्जे के लिए भी टकराव हुआ. उसमें लड़ाई पिता और बेटे के बीच थी. जनवरी 2017 में लखनऊ में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाकर अखिलेश ने सुनिश्चित कर लिया कि पार्टी उन्हें अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने. इसके बाद पार्टी में भूचाल आ गया. मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल यादव ने इसका विरोध किया. दो गुट बन गए. दोनों गुट भारतीय चुनाव आयोग के पास पहुंचे. दोनों ने पार्टी और पार्टी सिंबल पर अधिकार जताया. इसमें तकनीकी पेच ये था कि मुलायम ने ये नहीं कहा था कि पार्टी बंट रही है. चुनाव चिह्न उन्हें दे दिया जाए. फिर अखिलेश ने चुनाव आयोग के सामने तमाम ऐसे दस्तावेज पेश किए, जिससे साबित हो गया कि लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में चुने हुए ज्यादा प्रतिनिधि उनके साथ हैं. और पार्टी के ज्यादा पदाधिरियों का समर्थन भी उन्हें हासिल है. ऐसे में चुनाव आयोग ने अखिलेश के दावे को मानते हुए उन्हें ना केवल समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष माना बल्कि पार्टी के चुनाव चिह्न साइकिल को भी उनके पास रहने दिया.