महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही मध्य प्रदेश का घटनाक्रम भी एक बार फिर लोगों को याद आ गया है. शिंदे के मुख्यमंत्री बनने के बाद से यही सवाल गूंज रहा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया क्यों कांग्रेस सरकार गिराने के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बन पाए? सिंधिया को कांग्रेस की सरकार गिराने के बाद भाजपा से राज्यसभा की सीट मिली. सरकार गिरने के सवा साल बाद केंद्र सरकार में मंत्री की कुर्सी मिली. सिंधिया के 11 समर्थकों को मंत्रिमंडल में स्थान मिला था. उपचुनाव हारने के बाद अब सिंधिया के 9 समर्थक मंत्रिमंडल में रह गए हैं. सिंधिया समर्थकों को निगम मंडल में राजनीतिक नियुक्तियों से भी नवाजा गया.
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सिंधिया को इतना सब मिला, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिली. सिंधिया समर्थक महाराष्ट्र में हुए घटनाक्रम के बाद खुलकर तो कुछ नहीं बोल रहे हैं, लेकिन कहीं-न-कहीं यह कसक उनकी बातों में दिखाई दे रही है कि सिंधिया भी यदि प्रयास करते तो मार्च 2020 में एमपी की सरकार गिराने के समय प्रदेश के मुख्यमंत्री बन सकते थे.
क्या है वजह
एकनाथ शिंदे के मुख्यमंत्री बनने और सिंधिया के मुख्यमंत्री न बनने के उस दौरान कई कारण रहे. सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि सिंधिया सरकार गिराने के एवज में मुख्यमंत्री पद की मांग ही नहीं कर पाए. सिंधिया के करीबियों का कहना है कि 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद से सिंधिया काफी उदास थे. एक और वे चुनाव हार गए थे. दूसरी ओर मध्यप्रदेश में कांग्रेस की ही सरकार उनकी जमकर उपेक्षा कर रही थी. राज्यसभा के चुनाव घोषित हो चुके थे. दिग्विजय सिंह राज्यसभा में जाएंगे यह तय था. सिंधिया राज्यसभा में जा पाएंगे या नहीं इसे लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ चुप्पी साधे हुए थे. सिंधिया उस दौर में इतने व्यथित थे कि उन्होंने भाजपा में जाने का निर्णय कर लिया.
सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के दौरान उनके पास 19 विधायक थे. भाजपा ने अपने संपर्क में आए 3 कांग्रेस विधायकों बिसाहूलाल सिंह, एंदल सिंह कंसाना और हरदीप सिंह डंग को भी सिंधिया समर्थक विधायकों के साथ कर दिया था, जिस कारण इनकी संख्या 22 कहलाने लगी.
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सिंधिया समर्थक 19 विधायकों में से भी 2 विधायक लंबे समय से भाजपा नेताओं के साथ संपर्क में थे. हाल ही में सपा और बसपा से भाजपा में शामिल हुए दो विधायक राजेश शुक्ला और संजीव कुशवाह भी भाजपा के संपर्क में थे. ऐसे में सिंधिया के पास विधायकों की इतनी बड़ी संख्या नहीं थी कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी मांग पाते. एमपी में दो दलीय राजनीति है. सिंधिया के पास कांग्रेस से नाराज होकर भाजपा में जाने के अलावा विकल्प नहीं था. महाराष्ट्र की राजनीति में चार दल प्रभावी हैं. ऐसे में शिंदे के पास कई विकल्प हो सकते थे.
आगे क्या आसार
प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होना है. ऐसे में फिलहाल एमपी में नेतृत्व परिवर्तन की संभावना दिखाई नहीं दे रही है. ऐसे में 2023 में भाजपा की सरकार बनने पर ही सिंधिया या अन्य भाजपा नेता अपने प्रयास करते दिखाई दे सकते हैं. नगरीय निकाय चुनाव में प्रदेश भाजपा के नेताओं ने सिंधिया समर्थकों को तवज्जो नहीं दी, यह भी आने वाले समय के लिए संकेत हैं.
HIGHLIGHTS
- महाराष्ट्र में सीएम के शपथ ग्रहण के बाद एमपी का घटनाक्रम चर्चा में
- कांग्रेस की सरकार गिराने के बाद भाजपा से सिंधिया को राज्यसभा की सीट मिली
- सरकार गिरने के सवा साल बाद केंद्र सरकार में मंत्री की कुर्सी मिली