समय सबसे बड़ा बलवान होता है. वक्त बदलता है तो सब कुछ बदल जाता है. सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, प्रथा, रिति रिवाज, सोच विचार और आचार व्यवहार. वैसे ही बदलाव की चपेट में पान मखान, मीठी मुस्कान के लिए विख्यात मिथिलांचल भी है. यहां के पौराणिक गरिमा को पाश्चात्य सभ्यता जनित आधुनिकता निगल रही है. इसकी खुदकी गरिमामयी सभ्यता संस्कृति मिट रही है. परम्परायें प्रथायें लुप्त हो रही हैं. रिति रिवाज महत्व खो रहे हैं. मिथिला के अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर सौराठ सभा पर इसका कुछ अधिक असर दिख रहा है.सांस्कृतिक सभा के रुप में चर्चित मिथिलांचल के ब्राह्मणों का अपने ढंग का यह विश्व का इकलौता सामाजिक सांस्कृतिक आयोजन अस्तित्व संकट से जूझ रहा है. इस सांस्कृतिक सभा में प्रति वर्ष आषाढ़ माह में वैवाहिक सभा का आयोजन होता है. शादी विवाह का शुद्ध लगन खत्म होने से पूर्व कभी सात कभी नौ कभी-कभी ग्यारह दिनों तक इसमें वरागत और कन्यागत पक्ष के लोग जुटते रहे हैं. शादीयां तय होती रहती हैं. सिद्धान्तों का पंजीयन होता रहा है. इसे इसका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि मिथिला वासियों के तिरस्कार और सरकार के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के चलते यह वृहत आयोजन वर्ष दर लघुता में सिमटता चला गया.
आयोजन काल में भी गाछी में सन्नाटा पसरा रहता है. कुछ पंजीकार प्रतिकात्मक रूप में ही सही इसके वजूद होने के भाव को अपने कंधे पर रखे हुए हैं. पहचान बनाए हुए हैं. इनके बाद क्या होगा? सौराठ सभा के दीर्घ सन्नाटे को चीरते हुए हर वर्ष यह सवाल मिथिला वासियों से जवाब मांगता है, किन्तु पाग का लगभग परित्याग कर अपनी सांस्कृतिक पहचान मिटा रहे मैथिल समाज के पास भरोसा जमाने लायक कोई जवाब नहीं है. "जय मिथिला जय मैथिली" का नारा उछाल कर चेहरा चमकाने वालों के पास भी नहीं यद्यपि गैर राजनीतिक लोग और स्वयंसेवी संगठन मैथिलों की इस अति प्राचीन प्रथा की गरिमा, गौरव और ग्राहय्ता फिर से कायम करने की सामूहिक और अलग-अलग प्रयास कर रहे हैं. उनका प्रयास सराहनीय है पर घने अंधेरे में ये प्रयास भी टिमटिमाते दिये की तरह है. समग्र रूप से यह तभी कामयाब होगा, जब मैथिल समाज अपनी सोच बदले, परन्तु आधुनिकता में सराबोर समाज की सोच इतनी आसानी से बदल जायेगी ऐसा संभव नहीं दिखता. वैसे समाज की सोच बदलने का अभियान चलाने वालों के खुद की सोच कितना परिष्कृत है यह भी एक बड़ा सवाल है, तब भी इस तरह का अभियान ठहरे हुए पानी में कंकड़ उछाल कर हलचल तो पैदा कर ही देती है.
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साथ ही पौराणिक काल में मैथिल ब्राह्मणों की शादी की अनूठी पद्धति थी. सभा का आयोजन मिथिलांचल की सांस्कृतिक पहचान थी, इतिहास में वर्णित है कि उस वक्त 42 स्थानों पर ऐसे सभा का आयोजन होता था. मधुबनी, दरभंगा, सीतामढ़ी, अररीया सहित कई स्थानों पर पूर्व से चल रहे ऐसे सभा काल कवलित होते चले गए. यह स्थापित तथ्य है कि इस वैवाहिक सभा के आयोजन के पिछे सारगर्भित सामाजिक और वैज्ञानिक सोच थी. समाज के लोगों को करीब लाना वर खोजने में समय और पैसे की बर्बादी रोकना और योग्य संतान की प्राप्ति के लिए आवश्यक नियमों को आसान बनाना. पुराने दौर में यातायात के साधन अपर्याप्त थे, सामाजिक परिचय भी सिमित होता था. वर ढूंढना एक दुरूह कार्य था, आम तौर पर पंडित और नाई ही ऐसे कार्य लगे रहते थे.
आपको बता दें कि वैवाहिक सभा के आयोजन से मैथिल ब्राह्मणों का मेलजोल बढ़ा और कन्यागतो को वर चुनने में आसानी हुई है. एक साथ शादी के इच्छुक वरों के मौजूदगी से चयन में श्रम , समय और पैसे की बर्बादी रूकी. इससे दहेज मुक्त सामूहिक विवाह की परम्परा भी विकसित हुई. विगत सात सौ वर्षों से यह सभा बिना कोई आयोजन कर्ता के निर्वाध रूप से चलती आ रही है. अस्तित्वहीनता की ओर बढ़ रही सौराठ सभा की परम्परा को बनाये रखने के लिए कुछ सामाजिक संगठनों से जुड़े लोगों को इसके लिए आगे आना होगा, जब तक मैथिलों की अगली पिढी अपनी इस अनोखी संस्कृति की विशेषताओं को नहीं जानेगी. सांस्कृतिक धरोहरों की मिट रही पहचान को बनाये रखने सजग सचेत और तत्पर नही होगी, लेकिन आधुनिकता के आकंठ में डूबी यह पिढ़ी ऐसा कुछ कर सकेगी इसकी दूर-दूर तक संभावना नहीं दिखती. इसलिए कि सभा गाछी में पारम्परिक पोशाक, धोती कुर्ता, चादर और सिर पर पाग धारण कर ललाट पर चंदन टीका लगा चादर बिछाकर बैठे वरागत पक्ष का दर्शन अब शायद ही कभी होता है. जरूरत है परम्परा और आधुनिकता में समन्वय स्थापित कर जन जेतना जागृति करने की पर सवाल यह है, इसके लिए आखिर पहल करेगा तो कौन?
Reporter: Prashant Jha
Source : News State Bihar Jharkhand