बिहार की धरती से एक और स्वतंत्रता सेनानी हुए और बाद में आगे चलकर बिहार के सीएम भी बनें. नाम था दीप नारायण सिंह. सिर्फ देश के लोगों का ही नहीं बल्की अंग्रेजी हुकूमत का भी ध्यान दीप नारायण सिंह ने अपनी तरफ खीचा था. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी और फिर बिहार के सीएम बने. ये कहानी किसी और की नहीं बल्कि दीप नारायस सिंह यानि दीप बाबू की है. बिहार की धरती ने कई महापुरुषों को जन्म दिया है. ऐसे ही एक महापुरुष थे दीप नारायण सिंह. इन्हें प्यार से लोग दीप बाबू कहकर बुलाते थे. बिहार की जनता ने उन्हें बिहार केसरी की उपाधि से विभूषित किया था. दीप बाबू नमक सत्याग्रह आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. वे महात्मा गांधी के प्रिय पात्र थे. जब भी महात्मा गांधी भागलपुर आते थे, उन्हीं के आवास पर ठहरते थे. डा. राजेंद्र प्रसाद और सरोजनी नायडू भी दीप बाबू के यहां आ चुके हैं.
- बिहार के पूर्व सीएम दीप नारायण सिंह की कहानी
- मात्र 18 दिन के लिए बने थे बिहार के सीएम
- स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के साथ किया था आंदोलन
- स्वतंत्रता की लड़ाई में जाना पड़ा था जेल
- स्वतंत्रता सेनानी से सत्ता हासिल करने तक की कहानी
दीप नारायण सिंह का जन्म जमींदार तेज नारायण सिंह के घर 26 जनवरी 1875 को हुआ था. दीप बाबू की प्रारंभिक शिक्षा कलकत्ता के एक अंग्रेजी स्कूल में हुई. कालेज की शिक्षा सेंट जेवियर्स कालेज में हुई. 16 वर्ष की उम्र में उच्च शिक्षा के लिए उन्हें लंदन भेज दिया गया. वहीं से बैरिस्टरी पास करने के बाद लंदन की अदालत में ही उन्हें काम मिल गया था लेकिन देश प्रेम के कारण वे अपने देश लौट आए. देश लौटने के बाद वे स्वतंत्रता आंदोलन में कूद गए. वे संयुक्त बिहार-बंगाल के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रिम पंक्ति के नेताओं में एक थे. उन्होंने किसानों और श्रमिकों की आर्थिक व सामाजिक दशा सुधारने और शिक्षा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
- दीप नारायण सिंह से दीप बाबू और ‘बिहार केसरी’ बनने की कहानी
- महात्मा गांधी के साथ देश की आजादी के लिए किया आंदोलन
- कांग्रेस से था खास लगाव और अंत तक कांग्रेसी ही रहे
- लंदन की पढ़ाई, दीप बाबू को रास न आयी
- लंदन से लौटे और स्वतंत्रता की लड़ाई में कूदे
- किसानों और श्रमिकों की दशा सुधारने में अहम भूमिका निभाई
भारत में 1930 का राजनैतिक इतिहास सरकार की नीतियों के खिलाफ एक खतरनाक दिशा की ओर मुड़ने वाला था. कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक युद्ध सा घोषित कर दिया था जिसे सरकार ने भी पूर्ण शक्ति के साथ दबाने का प्रयास किया. इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण वातारण आंदोलित हो उठा और 6 अप्रैल 1930 को नमक सत्याग्रह के रूप में जाग उठा. बिहार में तो आन्दोलन पहले से ही गर्म था. फरवरी 1930 में राजेन्द्र प्रसाद ने अहमदाबाद कांग्रेस से वापस लौटने के साथ पटना में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के मुख्य मुद्दों पर अपना विचार प्रकट किया. फिर 31 मार्च से 3 अप्रैल तक जवाहरलाल नेहरू ने सारण, चंपारण और मुज़फ्फरपुर की यात्रा की और अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक 50 हजार कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस को सहयोग देने के लिए अपना नाम दर्ज कराया. 12 मार्च 1930 के सवेरे 78 स्वय सेवकों के साथ महात्मा गांधी ने का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दीप नारायण सिंह को सौंप दी थी. 5 जुलाई 1930 को राजेन्द्र प्रसाद छपरा में गिरफ्तार कर लिए गए. अब बिहार में सत्याग्रह आन्दोलन की पूरी जिम्मेदारी दीप नारायण सिंह पर थी. हसन इमाम जो अबतक विदेशी वस्त्रों का समर्थन कर रहे थे वह भी आन्दोलन में कूद पड़े. उन्हें दीप नारायण सिंह का उत्तराधिकारी के रूप में मनोनीत करने की बात चल रही थी.
- अंग्रेजों के कर दिए थे दांत खट्टे
- कांग्रेस ने भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ छेड़ दिया था ‘युद्ध’
- ‘बिहार केसरी’ दीप बाबू ने पूरे बिहार का किया था नेतृत्व
दीप नारायण सिंह 27 जुलाई 1930 को बम्बई जाते समय आरा और बक्सर गए जहां उन्होंने सत्याग्रह आन्दोलन को भड़का दिया. सरकार उनके नेतृत्व से घबडा उठी और 27 अगस्त को ही उन्हें दक्षिण अफ्रीका के स्वामी भवानी दयाल और अन्य कांग्रेस सदस्यों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. दीप नारायण सिंह की गिरफ्तारी के बाद बिहार में हलचल सी मच गयी. तुरंत कांग्रेस में छह हिन्दुओं और छह मुसलानों की एक नई कमिटी बनाई गयी जिसमें पटना के अब्दुल बारी भी थे. इस गिरफ्तारी के विरोध में सम्पूर्ण प्रान्त में हड़ताल मनाया गया. सितम्बर में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के सचिव गोविन्द वल्लभ पन्त बिहार आये और कई जगहों पर सभाएं आयोजित कर दीप नारायण सिंह की गिरफ्तारी की आलोचना की. दीप नारायण सिंह को छह माह की सजा सुनाई गयी. इस समय तक दीप नारायण सिंह अपनी राजनीति के चरम पर थे. पूरा बिहार उन्हें देख रहा था और वे पूरे बिहार का नेतृत्व कर रहे थे. गिरफ्तार किये जाने के बाद सबसे पहले उन्हें दिल्ली जेल में रखा गया, फिर गुजरात और फिर वहां से हजारीबाग सेन्ट्रल जेल भेज दिया गया. दिल्ली जेल में रहते हुए भी उन्होंने एक शानदार जिन्दगी जी. इसे उन्होंने मात्र एक स्थान परिवर्तन के रूप में माना. दीप बाबू 1 फरवरी 1961 से 18 फरवरी 1961 यानि मात्र 18 दिन के लिए बिहार के सीएम रहे थे.
दीप बाबू को कांग्रेस से लगाव बचपन से था. जब वे 13 वर्ष के थे, तब वे 1888 में जार्ज शूल की अध्यक्षता में हुए इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में अपने पिता के साथ सम्मलित हुए थे. यहीं इनकी मुलाकात डा. सच्चिदानंद सिन्हा से हुई. 1901 में उन्होंने बंगाल प्रांतीय सम्मेलन में भागलपुर की अध्यक्षता की. 1905-06 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने. 1905 में स्वदेशी आंदोलन में उनकी भूमिका चरम पर थी. 1906 से 1910 तक बिहार के लगभग सभी प्रांतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की. 1908 में सोनपुर में बिहार कांग्रेस कमेटी की स्थापना इन्हीं की प्रेरणा से हुई थी. बंगाल विधान परिषद के भी वे सदस्य थे. 1909 में वे बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव बनाए गए. 1920 में दीप बाबू की मुलाकात महात्मा गांधी से हुई. इसके बाद वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. उन्हें असहयोग आंदोलन के संचालन के लिए गठित समिति के सदस्य भी बनाए गए. दीप बाबू दूर-दूर देहातों में घूम-घूमकर कोष संग्रह किया.
- दीप बाबू ने थामा कांग्रेस का दामन
- पार्टी के लिए तमाम पदों पर किया कार्य
1920 में गांधी जी शौकत अली के साथ दीप बाबू के मेहमान बने और लोगों को संबोधित किया. 1922 में देशबंधु चितरंजन दास की अध्यक्षता में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन हुआ. इस अधिवेशन में दीप बाबू मजदूरों के हित के लिए मजदूर कोषांग का प्रस्ताव पारित कराया. 1928 वे बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. डा. राजेंद्र प्रसाद की गिरफ्तारी के बाद देश में आंदोलन चलाने के लिए डिक्टेटर नियुक्त किए गए. इस दौरान वे दिल्ली में गिरफ्तार हुए. उन्हें हजारीबाग जेल भेजा गया, जहां वे चार महीने तक रहे.
Source : News State Bihar Jharkhand