दिवाली का त्योहार हम भगवान राम की याद में मानते हैं. इस दिन वो अयोध्या वापस लौट थे. हर जगह अलग अलग मान्यता होती है. लोग इसे अलग अलग तरीके से मानते हैं. लेकिन आज के इस आधुनिक युग में असली दिवाली कही खो गई है. मिट्टी के दीये के जगह इलेक्ट्रॉनिक बल्ब ने जगह ले ली हैं. ऐसे में बिहार में एक ऐसा भी जगह जहां आज भी लोग पारंपरिक तरीके से दीपावली का त्योहार मानते हैं. इस दिन आतिशबाजी पर पूरी तरह प्रतिबंध रहता है.
थारू आदिवासी आज भी पारंपरिक तरीके से मनाते हैं दीपावली
अब भी थारू आदिवासी सैकड़ों वर्ष पुराने पारंपरिक तरीके से ही दीपावली मनाते हैं. पहले दिन दियाराई और दूसरे दिन सोहराई व सहभोज के साथ वे दिवाली मनाते हैं. वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के जंगल से सटे गांवों में रहने वाले आदिवासियों की थारू जनजाति क्षेत्रों में सिर्फ और सिर्फ मिट्टी के दीप ही जलाए जाते हैं.
खुद बनाती हैं महिलाएं मिट्टी के दीये
दीपावली के दिन इन दीयों को आदिवासी महिलाएं खुद बनाती हैं. इसके लिए गांव के आसपास चिकनी मिट्टी नहीं मिलती है तो वे सुदूर जगहों से महिलाएं मिट्टी लाती हैं. फिर अपने हाथों से दीयों का निर्माण करती हैं. उसी मिट्टी के दियों को दियाराई के दिन जलाया जाता है. दियाराई के दिन शाम होने के साथ ही मिट्टी के दिए जलाए जाते हैं. गांव से बाहर किसी मिट्टी के टीले पर सभी ग्रामवासी दीप रखते हैं. इसके बाद कुएं के पास दीप रखा जाता है. इसे समृद्धि का प्रतीक माना जाता है.
आतिशबाजी पर रहता है प्रतिबंध
इस दिन आतिशबाजी पर प्रतिबंध रहता है. पर्यावरण संरक्षण और वन्यजीव की सुरक्षा को लेकर पटाखे नहीं छोड़े जाते हैं. साथ ही, आनेवाले वाली पीढ़ी को भी इस परंपरा के बारे में बताया जाता है. दिवाली के दूसरे दिन सोहराई मनाया जाता है. इसके तहत हल्दी मिट्टी का लेप तैयार कर मवेशियों को लगाया जाता है.
वर्षों पुरानी परंपरा के साथ प्राकृतिक रूप से दिवाली का त्योहार ना सिर्फ प्रकृति के लिए वरदान है बल्कि यह थरुहट इलाके में आपसी सद्भाव और एकता के लिए भी मील का पत्थर साबित हो रहा है.
Source : News State Bihar Jharkhand