बिहार की धरती की अगर बात करें तो यहां कई वीर सपूतों ने जन्म लिया है, जिन्होंने भारत मां की रक्षा में अपने प्राण निछावर कर दिए. जिनका इतिहास ऐसा था कि आज भी लोग उनकी वीरता को याद कर उन्हें नमन करते हैं. हमारे देश को आजादी दिलाने में यूं तो कई वीर योद्धाओं के नाम शामिल हैं. मगर इनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनके बारे में सोचकर आज भी हम सिहर उठते हैं. आज हम बात कर रहें है, उस योद्धा की, जिसने भारत मां की रक्षा के लिए अपने हाथ खुद ही काट दिए थे. जिन्होंने 80 वर्ष की उम्र में ना केवल अंग्रेजों के खिलाफ़ युद्ध का बिगुल बजाया बल्कि कई युद्धों में अंग्रेजों को परास्त भी किया. हम बात कर रहें हैं बिहार में जन्मे बाबु वीर कुंवर सिंह की, जिन्होंने अपनी छोटी सी रियासत के सेना के दम पर जगदीशपुर को आजादी दिलाई थी.
बचपन में खेल खेलने के बजाए युद्धा के गुण सीखे
बाबु वीर कुंवर सिंह का जन्म बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था. बचपन खेल खेलने की बजाय उन्होंने अपना बचपन घुड़सवारी, निशानेबाज़ी, तलवारबाज़ी सीखने में बीता दिया. उन्होंने मार्शल आर्ट की भी ट्रेनिंग ली थी. माना जाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद भारत में वह दूसरे योद्धा थे, जिन्हें गोरिल्ला युद्ध नीति की जानकारी थी. अपनी इस नीति का उपयोग उन्होंने बार-बार अंग्रेजों को हराने के लिए किया था.
80 वर्ष की उम्र में अंग्रजो से लिया लोहा
साल 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा, तब वीर कुंवर की आयु 80 वर्ष की थी. इस उम्र में अक्सर लोग जीवन के आखिरी पड़ाव पर आके आराम से जीना चाहते हैं. मगर वीर कुंवर के आगे उम्र कभी बाधा बनी ही नहीं, वो कहा रूकने वाले थे. उन्होंने अंग्रेजों का डटकर मुकाबला करने की जो ठान ली थी. उनके दिल में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी. उन्होंने अपने सैनिकों और कुछ साथियों के साथ मिलकर सबसे पहले आरा नगर से अंग्रेजी आधिपत्य को समाप्त किया.
बिहार के बूढ़े शेर की दहाड़ से कापते थे अंग्रेज
एक तरफ नाना साहब, तात्या टोपे डटे खड़े अंग्रेजों का लोहा ले रहे थे तो वहीं महारानी रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल जैसी वीरांगनाएं अपने तलवार का जौहर दिखा रही थीं. ठीक इसी समय बिहार में एक बूढ़े शेर की दहाड़ ने अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए थे . बाबू वीर कुंवर सिंह ने भी ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ रहे बिहार के दानापुर के क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया. साल 1848-49 में जब अंग्रेजी शासकों ने फुट नीति अपनाई, जिसके बाद भारत के बड़े-बड़े शासकों के अंदर रोष और डर जाग गया, लेकिन वीर कुंवर सिंह को अंग्रेजों की ये बात रास ना आई. वह उनके खिलाफ उठ खड़े हुए. अपने इस क्रोध को एक आग में बदलते हुए कुंवर सिंह ने दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर के साथ मिल कर अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया था .
अपनी अनोखी युद्ध नीति से 7 बार अंग्रेजों को हराया
अपने आंदोलन को मजबूती देने के लिए मिर्जापुर, बनारस, अयोध्या, लखनऊ, फैजाबाद, रीवा, बांदा, कालपी, गाजीपुर, बांसडीह, सिकंदरपुर, मनियर और बलिया समेत कई अन्य जगहों का दौरा किया. वहां उन्होंने नए साथियों को संगठित किया और उन्हें अंग्रेजों का सामना करने के लिए प्रेरित भी किया. जैसे-जैसे इन इलाकों के लोग संगठित हुए, अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह बढ़ने लगे. ब्रिटिश सरकार के लिए वीर कुंवर आंख की किरकिरी बन गए थे. अंग्रेज उनसे इतना डर गए थे कि उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति बढाई, कुछ भारतीयों को पैसे का लालच देकर अपने साथ मिला लिया लेकिन फिर भी उनके लिए वीर कुंवर से छुटकारा पाना आसान नहीं रहा. कहते हैं कि अपनी अनोखी युद्ध नीति से उन्होंने 7 बार अंग्रेजों को हराया था.
हर बार युद्ध में अपनाते थे नयी नीति
एक बार उनकी सेना अंग्रेजों के आक्रमण के वक़्त पीछे हट गई और अंग्रेजों को लगा कि वे जीत गए, लेकिन यह वीर कुंवर की युद्ध नीति थी क्योंकि जब अंग्रेज सेना अपनी जीत के नशे में उत्सव मना रही थी. तब उन्होंने अचानक से उनकी सेना पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण से चौंके ब्रिटिश सिपाहियों को संभलने का मौका तक नहीं मिल पाया . इसी तरह हर बार एक नयी नीति से वह अंग्रेजों के होश उड़ा देते थे.
तलवार से अपनी हाथ काट डाली
1958 में जगदीशपुर के किले पर अंग्रेजों का झंडा उखाड़कर अपना झंडा फहराने के बाद बाबू वीर कुंवर सिंह अपनी पलटन के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से गंगा कशतियों में नदी पार कर रहे थे. इस बात की भनक अंग्रेजों को लग चुकी थी और उन्होंने मौका देखते हुए बिना किसी सूचना के वीर कुंवर सिंह को घेर लिया और उनपर गोलीबारी करने लगे. इस मुठभेड़ में एक गोली उनके दाहिने हाथ में आकर लगी, लेकिन उनकी तलवार नहीं रुकी. कुछ समय बाद जब उन्हें लगा कि गोली का जहर पूरे शरीर में फ़ैल रहा है तो इस वीर सपूत ने अपना हाथ काटकर ही गंगा नदी में फेंक दिया. इसके बाद भी वह एक ही हाथ से अंग्रेजों का सामना करते रहे.
घायल अवस्था में होने के बावजूद भी उनकी हिम्मत नहीं टूटी और ना ही वह अंग्रेजों के हाथ आए. उनकी वीरता को देखते हुए एक ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा था कि ‘यह गनीमत थी कि युद्ध के समय उस कुंवर सिंह की उम्र 80 थी. अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता.'
23 अप्रैल 1858 को वह अंग्रेजों को धूल चटा कर अपने महल में वापिस लौटे, लेकिन उनका घाव इतना गहरा हो चुका था कि वह बच ना सके. 26 अप्रैल 1858 को इस बूढ़े शेर ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
आज अगर हम अपने घर में आराम से बैठे हैं, चैन की सास ले रहें है तो इन्हीं वीर सपूतों की वजह से. जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना जीवन ही भारत मां को समर्पित कर दिया, अपनी आखिरी सास तक लड़ते रहें. बिहार के इस बूढ़े शेर का नाम इतिहास के पन्नो में सवर्ण अक्षरों में दर्ज़ है.
Source : News Nation Bureau