देश की आजादी में कई लोगों ने अपनी आहुति दी थी. जिन्हें याद करने का आज दिन है. इनमें से ही एक थे वीर योद्धा जो हस्ते - हस्ते फांसी पर चढ़ गए थे. हम बात कर रहें हैं सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु की जिन्हें अंग्रेजों दौरा फांसी दी गई थी, लेकिन इनकी फांसी का कारण अपने देश का ही एक गद्दार था. जिस के अदालत में दिए बयान पर देशभक्तों को फांसी की सजा हुई थी. उसे भी क्रांतिकारियों ने मौत के घाट उतार दिया था. वह भी तब जब वह अंग्रेजों के संरक्षण में वो था. इस मिशन को सफलतापूर्वक बैकुंठ शुक्ल ने पूरा किया था, जो बिहार वैशाली जिले के निवासी थे .
बैकुंठ शुक्ल ने नहीं किया अपना कोई बच्चा
15 मई 1907 को बैकुंठ शुक्ल का जन्म वैशाली जनपद के जलालपुर गांव में हुआ था. बैकुंठ शुक्ल ने अपने पिता राम विहारी शुक्ल और दादा मुन्नू शुक्ल के सानिध्य में अपना बचपन बिताया था. स्थानीय स्कूल से इनकी पढ़ाई पूरी हुई थी. दसवीं तक कि पढ़ाई के बाद 1927 को इनकी शादी शारण के गड़खा निवासी चक्रधारी सिंह की पुत्री राधिका देवी से हो गई थी. दोनों पति पत्नी के विचार एक समान थे. दोनों ही देश की आजादी के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे. देश भक्ति में कितने लीन थे इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया सकता है कि इन दोनों ने अपना कोई बच्चा नहीं किया. देश के तमाम बच्चों को अपना बच्चा मानते थे.
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आजादी की लड़ाई में ऐसे कूदे थे बैकुंठ शुक्ल
कहा जाता है कि किशोरी प्रसाद सिंह से गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में इनकी मुलाकात हुई थी. जिसके बाद ये खुलकर स्वतंत्रता की लड़ाई में हिस्सा लेने लगे. अपनी पत्नी को भी प्रेरित कर अपने साथ शामिल कर लिया. जिसके बाद दोनों ने कई आंदोलनों में संजुक्त रूप से भाग लिया. बताया जाता है कि 1929 के उत्तरार्ध में चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और योगेंद्र शुक्ल बिहार आए थे. बेतिया के जंगल में निशाना लगाने का अभ्यास करने तब भगत सिंह कुछ दिन हाजीपुर गांधी आश्रम में रुके थे. तब नए दिलेर और बहादुर क्रांतिकारियों की अंदरूनी खोज चल रही थी. तब बैकुंड शुक्ल को नए क्रांतिकारी के रूप में इस दल से जोड़ा गया था. आगे चलकर बैकुंठ शुक्ल सरदार भगत सिंह आजाद और राजगुरु के सहभागी बने और क्रांतिकारी गतिविधियों में खुलकर भाग लेने लगे.
देश के गद्दार को उतारा था मौत के घाट
असेंबली में बम विस्फोट मामले में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फनींद्र बोस के बयान पर फांसी की सजा दी गई थी. 23 मार्च 1931 को तीनों क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गई थी. जिसके बाद फनींद्र बोस बिहार के बेतिया में छूप गया था. तब क्रांतिकारियों का पैगाम आया था कि 'दाग ढोना है या धोना है" और फिर हाजीपुर के गांधी आश्रम में गोटी उछाल कर दाग को धोने का जिम्मा बैकुंठ शुक्ल को दिया गया था. 9 नवंबर 1932 को बेतिया के मीना बाजार में सरकारी संरक्षक में सुरक्षित दुकान फणीन्द्र बोस चला रहा था. तब बैकुंठ शुक्ल मौके पर एक साथी के साथ पहुंचे थे और पलक झपकते ही धारदार हथियार से उसकी हत्या कर दी थी. जिसके बाद मौके से बरामद धोती और अन्य सामान से पहचान कर अंग्रेजों ने बैकुंठ शुक्ल गिरफ्तार कर लिया था.
फांसी की सजा की पहली रात भर देश भक्ति के गीत गाते रहें
बैकुंठ शुक्ल को 14 मई 1934 को सुबह 5 बजे गया सेंट्रल में फांसी की सजा दी गई थी. फांसी की सजा के पहले 13 मई को रात भर वो देशभक्ति के गीत गाते रहें. अन्य कैदियों ने भी रात में खाना नहीं खाया था.उनकी बातें, उनकी सोच, उनकी विचारधारा से प्रभावित होकर कैदियों ने 13 मई कि रात भूखे रहने का फैसला किया था.
शहीद बैकुंठ शुक्ल को भूल गई बिहार सरकार
शहीद बैकुंठ शुक्ल और उनकी पत्नी राधिका देवी जिस कमरे में रहते थे वहां आज गंदगी का अंबार लगा हुआ है. पूरे गांव में आलीशान मकान जरूर बन गए हैं, लेकिन शहीद का आशियाना बेहद बुरी हालत में है. स्थानिए ग्रामीण, सरकार और ना ही आम जनप्रतिनिधि ने ही शहीद बैकुंठ शुक्ल के लिए एक स्मारक भी बनवा सके हैं. जिससे आने वाली पीढ़ी उनकी शहादत को याद कर सके.
HIGHLIGHTS
- बैकुंठ शुक्ल ने अपना कोई बच्चा नहीं किया
- देश के बच्चो को मानते थे अपना
- आजादी की लड़ाई में ऐसे कूदे थे बैकुंठ शुक्ल
- देश के गद्दार को उतारा था मौत के घाट
- फांसी की सजा की पहली रात भर देश भक्ति के गीत गाते रहें
- शहीद बैकुंठ शुक्ल को भूल गई बिहार सरकार
Source : News State Bihar Jharkhand