एक समय था जब कोसी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती होती थी. कोसी के इन इलाकों से हर दिन चीनी मिल तक गन्ने की रैक पहुंचती थी. कोसी के सहरसा क्षेत्र के खेतों में पहले गन्ने की फसल लहलहाती थी. खेत में गन्ने लहलहाते थे और किसानों के घर में इस फसलों से खुशियां बरसती थी. गन्ने की खेती के बल पर यहां के किसान बच्चों की पढ़ाई से लेकर बेटी के हाथ पीले करने तक की योजना बनाते थे, जीविका का ये ये सबसे बड़ा जरिया था लेकिन अब हालात बदल गये हैं.
बीते दो सालों में किसानों का गन्ना की खेती से मोह भंग होने लगा है. परेशानियों की वजह से कोसी के इन इलाकों में गन्ने की खेती भी थम गई है. बीते दो सालों में गन्ने की फसलों पर कीड़े का प्रकोप बढ़ गया है. हाल ये है कि खेती की लागत भी ये किसान नहीं निकाल पाते हैं. आमदनी तो बहुत दूर की बात है गन्ने की फसल में कीड़ा लगने से जीविका चलाना तक मुश्किल हो गया है.
लागत अधिक और फायदा कम होने से किसानों का गन्ने की खेती से मोह भंग हो रहा है. हालांकि कोसी क्षेत्र के मुख्यालय सहरसा में कृषि विज्ञान केंद्र की स्थापना भी की गई, लेकिन जिस मकसद से कृषि विज्ञान केंद्र की स्थापना की गई वो मकसद किसानों तक पहुंचते-पहुंचते मौन हो गया. इसके लिए कृषि विभाग के अधिकारी किसानों को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. अधिकारी कहते हैं कि जानकारी के अभाव में किसान गन्ना की फसलों पर गलत कीटनाशक का इस्तेमाल कर रहे हैं. जिससे किसानों को घाटा हो रहा है, लेकिन सवाल है कि बदहाल किसान को संभालने की जिम्मेदारी किसकी है? गन्ने की फसलों में कीड़े लग रहे हैं, लेकिन किसानों को जागरूक नहीं किया जा रहा है. लागत ज्यादा और पैदावार कम होने से किसानों को परेशानी हो रही है.
यहां गन्ने की खेती बीमारियों की बलि चढ़ गई है. कृषि अधिकारी अपनी नाकामी छिपाने के लिए जिम्मेदार किसानों को ही ठहरा रहे हैं, लेकिन तमाम पहलुओं से ऊपर उठकर किसानों के हित में काम करना होगा. वो गुड़, जिसकी खुशबू से सीमांचल की पहचान हुआ करती थी उसे फिर वापस लाना होगा.