ढोल, नगाड़ा या अन्य पारंपरिक वाद्य यंत्रों की थाप पर थिरकते छत्तीसगढ़ के वनवासियों की तस्वीर सुकून देने वाली होती है. लेकिन आप यह जानकर हैरान होंगे कि वनांचल के कई पारंपरिक वाद्ययंत्र विलुप्त होने की कगार में है. हालांकि प्रदेश के कुछ संगीत प्रेमी इसे सहेजने के लिए भी काम कर रहे हैं. इसी कड़ी में प्रदेश की संगीतकार संजू सेन ने वाद्ययंत्रों को इकट्ठा कर रखा है. संजू सेन ने बस्तर, सरगुजा, सुकमा, दंतेवाड़ा, रायगढ़ जैसे जगह पर रह कर विलुप्त होते वाद्ययंत्रों को इकट्ठा किया है.
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संग्राहक संजू सेन से न्यूज़ नेशन से खास बातचीत की, इस दौरान उन्होंने बताया कि मेरी तीन पीढ़ी संगीत से जुड़ी है. दादा और पिता तबला वादक थे. इस आधुनिकता के युग में धीरे-धीरे लोक वाद्ययंत्र विलुप्त होते जा रहे हैं. विश्वभर से लोग आज छत्तीसगढ़ घूमने आते हैं. यहां की लोक संस्कृति, लोक नित्य और यहां की परंपरा को आज पूरे विश्व में पसंद किया जा रहा है. इन्हीं बातों से प्रेरणा लेकर कोविड के दौरान संजू सेन ने राज्य के विभिन्न जिलों में जाकर वाद्ययंत्रों को इकट्ठा करना शुरू किया. कोविड के 2 सालों में संजू ने 130 से अधिक वाद्य यंत्रों को इकट्ठा किया है. खास बात यह है कि 70 से ज्यादा वाद्ययंत्र को मिट्टी बांस और लकड़ी से बनाया गया है.
संजू सेन कहते हैं की उनके पास 130 से ज्यादा वाद्ययंत्र रखे हैं. जिसमें प्रमुख वाद्य यंत्रों में सिंह बाजा, दोहरी बांसुरी, गोपी बाजा, एकतारा, खजेरी, तंबूरा, नागदा, देव नागदा, मारनी ढोल, माड़िया ढोल, अकुम, तोड़ी, तोरम, मोहिर, धुरवा ढोल, मांदरी, चरहे, मिरगीर ढोल, देव मोहिर है.... इनमें से ज्यादातर वाद्ययंत्रों का आम संगीत प्रेमी ही नहीं बल्कि संगीत में रुचि रखने वाले लोग भी शायद नाम नहीं जानते होंगे. 70 से ज्यादा वाद्ययंत्र को खुद मट्टी, बांस और लकड़ी से बनाया है. यंत्रों के माध्यम पक्षियों की आवाज निकालने में भी संजू माहिर है. जिन वाद्ययंत्रों को खुद संजू ने इकट्ठा किया है, उसमें से लगभग सभी वाद्य यंत्र खुद बजाते हैं. वाद्य यंत्रों के माध्यम से शेर की दहाड़ से लेकर कोयल, मोर, तोता, उल्लू सहित 10 तरह की पक्षियों की आवाज भी संजू निकालते हैं. खास बात तो यह है कि यह वाद्य यंत्र देखने वाले भी भौचक्के है, इन्होंने इसके पहले कभी वनवासी वाद्य यंत्रों के नाम भी नहीं सुने.