ये मेरे शहर को आखिर क्या हुआ चारों तरफ लाशें ही लाशें. कुछ इसी तरह के अल्फाज इन दिनों भोपाल वासियों के जुबां पर हैं. एक मंजर तब था, जब सन् 1984 में भोपाल गैस त्रासदी का तंज शहर के कई लोगों ने सहा था. न जाने कितने लोगों की लाशें लोगों की आंखों के सामने थी, जहां श्मशान घाट पर एक साथ कई शवों को जलाया जाता था. तो वहीं एक साथ ही कई कब्रो में मुर्दों को दफनाया भी जाता था. लेकिन ऐसा किसी ने नहीं सोचा था कि 36 साल बाद एक बार फिर से ऐसा ही मंजर लोगों की आंखों के सामने आएगा. जहां श्मशान घाट में जलने वालों की लाइन होगी तो वहीं दफनाने के लिए जमीन भी कम पड़ेगी.
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बस अगर इनमें कुछ बदला है, तो वह यह की गैस कांड का मंजर सिर्फ भोपाल के लिए था, लेकिन कोरोना का यह खतरनाक मंजर भोपाल ही नहीं, मध्यप्रदेश ही नहीं और देश ही नहीं पूरे विश्व के लिए है. कोरोना की लहर बेलगाम है. नए कोरोना मामलों के अलावा अब मौत के आंकड़ों में भी भारी उछाल देखने को मिल रहा है, जिससे कारण शमशान घाट और क्रबिस्तान में भारी संख्या में शवों को लाने का सिलसिला जारी है.
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भोपाल के कब्रिस्तान की अगर बात की जाए तो यहां पर 2 गज की जमीन के लिए अब अलग से प्रशासनिक मदद लेने की जरूरत पड़ गई है. क्योंकि रोजाना यहां कोरोना से मरने वाले 8 से 12 लोगों की लाश आती है, जिसके बाद कब्रिस्तान में जगह धीरे-धीरे कम पड़ती जा रही हैं. उधर, पठार इलाकों में खुदाई करते-करते मजदूरों के हाथों में छाले पड़ गए हैं. जिसके लिए जेसीबी का भी सहारा लेना पड़ रहा है. उधर, श्मशान घाटों में पड़ी जगह कम तो रिहायशी इलाके में अघोषित श्मशान घाट बनाए जा रहे हैं. नीलबड़ के हरिनगर में चबूतरा बना कर लाशें जलाई जा रही हैं. लाशों के जलने से लोग दहशत में हैं.
HIGHLIGHTS
- भोपाल में कोरोना वायरस का कहर
- श्मशान घाटों में कम पड़ी जगह
- 36 बाद अब फिर खौफनाक मंजर