झाबुआ के आदिवासी बच्चों ने फोटोग्राफर बनने लिए थामा कैमरा

'आदिवासी' शब्द सुनते ही पिछड़े, अनपढ़ और पुरातनपंथी होने की तस्वीर आंखों के सामने उभर आती है, मगर मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के आदिवासियों की नई पीढ़ी इस तस्वीर को झुठलाती नजर आती है, क्योंकि यहां के बच्चे न केवल पढ़ाई कर रहे हैं, बल्कि अपने भविष्य को भी बेहतर बनाने की कोशिश में हैं.

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Yogendra Mishra
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झाबुआ के आदिवासी बच्चों ने फोटोग्राफर बनने लिए थामा कैमरा

प्रतीकात्मक फोटो।( Photo Credit : IANS)

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'आदिवासी' शब्द सुनते ही पिछड़े, अनपढ़ और पुरातनपंथी होने की तस्वीर आंखों के सामने उभर आती है, मगर मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के आदिवासियों की नई पीढ़ी इस तस्वीर को झुठलाती नजर आती है, क्योंकि यहां के बच्चे न केवल पढ़ाई कर रहे हैं, बल्कि अपने भविष्य को भी बेहतर बनाने की कोशिश में हैं. यही कारण है कि यहां के बच्चों ने हाथ में कैमरा थामकर फोटोग्राफर बनने का हुनर सीखना शुरू कर दिया है.

राजधानी से लगभग 400 किलोमीटर की दूरी पर है झाबुआ के मेघनगर कस्बे का गोपालपुरा गांव. यह गांव है तो अन्य गांवों की तरह ही, मगर यहां के बच्चे कुछ अलग हैं. इनमें अपने भविष्य की चिंता है और अपनी बात कहने में किसी तरह की झिझक नहीं है. इतना ही नहीं, उनकी आंखों की चमक इस बात की गवाही देती नजर आती है कि अगर उन्हें मौका मिले तो वे भी कुछ कर गुजरने में पीछे नहीं रहेंगे.

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गोपालपुरा में रहने वाली और 12वीं में पढ़ने वाली शीला डामोर अपने कुछ साथियों के साथ कैमरे से खेलती नजर आती है. पहली नजर में तो ऐसा लगता है, मानो खिलौना वाला कैमरा है, मगर उसके पास जाने पर संशय खत्म हो जाता है, क्योंकि वह वास्तविक कैमरा होता है.

शीला बताती है कि उसे और उसके साथियों को फोटोग्राफी का प्रशिक्षण दिया गया है. प्रशिक्षण के बाद से वे अपनी मांदल टोली (बच्चों के दल) के साथ गांव और आसपास के क्षेत्र में जाकर फोटोग्राफी करते हैं. कई बार तो उन्हें लोग अपने पारिवारिक कार्यक्रमों में भी फोटो खींचने के लिए बुलाते हैं.

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इन आदिवासी बच्चों को यूनिसेफ और वसुधा विकास संस्थान ने फोटोग्राफी का प्रशिक्षण दिया है. प्रशिक्षण पा चुके पिंकी बारिया, बबलू डामोर, संजू डामोर, सुनील डामोर ज्योति धाक, ज्योति निमामा का कहना है कि अब गांव और आसपास के लोगों को किसी आयोजन की तस्वीरें खिंचवाने के लिए फोटोग्राफर बुलाने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि टोली के सदस्य शादी समारोह हो या किसी अन्य आयोजन में जाकर फोटो खींचते हैं. इससे फोटो खिंचवाने के गांव के लोगों का शौक कम खर्च में पूरा हो जाता है.

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बच्चों का कहना है कि फोटोग्राफी सीखने से जहां एक ओर उनके भीतर आत्मविश्वास बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर आने वाले समय में उनके लिए रोजगार की समस्या नहीं होगी क्योंकि फोटोग्राफी उनकी आजीविका का जरिया भी बन सकती है.

वसुधा विकास संस्थान की निदेशक गायत्री परिहार का कहना है, "आज के समय में बच्चों को नए-नए नवाचार, लाइफ स्किल सिखाना बहुत आवश्यक है, ताकि बच्चे अपने अधिकारों को तो समझें ही, साथ में आजीविका के विकल्प भी अपनी रुचि के अनुसार चुनें. यही प्रयास मांदल परियोजना में यूनिसेफ के सहयोग से किया गया, जिसमें फोटोग्राफी एक विकल्प के रूप में आदिवासी बच्चों के लिए निकल कर आया और बच्चों ने बहुत ही खुशी-खुशी बढ़-चढ़कर इसमें हिस्सा लिया और इस कार्य को वे निरंतर अपने क्षेत्र में कर रहे हैं."

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आदिवासी बच्चों के फोटोग्राफर बनने की अभिरुचि पर यूनिसेफ के संचार विशेषज्ञ अनिल गुलाटी का कहना है कि किशोरों का फोटोग्राफी का कौशल सीखना और इसके माध्यम से अपने भाव साझा करने के लिए यह बहुत अच्छा है. यह हुनर आने वाले समय में इनके लिए लाभदायक होगा.

आदिवासियों के बीच काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता और मप्र सवरेदय मित्र मंडल के प्रदेश संयोजक मनीष राजपूत का कहना है कि आदिवासी वर्ग को समाज से अलग मानना ही गलत है, इनके भीतर भी बेहतर जीवन जीने की ललक है, उनके बच्चे भी आगे बढ़ना चाहते हैं, झाबुआ के बच्चों को अवसर मिला तो वे फोटोग्राफर बनने निकल पड़े हैं.

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मांदल टोली के बच्चो की उम्र भले ही 12 से 16 साल के बीच की हो, मगर वे कैमरे की बारीकियों से पूरी तरह वाकिफ हैं. फोटो खींचने की प्रक्रिया में उनकी दक्षता को बातचीत में ही समझा जा सकता है. आने वाले दिनों में उनकी तस्वीरें अगर विभिन्न प्रदर्शनियों में भी नजर आएं तो अचरज नहीं होगा.

Source : आईएएनएस

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