यूं तो बीजेपी की परंपरा रही है कि वो पंचायत औऱ नगर निगम का लोकल चुनाव भी पूरे तामझाम औऱ सिस्टम के साथ लड़ती है, एमपी में हो रहे उपचुनाव में बीजेपी के आक्रामक अंदाज़ को भी इसी रणनीति से जोड़ा जा सकता है. लेकिन कुछ तो है, जो इस बार एमपी के उपचुनावों में अलग है. इस मायने में भी कांग्रेस पिछले साल हुए 28 सीटों के उपचुनाव में चारों खाने चित हो गई थी औऱ उसका मोराल डाउन है, लेकिन बीजेपी इस तथ्य के बावजूद एक लोकसभा और तीन विधानसभा के लिए 30 अक्टूबर को होने वाले उप चुनाव को हल्के में नहीं ले रही है. पहले इस अवधारणा के समर्थन में तथ्य पर गौर कर लेते हैं, कि उपचुनाव वाली विधानसभा की तीन में से दो सीटों पर बीजेपी ने ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जो चुनाव के ऐन पहले बीजेपी में शामिल हुए हैं. पार्टी काडर को दरकिनार करते हुए बीजेपी ने जिताऊ उम्मीदवार की तलाश में जोबट से कांग्रेस की नेता सुलोचना रावत को पहले बीजेपी में शामिल कराया औऱ पार्टी में आने के एक सप्ताह के भीतर ही उन्हें उम्मीदवार भी बना दिया.
इसीतरह निवाड़ी जिले की प्रथ्वीपुर सीट से बीजेपी ने पिछले चुनावों में समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके शिशुपाल यादव को उम्मीदवार बनाया. यह दोनों ही सीटें 2018 में कांग्रेस के खाते में गईं थी औऱ दोनों की जगह पर जीते कांग्रेस के विधायकों ब्रजेंद्र सिंह राठौर औऱ कलावती भूरिया के कोराना से हुए निधन के बाद खाली हुई थीं. दोनों जगह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर ही इन उम्मीदवारों को टिकट मिला है. इसीतरह खंडवा लोकसभा उप चुनाव में इस बार बीजेपी ने ज्ञानेश्वर पाटिल को टिकट देकर इस सीट से सांसद रहे नंदकुमार सिंह चौहान के परिवार की दावेदारी को अनदेखा किया. हालांकि यहां सीएम की पसंद हर्षवर्धन चौहान को ही माना जा रहा है, लेकिन लगता है विधानसभा उपचुनाव की बाकी सीटों पर सीएम की पसंद के उम्मीदवार दिए जाने के चलते यहां सीएम की मर्जी से इतर पाटिल को मौका मिल गया.
खैर यह बात टिकट औऱ रणनीति की हुई, लेकिन इस नई परंपरा के मायने क्या हैं, क्यों बीजेपी ने उपचुनाव में अपने स्थानीय नेता और काडर के मुकाबले बाहरी उम्मीदवारों को टिकट के लायक समझा. क्यों सीएम ने तीन विधानसभा उपचुनावों को अपनी नाक का सवाल बना लिया है.
इसे समझने के लिए पिछले तीन साल में एमपी की राजनीति मे हुए सियासी घटनाक्रम औऱ समीकरणों के बदलाव को देखना होगा. 2018 में बीजेपी की सत्ता से विदाई हुई तो अगले 5 साल तक वापसी की उम्मीद नहीं थी. लेकिन अप्रत्याशित तौर पर ज्योतिर्रादित्य सिंधिया का बीजेपी में शामिल होना औऱ उनके साथ आए विधायकों की वजह से कमलनाथ सरकार का तख्तापलट होना, एमपी की राजनीति के कई समीकरण बदल गया. शिवराज सिंह चौहान फिर से सीएम बने औऱ इसके बाद हुई 28 सीटों के उपचुनाव में बीजेपी की जीत से सरकार सुरक्षित बहुमत में भी आ गई. इस पूरे घटनाक्रम के बीच बीजेपी की अंदरूनी राजनीति के समीकरण भई बदले हैं, सिंधिया की एंट्री ने बीजेपी की भीतरी राजनीति में एक औऱ गुट खड़ा कर दिया है। सिंधिया के साथ कांग्रेस से टूटने वाले 22 विधायकों के बाद अगर गौर करें तो करीब 10 औऱ विधायक रहे हैं, जो कांग्रेस से छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए हैं. इसके मायने इस तरह निकाले जा सकते हैं कि बीजेपी या यूं कहें कि शिवराज सिंह चौहान बिल्कुल नहीं चाहते कि उनकी यह सरकार सिंधिया समर्थक विधायकों की बैसाखी पर टिकी नज़र आए, साथ ही वो सरकार में अपने समर्थक विधायकों की संख्या बढ़ाने में भी कामयाब हुए हैं.
इस चुनाव में भी अगर बीजेपी को तीनों विधानसभा की सीटों पर हार मिलती है, तो सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन अगर बीजेपी को जीत मिलती हैं, तो शिवराज सिंह चौहान पार्टी की भीतरी राजनीति में औऱ मजबूत होंगे, बाकी खासियतें तो उनके साथ हैं हीं.
Source : Kapil Sharma