पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र की राजनीति ने देश में सियासत का एक ऐसा संदेश देने की कोशिश की है, जिसने विचारधारा, दल और धड़ों को...मतलब और मौकापरस्ती में बांट कर रख दिया. सिद्धांतों और विचारों की राजनीति में सालों तक अलग-अलग राह पर चलने वाले सियासतदां अचानक से एक साथ आ गए. कभी ऐसे गठबंधन बने...कि तड़के ही शपथ ले ली गई, तो कभी सियासत के बाजार में ऐसे सौदे हुए कि सगे रिश्ते भी तार-तार हो गए...न्यूज नेशन एक्सप्लेनेशन में आज बात महाराष्ट्र के सियासी समीकरणों की. अक्टूबर 2019 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन ने मिलकर चुनाव लड़ा था. उधर यूपीए की तरफ से कांग्रेस और एनसीपी के बीच गठबंधन था. राज्य की 288 सीटों से बहुमत के लिए किसी भी गठबंधन को 145 सीटों की दरकार थी. नतीजे आए तो बीजेपी ने 105 और अविभाजित शिवसेना ने 56 सीटों पर जीत दर्ज की. वहीं एनसीपी के खाते में 54 और कांग्रेस को 44 सीटों से संतोष करना पड़ा. मतलब साफ था कि एनडीए को पूर्ण बहुमत मिल चुका था, लेकिन मुख्यमंत्री कौन बने इसे लेकर विवाद छिड़ गया. शिवसेना अपना मुख्यमंत्री बनाने पर अड़ गई. वहीं बीजेपी भी ज्यादा सीटों का दावे करते हुए अपना सीएम बनाने की बात कहती रही. नतीजा ये रहा कि चुनाव परिणाम आने के बाद भी राज्य में नई सरकार का गठन नहीं हो सका. लेकिन 23 नवंबर को अचानक खबर आई कि राजभवन में मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण हो रहा है, बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे हैं और एनसीपी के अजित पवार डिप्टी सीएम बनाए गए. टीवी पर इस खबर के चलते ही पूरे देश की सियासत में भूचाल आ गया.
ढाई साल तक चली महा अघाड़ी की सरकार
कांग्रेस के साथ महाराष्ट्र और केंद्र में दो बार सरकार बनाने वाली एनसीपी अचानक से कैसे बीजेपी के साथ मिल गई? ये दाग पार्टी प्रमुख शरद पवार के राजनीतिक करियर पर लग चुका था. शरद पवार ने तुरंत प्रेस को बुलाया और सभी विधायकों को अपने यहां बुला लिया. 5 दिन बाद ही बीजेपी और एनसीपी के गठबंधन की ये सरकार गिर गई. फडणवीस ने खुद को अजित पवार के जरिए ठगा हुआ बताते हुए इस्तीफा दे दिया. इसके बाद महाराष्ट्र में एक नया गठबंधन बना. ये ऐसा गठबंधन था मानों नदी के दो किनारे एक साथ मिल गए हों. ये गठबंधन था शिवसेना-कांग्रेस और एनसीपी के बीच. तीनों दलों ने मिलकर एक कॉमन मिनिमम प्रोगाम पर हामी भर दी. राज्य की कमान शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को सौंप दी गई. ये सरकार 2 साल 214 दिन तक चली, लेकिन फिर नया झोल हो गया. शिवसेना के 56 में से करीब 40 विधायक लेकर पार्टी नेता एकनाथ शिंदे अलग हो गए. शिंदे का दावा था कि उद्धव ठाकरे कांग्रेस से गठबंधन खत्म कर बीजेपी के साथ आए, नहीं तो हम सरकार गिरा देंगे. उद्धव इसके लिए तैयार नहीं हुए. काफी दिन तक चले इस सियासी घटनाक्रम के बाद उद्धव ठाकरे को पद से इस्तीफा देना पड़ा. नतीजे ये हुआ कि शिवसेना दो फाड़ हो गई. शिंदे गुट ने बीजेपी के समर्थन दे दिया और एकनाथ शिंदे खुद सीएम बन गए. 30 जून 2022 को एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने, सीएम बनने के बाद शिंदे ने उद्धव ठाकरे से पार्टी भी छीन ली और चुनाव निशान भी. शिंदे मजबूती के साथ महाराष्ट्र की राजनीति की नई धुरी बन चुके थे. लेकिन इस बीच फिर एक नया झोल हो गया, अब बारी थी एनसीपी के असंतोष धड़े के नेता और शरद पवार के भतीजे अजित पवार की.
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अजित पवार ने अपने चाचा को दिया चकमा
शरद पवार ने जैसे ही एनसीपी का कार्यकारी अध्यक्ष अपनी बेटी सुप्रिया सुले और पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रफुल पटेल को बनाया, अजित पवार का पार्टी से मन खट्टा होने लग गया. अजित ने थोड़े दिन बाद ही अपना नया सियासी दांव चला, लेकिन इस बार अजित पवार ने 2019 वाली गलती बिलुकल नहीं की. उन्होंने सबसे पहले एनसीपी के दो सबसे बड़े नेताओं को अपने पाले में लिया. ये नेता थे छगन भुजबल और प्रफुल पटेल. इन दोनों नेताओं को अपने खेमे में लेने के बाद 2 जुलाई को अजित पवार ने बीजेपी-शिवसेना सरकार को समर्थन दे दिया और तुरंत महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम की शपथ ले ली. ये मौका कुछ अलग था. इस बार एनसीपी के 8 विधायकों ने मंत्री पद की शपथ ली. शपथ लेने में वालों में छगन भुजबल भी थे. वहीं शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए कार्यकारी अध्यक्ष प्रफुल पटेल भी पहुंचे थे. राजनीति के जानकारों का कहना है कि इसके लिए शरद पवार की हरी झंडी थी, लेकिन शरद पवार ने साफ कहा कि ये धोखेबाजी है. पार्टी ने 45 विधायकों को अपने साथ होने का दावे करने वाले अजित ने अब चाचा के खिलाफ खुला मोर्चा खोल दिया था. कुछ दिनों बाद शरद पवार ने विधायकों की बैठक बुलवाई, वहीं अजित पवार धड़े ने भी विधायकों को एक मीटिंग में आने के लिए कहा. लेकिन जब गिनती हुई तो साफ हो गया कि शरद पवार एनसीपी पर पूरी तरह से कंट्रोल खो चुके थे. शरद पवार की बैठक में मात्र 10 विधायक पहुंचे थे वहीं अजित की मीटिंग में 40 विधायकों के पहुंचने की जानकारी सामने आई.
महाराष्ट्र में कांग्रेस के अच्छे दिन
अब जहां एनसीपी और शिवसेना दलों का संख्याबल टूट के बाद कम हुआ है, तो वहीं कांग्रेस ने उपचुनाव में एक सीट जीतकर उसमें इजाफा ही किया है. बदले हालात में कांग्रेस 45 विधायकों के साथ महाविकास अघाड़ी गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है. राजनीति के जानकारों की मानें तो इन सभी घटनाक्रमों के बाद कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र की राजनीति में खुद को ड्राइविंग सीट पर लाने का अच्छा अवसर है. कांग्रेस के लिए जरूरी है कि खुद को मुख्य विपक्ष के रूप में स्थापित करे जो शिवसेना और एनसीपी के टूटने के बाद उतना कठिन भी नहीं. जिससे कांग्रेस को पूरे महाराष्ट्र में फैली जड़ें और अच्छी पकड़ का फायदा भी मिलेगा. अगर हम बात करें पश्चिम महाराष्ट्र की तो यहां एनसीपी मजबूत रही है और पार्टी के कुल वोट शेयर में करीब 43 फीसदी वोट इसी इलाके से हैं. पश्चिम महाराष्ट्र में पुणे, सातारा, सांगली, कोल्हापुर तथा सोलापुर जिले आते हैं. महाराष्ट्र विधानसभा की कुल 290 सीटों में से करीब 60 विधानसभा सीटें इन जिलों से हैं. शिवसेना की बात करें तो पार्टी मुंबई-ठाणे रीजन में मजबूत रही है. शिवसेना को 2019 चुनाव में इन्हीं इलाकों से अधिकतर सीटें मिली थीं. इन दोनों दलों का एक खास क्षेत्र में मजबूत और बाकी इलाकों में कमजोर पकड़ भी कांग्रेस के नजरिए से अच्छी बात है. दोनों दलों में टूट के बाद इन इलाकों में भी पार्टियों की पकड़ कमजोर पड़ेगी. कांग्रेस आलाकमान भी इसे समझ रहा है और शायद इसी वजह से दिल्ली में महाराष्ट्र को लेकर मीटिंग पर मीटिंग हो रही है.
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कांग्रेस को विपक्ष के रूप में खुद को स्थापित करना होगा
अजित पवार के NCP से बागी होने और शिंदे-फडणवीस सरकार में शामिल हो जाने के बाद एनसीपी के शरद पवार धड़े ने विपक्ष के नए नेता के लिए स्पीकर को पत्र भेजा था, जिस पर कांग्रेस की ओर से तुरंत रिएक्शन आ गया. महाराष्ट्र कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि नेता प्रतिपक्ष का पद सबसे बड़े विपक्षी दल को मिलता है. ये कोई पार्टी तय नहीं करती, ये विधानसभा स्पीकर का काम है. स्पीकर तय करेंगे कि विपक्ष के नेता का पद किसे दिया जाए. कांग्रेस का ये स्टैंड महाराष्ट्र की सियासत में बने अवसर को भुनाने की दिशा में पहला कदम माना जा रहा है. कांग्रेस को विपक्ष के अगुवा के रूप में खुद को स्थापित करना होगा. जानकार ऐसा भी मान रहे हैं कि अब कांग्रेस गठबंधन में पहले से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा ठोक सकती है. मतलब ये कि अब कांग्रेस महाराष्ट्र चुनाव में ज्यादा सीटों की मांग करने की स्थिति में है. बता दें कि महा विकास अघाड़ी में शिवसेना सबसे बड़ी और एनसीपी दूसरी बड़ी पार्टी थी. पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 147 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. इनमें से 44 सीटों पर पार्टी को जीत मिली थी और 60 से अधिक सीटों पर पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी. लेकिन अब कांग्रेस की रणनीति ये होगी कि पिछली बार के बराबर सीटें मिले न मिलें, कम से कम जितनी सीटों पर वो पहले और दूसरे नंबर की पार्टी रही थी उससे कम पर समझौता ना करे. महाराष्ट्र के दो बड़े दलों में सियासी आपदा में कांग्रेस के लिए अवसर तो है लेकिन इसमें चुनौतियां भी कम नहीं हैं. कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है राज्य कमेटी में जारी अंतर्कलह और नेतृत्व का अभाव. कांग्रेस के पास महाराष्ट्र में अशोक चह्वाण जैसे कद्दावर नेता तो हैं लेकिन शरद पवार और उद्धव ठाकरे के कद के सामने ये कहीं नहीं ठहरते. कांग्रेस को महाराष्ट्र में मजबूत नेतृत्व की जरूरत है.
लेखक- नवीन कुमार