उत्तर प्रदेश में पीएम नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने की खातिर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और मायावती ने वर्षों पुरानी दुश्मनी की खाई को पाटकर साथ में लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला लिया. हालांकि दोनों नेता साथ तो आए लेकिन कोई बड़ा चमत्कार देखने को नहीं मिला. मोदी शाह की जोड़ी के सामने अखिलेश-मायावती की जोड़ी फीकी नजर आई.
रुझानों को देखने के बाद तो यही कहा जा सकता है. 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 60 सीटें मिल सकती हैं. सपा-बसपा गठबंधन भी 17 सीटों पर जीत सकता है. बसपा को 10 सीटें और सपा को 5 सीटें मिल सकती हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सपा-बसपा का वोट एक दूसरे को नहीं मिला, जिसके कारण गठबंधन कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर सका.
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हालांकि यह लड़ाई अस्तित्व के लिए भी थी. क्योंकि लोकसभा चुनाव 2014 में सपा को 5 सीटें मिली थीं. वो भी तब जब प्रदेश में सपा की सरकार थी. वहीं बसपा को एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई थी. दिलचस्प बात यह भी थी कि 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी में एनडीए 42.30 फीसदी वोटों के साथ 73 सीटें जीतने में सफल हुई. वहीं सपा 22.20 फीसदी वोट के साथ सिर्फ 5 सीटें जीत पाई.
बसपा को 19.60 प्रतिशत वोट मिले थे. लेकिन सीट एक भी नहीं मिली थी. कांग्रेस को 7.50 प्रतिशत वोट मिले थे. जिसमें उसने 2 सीटों पर जीत हासिल की थी. अगर पूछा जाए कि 2019 में असली नुकसान किसका हुआ, तो किसी का नहीं, सिवाय बीजेपी के. क्योंकि 2014 में बीजेपी ने गठबंधन के साथ 73 सीटों पर जीत हासिल की थी.
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लेकिन इस बार वह 60 सीटों पर सिमटती हुई दिख रही है. जो सपा 5 सीटों पर थी वह न कम हुई न ज्यादा. हालांकि अखिलेश की पत्नी की सीट कन्नौज पर भी हार सपा को हार मिली. बसपा सुप्रीमों मायावती की सपा के साथ गठबंधन करने की रणनीति कारगर साबित हुई. क्योंकि 2014 में जो बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई थी वह 10 सीटें पर जीत गई.
सात साल से मुख्यालय को जश्न का इंतजार
समाजवादी पार्टी का केंद्रीय मुख्यालय 8 कॉपरनिकस लेन बनने के बाद से सपा लगातार पराजय देख रही है. 2012 में उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार बनने के बाद 2014 में यह मुख्यालय बना था. यहीं से मुलायम सिंह यादव के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद थी. लेकिन 2014 में वह कामयाब नहीं हुए.
2017 में अखिलेश ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. लेकिन फिर उन्हें कामयाबी नहीं मिली. अब 2019 में मायावती का साथ होने के बाद भी वह कोई करिश्मा नहीं दिखा सके. प्रोफेसर रामगोपाल यादव इस समय दिल्ली में मौजूद है. फिर भी कार्यालय पर सन्नाटा पसरा है. न कोई सुरक्षा है न ही कोई कार्यकर्ता. पत्रकार भी नदारद हैं.