लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को उत्तर प्रदेश में मिली बड़ी सफलता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की बनाई रणनीति ने दिलाई. आरएसएस ने मायावती के परंपरागत वोट बैंक दलितों के लिए एक अलग से एजेंडा तैयार किया था.
इस एजेंडे में न सिर्फ आरएसएस के दलित प्रचारक शामिल किए गए थे, बल्कि बौद्ध धर्मावलंबी भिक्षुओं और दलित बुद्धिजीवियों का भी सहारा लिया गया था. समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन कर दलित और पिछड़ा वोट बैंक को साधने के लिए रणनीति बनाई थी, जिसे आरएएस ने अपनी कामयाब रणनीतिक चौसर के दम पर धराशायी कर दिया.
पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन कर 80 में से 71 सीटों पर कब्जा किया था. इस बार उसे सपा और बसपा से कड़ी टक्कर मिलने का अनुमान लागाया जा रहा था, लेकिन सुरक्षित सीटों के लिए तैयार आरएसएस की कामयाबी रणनीतिक पैंतरेबाजी ने सुरक्षित सीटों पर सपा-बसपा गठबंधन को मात दे दी.
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विपक्षी दल हालांकि अनुमान लगा रहे थे कि भाजपा और संघ की रणनीति कार्य नहीं कर पाएगी, लेकिन चुनाव के नतीजों ने बता दिया कि असंभव को अगर संभव करना है तो कोई आरएसएस के रणनीतिकारों से संपर्क करे.
आरएसएस से जुड़े एक सख्श की मानें तो आरएसएस के सर्वे में उत्तर प्रदेश में सुरक्षित सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी को बदलने का फार्मूला बनाया गया था. यह कारगर साबित हुआ. सूबे की 17 सुरक्षित सीटों में से भाजपा ने इस बार 10 सीटों पर मौजूदा सांसदों के टिकट काट दिए थे और नए चेहरों को मैदान में उतारा था. इन सभी सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई.
आरएसएस के कहने पर भाजपा ने 10 सुरक्षित सीटों- हाथरस, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, इटावा, बाराबंकी, बहराइच, मछलीशहर और राबर्ट्सगंज में प्रत्याशी बदले थे. जहां पर प्रत्याशी नहीं बदले गए, वहां पर भाजपा को सफलता नहीं मिल सकी. नगीना सुरक्षित सीट से यशवंत सिंह और लालगंज सीट से नीलम सोनकर को दोबारा प्रत्याशी बनाया गया था. दोनों ही चुनाव हार गए हैं.
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आरएसएस के एक पदाधिकारी ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया, "आरएसएस चुनाव से पहले भी दलित और अनुसूचित वर्ग के बीच काम करता रहा है. लेकिन इस बार एक खास रणनीति बनाई गई थी. उप्र की 80 लोकसभा सीटों पर हमारे बड़े पदाधिकारियों ने दलितों और शोषितों के बीच काम करने वाले उन लोगों के नाम मांगे थे, जो अपने समाज का प्रतिनिधित्व करते हों. इसके बाद उसी वर्ग के डॉक्टर, प्रोफेसर और बौद्धिक वर्ग को अपने क्षेत्रों में जागरूकता के लिए लगाया गया."
इन लोगों से कहा गया कि सरकार ने जो दलितों के लिए काम किया, उसी पर फोकस किया जाना चाहिए. इसके अलावा एक और अभिनव प्रयोग किया गया कि दिल्ली और अन्य प्रदेशों से दलित समाज के प्रोफेसर, डॉक्टर और वकील के साथ बड़े स्तर पर सामाजिक कार्यकर्ताओं को पूरे उप्र में बैठक कर भाजपा के लिए माहौल तैयार करने को कहा गया.
इसमें संघ के बड़े पदाधिकारी (प्रचारक) भी शामिल रहते थे. लेकिन सारा विषय दलित समाज के लोग (प्रचारक) ही रखते थे. उनकी बातें भी लोगों को समझ आती गईं. भाजपा के लिए उन्होंने बड़ी जमीन तैयार कर दी. चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए आरएसएस ने भी अपनी पूरी ताकत लगा दी है.
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संघ ने राज्य की 80 सीटों को जोन में बांट दिया है. राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, किसानों की बदहाली, जलसंकट, जाति और बेरोजगारी, जैसे मुद्दों पर फोकस किया गया. इसके बाद इन मुद्दों को हर सीट के साथ जोड़कर उसे नक्शे पर निशान लगाया गया है.
स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं को इस बात के लिए ट्रेनिंग दी गई है कि वे इन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाएं. जिन सीटों पर गठबंधन मजबूत है, वहां पर जातियों का ध्यान रखा गया था. हर जगह मोदी और बेहतर कानून व्यवस्था मुद्दा रहा.
वर्ष 2014 के आम चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश की 17 अनुसूचित सीटों में से अधिकतर मायावती की अगुआई वाली बसपा के खाते में जाती थीं. लेकिन उन्हें इस बार महज 2 सीटें मिली हैं. दलित विचारधारा आधारित यह पार्टी दूसरे प्रदेशों की सुरक्षित सीटों पर तो अपना खाता तक नहीं खोल पाई.
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संघ विचारक आशोक सिन्हा ने कहा, "आरएसएस विचार के लिए काम करता है. जो हमारी नीतियों से तल्लुक रखता है, हम उसका समर्थन करते हैं. स्वयंसेवक चुनाव में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी भी करते हैं. लेकिन हमने किसी जाति या वर्ग विशेष के लिए काम नहीं करते. समाज में समरसता का भाव लेकर संघ बहुत दिनों से कार्य कर रहा है. मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी हो, इसे लेकर हम लोगों ने पूरा प्रचार किया."
Source : IANS