गाजियाबाद शहर यानी सदर सीट से चुनाव लड़ रहे एक उम्मीदवार की इन दिनों खूब चर्चा हो रही है. नरेश नामक इस शख्स की न तो कोई बड़ी पॉलिटिकल पार्टी और न ही कोई बहुत बड़ा व्यवसाय, लेकिन इस बार के यूपी चुनाव में उन्होंने खुद मैदान में उतरकर कुछ अलग करने की सोची है. हालांकि उनके पास उतने पैसे भी नहीं है जिससे कि चुनाव के दौरान वह खर्च कर सके. 20 साल से कबाड़ी का काम कर रहे नरेश घर-घर जाकर अखबार की रद्दी उठाते हैं, लेकिन लॉकडाउन में उनके साथ कुछ ऐसा हुआ कि अब रद्दी की जगह सियासत की राजगद्दी चाहते हैं, ताकि कुछ परिवर्तन किया जा सके.
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एक अखबार बीन कर रद्दी बेचकर रोजगार कमाने वाला आम आदमी भी विधायकी का चुनाव लड़ने के लिए तैयार है. नरेश लगातार अखबार रद्दी के रूप में खरीदते हैं, खबरों में पढ़ते हैं और सोचते हैं कि सुधार जरूरी है, सुधार बिना राजनीति के आ नहीं सकता. इसलिए, राजनीति में कूदने का फैसला किया है. कोरोना काल में ही नरेश ने निर्वाचन के सहारे सत्ता में जाने का मन बना लिया था, क्योंकि उनके बच्चों का नाम प्राइवेट स्कूल से लगभग इस आधार पर कटने वाला था कि ऑनलाइन एजुकेशन के लिए भी फीस बढ़ानी होगी. घर में सरकार का मुफ्त राशन जिस हाल में पहुंचता था उन्हें इस बात के लिए प्रेरित कर गया कि अब चुनाव लड़ना होगा. जीत के लिए ना सही, लेकिन समाज के मुद्दे उठाने के लिए, क्योंकि वह भी जानते हैं कि उनके लिए जीत मृगतृष्णा के समान है.
रोजगार भी और प्रचार भी
नरेश क्रॉसिंग रिपब्लिक में बने फ्लैट में जाते हैं. उनके मोबाइल में 3000 नंबर है. वह लोग जो उन्हें हर महीने अखबार की रद्दी बेचने के लिए बुलाते हैं. बस यही विश्वास है नरेश को कि इन 3000 लोगों का वोट तो उन्हें मिल ही जाएगा. ऐसे ही एक घर अखबार खरीदने के लिए पहुंचे नरेश अखबार तोला, रद्दी को पिरोया और साथ में वोट मांग कर चुनाव प्रचार भी हो गया. यह फ्लैट भारत सरकार से रिटायर दो उच्च अधिकारियों का है. इन पति-पत्नी को भी लगता है कि भले ही नरेश जैसे लोग चुनाव जीत नहीं पाए, लेकिन चुनाव लड़कर भी वह भारतीय लोकतंत्र को मजबूत ही बना रहे हैं.