प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लिए जाने का ऐलान करके देश भर के किसानों के चेहरों पर मुस्कान लाने से साथ ही विपक्षियों की बोलती बंद कर दी है. उन्होंने लोगों को ये संदेश दे दिया कि वो किसी भी हद तक जाकर फैसला करने की ताकत रखते हैं. यूपी और पंजाब के विधानसभा चुनावों में पीएम मोदी के इस फैसले का फायदा भी मिलने की पूरी उम्मीद है. खास कर पश्चिमी यूपी की बात करें तो यहां नए सियासी समीकरण बनने के आसार नजर आ रहे हैं.
प्रधानमंत्री ने एक तीर से कई शिकार किए हैं. कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान कर उत्तर प्रदेश की सत्ता की राह में बाधा बन रहे किसान आंदोलन के पत्थर को एक तरह से हटा दिया. तो वही पश्चिमी यूपी में भाजपा एक बार फिर से आक्रामक रुख अख्तियार कर सकती है. भाजपा नेताओं का मानना है कि तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अब पार्टी के सामने कोई चुनौती नहीं है.
यूपी की सियासी जंग से पहले पीएम मोदी का मेगा दांव
उत्तर प्रदेश की सियासी जंग से पहले पीएम मोदी ने मेगा दांव चला और यूपी में 300 प्लस का टारगेट लेकर चल रही BJP को बूस्टर डोज मिल गया है. खास कर पश्चिमी यूपी के लिए जहां माना ये जा रहा था कि कृषि कानूनों को लेकर बीजेपी के लिए चुनौती बड़ी थी. लेकिन मोदी सरकार के एक बड़े फैसले ने पश्चिमी यूपी की लड़ाई को बेहद रोचक बना दिया है.
अब सवाल है कि कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल ( RLD)की राजनीति पर क्या असर होगा. क्या आरएलडी आगामी विधानसभा चुनाव में अपने खोए हुए जनाधार को पाने में सफल होगा. आरएलडी और सपा में गठबंधन की बात चल रही है. अब सवाल यह है कि क्या आएलडी-सपा गठबंधन आकार लेगा.
समाजवादी पार्टी-आरएलडी गठबंधन का क्या होगा?
प्रधानमंत्री के कृषि कानूनों को वापस लेने के ऐलान से महज एक दिन पहले ही अमित शाह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई थी.कहा जा रहा था कि किसान आंदोलन की वजह से BJP को इस इलाके में बड़ा नुकसान हो सकता था. लेकिन अब कहा जा रहा है कि कृषि कानून रद्द होने से BJP के प्रति किसानों की नाराजगी कम होगी और वो उसके पाले में जा सकते हैं. लेकिन यह भी संभावना है कि कृषि कानून रद्द होने के बाद राष्ट्रीय लोकदल (RLD) अब भाजपा (BJP) के साथ आ सकती है.
आरएलडी का अभी क्या रुख है. उससे पहले यह जानना जरूरी है कि भाजपा और आरएलडी के बीच गठबंधन के कयास क्यों लगाए जा रहे हैं. इसी साल मार्च महीने में मथुरा में जयंत चौधरी और अखिलेश यादव ने यूपी विधानसभा चुनाव साथ लड़ने का ऐलान किया था. हालांकि इधर कुछ वक्त से अखिलेश यादव और आरएलडी के मुखिया जयंत चौधरी साथ नहीं दिखे तो अटकलें लगाई जाने लगीं कि दोनों में सीटों के बंटवारे को लेकर रस्साकशी चल रही है. लेकिन इस बीच आरएलडी ने अपना संकल्प पत्र जारी कर दिया. जिसे ज्यादा सीटें पाने के लिए अखिलेश पर दबाव बनाने के रूप में देखा गया. लेकिन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के मोदी सरकार के फैसले से अब सब कुछ बदलता नजर आ रहा है.
खबर ये भी है कि 21 नवंबर को समाजवादी पार्टी और आरएलडी के बीच गठबंधन और सीटों के बंटवारे को लेकर ऐलान होना था. जिसे कैंसिल कर दिया गया है. जयंत चौधरी अखिलेश यादव से 30-32 सीटों की डिमांड कर रहे हैं लेकिन अखिलेश 20-22 सीटें ही देने पर अड़े हैं. उसमें से भी उनका कहना है कि समाजवादी पार्टी के तीन-चार लोग आरएलडी के सिंबल पर चुनाव लड़ेंगे.
सियासी जानकारों का कहना है कि एक समय जाटों की पहली प्राथमिकता आरएलडी (RLD)हुआ करती थी. लेकिन आरएलडी के बाद अगर जाट किसी राजनीतिक पार्टी को पसंद करता है तो वह भाजपा है. समाजवादी पार्टी को जाटों ने कभी पसंद नहीं किया. और ना ही कभी समाजवादी पार्टी के साथ गए, ये बात अखिलेश और जयंत दोनों को पता है.
ऐसे में सियासी पंडितों का कहना है कि अगर जयंत चौधरी समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 20 सीटों पर भी चुनाव लड़ते हैं तो उनके लिए जीत की राह आसान नहीं होगी. लेकिन अब जब किसानों की नाराजगी की वजह ही खत्म हो चुकी है. ऐसे में अगर जयंत चौधरी भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ते हैं. तो ना सिर्फ उनकी स्ट्राइक रेट बढ़ेगी बल्कि उनके लिए विन-विन पोजीशन भी होगी.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा का कितना जनाधार
2017 के चुनावों में वेस्ट यूपी में भाजपा को 37 सीटें मिली थीं और वोट शेयर 43.5 प्रतिशत था. पिछले विधानसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी में आरएलडी का वोट शेयर 5 फीसदी से ज्यादा था. वहीं इस इलाके में समाजवादी पार्टी का वोट शेयर 15.68 प्रतिशत ही था. अगर जयंत और अखिलेश के वोट शेयर को मिला दें तो ये भाजपा के वोट शेयर का आधा भी नहीं है. ऐसे में साफ है कि अगर जयंत चौधरी भाजपा से मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो ना सिर्फ जाटलैंड की सियासत में एक बार फिर मजबूत हो सकते हैं बल्कि उन्हें केंद्र या राज्य में बड़ा पोर्टफोलियो भी मिल सकता है.
भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर जयंत चौधरी का क्या है रुख
जयंत चौधरी ने खुल कर अपने पत्ते तो नहीं खोले हैं. लेकिन उन्हें भी पता है कि साल 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पश्चिमी यूपी में जाटों और मुसलमानों के बीच पैदा हुई खाई किसान आंदोलन की वजह से पटती नजर आ रही थी. आंकड़ों के मुताबिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 32 फ़ीसदी मुसलमान और 12 फ़ीसदी जाट हैं.
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किसानों में सबसे बड़ी आबादी जाटों की है. कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन ने 2014, 2017 और फिर 2019 में वेस्ट यूपी में बड़ी बढ़त कायम करने वाली बीजेपी की मुश्किलें बढ़ाने का काम किया था. इसी दौरान समाजवादी पार्टी ने जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी से गठबंधन कर इस माहौल का फायदा उठाने की रणनीति बनाई थी.
समाजवादी पार्टी और आरएलडी को उम्मीद थी कि जाट, मुस्लिम, यादव समेत कुछ अन्य बिरादरियों के वोट का फायदा मिल सकता है. लेकिन कृषि कानून वापसी के बाद अब सियासी समीकरण बदल सकते हैं.
कृषि कानूनों की वापसी से क्या विपक्ष का मुद्दा खत्म
कृषि कानूनों की वापसी की मतलब विपक्ष का मुद्दा खत्म हो जाना है. यानि पश्चिमी यूपी के अखाड़े में विपक्ष का मुस्लिम-जाट समीकरण वाला बड़ा दांव ध्वस्त हो सकता है. जाहिर है ये भाजपा के लिए फायदेमंद और आरएलडी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.
आरएलडी अगर समाजवादी पार्टी के साथ रही तो क्या होगा
वेस्ट यूपी में बीजेपी एक बार फिर से पहले की तरह ही आक्रामक रुख अख्तियार कर सकी है. सियासी जानकार ये भी कह रहे हैं कि कृषि कानूनों की वापसी से आरएलडी की राजनीति को दोहरी चोट लगी है क्योंकि आरएलडी के लिए किसान आंदोलन एक संजीवनी की तरह था. लेकिन अब आरएलडी की राजनीतिक मोल-भाव की क्षमता भी घट जाएगी. इसलिए यह भी हो सकता है कि समाजवादी पार्टी के साथ आरएलडी का गठबंधन ना हो या आरएलडी को भाजपा के साथ जाना पड़े.
HIGHLIGHTS
- कृषि कानूनों की वापसी की मतलब विपक्ष का मुद्दा खत्म
- पश्चिमी यूपी में विपक्ष का मुस्लिम-जाट समीकरण वाला दांव ध्वस्त
- भाजपा-आरएलडी का हो सकता है गठबंधन