देवभूमि उत्तराखंड में कई ऐसे स्थान हैं, जहां पर माना जाता है कि साक्षात देवी देवताओं का वास है. लेकिन क्या आपको पता है कि उत्तराखंड में एक ऐसा मंदिर भी है, जहां कहा जाता है कि हर रात महाकाली विश्राम करने के लिए पहुंचती है. मंदिर से जाने के बाद हर सुबह उनके रात्रि विश्राम के प्रमाण मिलते हैं. क्या कलयुग में ऐसा हो सकता है कि मां काली की मौजूदगी के प्रमाण वास्तव में नजर आते हो? आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि साक्षात महाकाली किसी मंदिर में रात्रि विश्राम करती हैं?
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उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद की गंगोलीहाट तहसील महाकाली का हाट कालिका मंदिर है. इस मंदिर की खासियत है कि जिस महाकाली का साक्षात मौजूदगी वाला स्थल माना जाता है. मंदिर के तीर्थ पुरोहित हेम पंत बताते हैं कि इसी मंदिर के स्थान पर माता ने काली रूप धारण कर जब शत्रुओं का नाश किया था तो यहां मां का गुस्सा शांत करने के लिए भगवान शिव उनके पांव के नीचे लेट गए थे. कहा जाता है जिस स्थान पर कई वर्षों तक माता की तेज ज्वाला निकलती देखी गई है . कई वर्षों बाद आदि गुरु शंकराचार्य ने माता की ज्वाला को शांत किया और यहां माता के शांत स्वरूप की स्थापना की. तीर्थ पुरोहित हेम पंत बताते हैं कि हाट कालिका मंदिर की मान्यता ऐसी है कि हर साल देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु मां के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं.
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हाट कालिका मंदिर में हर रोज शाम आरती के बाद माता को भोग लगाया जाता है. जिसके बाद माता की शयन आरती गाई जाती है. माता का बिस्तर लगाया जाता है और फिर माता के मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं. कहा जाता है कि माता रात्रि विश्राम के लिए मंदिर में पहुंचती हैं और सुबह जब मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तो बिस्तर में कुछ इस तरह का आभास होता है कि जैसे किसी ने इसमें रात्रि विश्राम किया हो.
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हमने खुद इस हकीकत को अपनी आंखों से देखा है. हम भी शयन आरती में मौजूद रहे. जिसके बाद माता का विस्तार लगाकर मंदिर के सभी कपाट बंद कर दिए गए. अगली सुबह 3 बजे हम मंदिर में पहुंचे और 4 बजे मंदिर के कपाट खोलने की प्रक्रिया शुरू हुई. मंदिर के कपाट खुलते ही हमने देखा कि माता के बिस्तर में चावल के दाने बिखरे हुए थे. फूल भी बिखरे हुए नजर आ रहे थे और बिस्तर में बिछाई गई चादर में सिलवटें नजर आ रही थीं. जिससे यह साफ प्रतीत हो रहा था कि शायद माता ने रात्रि विश्राम यहां किया है.
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गंगोलीहाट महाकाली की महिमा ऐसी है कि देश की सबसे पुरानी सेना कुमाऊं रेजीमेंट के जवान माता के जयघोष के साथ ही लड़ाई में उतरते हैं और दुश्मनों के सिर काट डालते हैं. कुमाऊं रेजिमेंट का कोई भी जवान जय महाकाली के उद्घोष के बिना लड़ाई के मैदान में नहीं उतरता है.
कुमाऊं रेजीमेंट की सभी बटालियन के जवान और अधिकारी महाकाली के इस मंदिर में शीश झुकाने पहुंचते हैं. कुमाऊं रेजीमेंट द्वारा मंदिर में सौंदर्यीकरण से लेकर निर्माण के काफी कार्य कराए गए हैं. सन 1880 की कुमाऊं रेजिमेंट की घंटी भी मंदिर में मौजूद है. कुमाऊं रेजीमेंट के बड़े से बड़े अधिकारी अपनी तैनाती के दौरान महाकाली के मंदिर में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं.
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कहा जाता है कि एक बार बर्मा (म्यांमार) के नजदीक कुमाऊं रेजीमेंट का एक जहाज पानी में डूब रहा था. उसी समय जवानों ने महाकाली को याद किया और महाकाली से उनके डूबते जहाज को बचाने का निवेदन किया. कहा जाता है कि जहाज पानी में डूबने से बच गया. जिसके बाद रावलपिंडी में बनाई गई माता की अष्ट धातु की भारी-भरकम घंटी को सभी जवान अपने कंधों पर मंदिर में लेकर आए और मंदिर में कुमाऊं रेजिमेंट के जवानों ने पूजा-अर्चना के साथ भेंट किया. कुमाऊं रेजीमेंट के जवानों की आस्था मंदिर के साथ ऐसी है कि कहा जाता है कि बस महाकाली का नाम लेते ही लड़ाई के मैदान में जवानों की शक्ति दुगनी हो जाती है. जवानों का कहना है कि उन्हें ऐसा लगता है जैसे उनकी ओर से कोई और लड़ाई कर रहा है और दुश्मनों का खात्मा कर रहा है.
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महाकाली के दर्शनों के लिए हर साल लाखों की तादाद में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं. चैत्र और शारदीय नवरात्रों में हाट कालिका मंदिर में भक्तों की भीड़ बढ़ती जाती है. मंदिर को चारों ओर से देवदार के पेड़ों ने घेरा हुआ है. सैकड़ों साल पुराने देवदार के पेड़ मंदिर को और ज्यादा सुंदर और विहंगम बनाते हैं. गोविंद बल्लभ पंत पर्यावरण संस्थान कोसी कटारमल अल्मोड़ा के वैज्ञानिकों ने यहां रिसर्च की है जिसमें यह पता चला है कि मंदिर के कुछ पेड़ 450 साल पुराने हैं.