कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ को शनिवार को अधिवक्ता नामांकन फॉर्म में मां के नाम के प्रावधान को शामिल करने की मांग वाली एक याचिका मिली. याचिकाकर्ता मृणालिनी मजूमदार ने दावा किया है कि वर्तमान अधिवक्ता नामांकन फॉर्म, जिसे हर नव उत्तीर्ण अधिवक्ता को कानूनी पेशे का अभ्यास करने के लिए नामांकित होने के लिए भरना होता है, वर्तमान में फार्म में केवल पिता का नाम या पति का नाम का उल्लेख है. यह इंगित करते हुए कि मां के नाम का उल्लेख करने का कोई प्रावधान नहीं है, याचिकाकर्ता ने कहा है कि यह भारतीय संविधान के कुछ आर्टिकल के विपरीत है.
उनके अनुसार, केवल पिता और पति के नाम का प्रावधान रखने की यह प्रणाली पितृसत्तात्मक समाज का प्रतिबिंब है, जहां एक नवोदित अधिवक्ता की योग्यता उसके पिता या उसके पति की संरक्षकता पर निर्धारित होती है. याचिकाकर्ता ने यह भी दावा किया है कि पिता के नाम का उल्लेख करने का प्रावधान भारतीय संविधान के तहत भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए समान और मौलिक अधिकारों के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करता है.
उन्होंने यह भी बताया है कि अधिवक्ता नामांकन फॉर्म में यह विशेष कारक एकल माताओं और उनके बच्चों के प्रति भेदभाव को दर्शाता है, जो एक तरह से उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.
इस मामले को कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश प्रकाश श्रीवास्तव और न्यायमूर्ति राजर्षि भारद्वाज की खंडपीठ ने उठाया. डिवीजन बेंच ने इस मामले में बार काउंसिल ऑफ इंडिया और बार काउंसिल ऑफ वेस्ट बंगाल की राय मांगी है और इन दोनों निकायों को अगले चार हफ्तों के भीतर इस मामले में अपने-अपने विचार बेंच को भेजने को कहा है. मामले की अगले साल 6 फरवरी को फिर सुनवाई होगी.
मामले में अपनी राय देते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता कौशिक गुप्ता ने कहा कि अधिवक्ता नामांकन फॉर्म में एक प्रणाली है, जो इस फॉर्म प्रणाली के शुरू होने के समय से ही चलन में है. उन्होंने कहा, लेकिन यह पहली बार है कि किसी ने इस मामले में अदालत का ध्यान आकर्षित किया है. मैं इस कदम का स्वागत करता हूं और उम्मीद करता हूं कि जहां फॉर्म में माताओं के नाम का भी प्रावधान है, वहां व्यवस्था बदलेगी.
वैवाहिक मुकदमों की विशेषज्ञ वरिष्ठ वकील संपा चौधरी ने आईएएनएस को बताया कि यह इस पेशे में महिलाओं के साथ-साथ महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की लंबे समय से चली आ रही मांग है. उन्होंने कहा, यह प्रावधान एकल या तलाकशुदा माताओं के प्रति भेदभावपूर्ण है, जो अपने बच्चों की परवरिश खुद कर रही थीं. याचिकाकर्ता ने सही तरीके से इस मामले को उठाया है और मुझे उम्मीद है कि सिस्टम में बदलाव आएगा.
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Source : IANS