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Sawan 2025: सावन का पावन महीना चल रहा है. ऐसे में शिवालयों में शिवभक्तों का सैलाब उमड़ रहा है. शिव भक्त अपने-अपने तरीके से भोलेबाबा को प्रसन्न करने में जुटे हैं. कोई कांवड़ लेकर तो कोई कोसों दूर चलकर ऐसा कर रहा है. इस बीच एक कीमती लौटा भी काफी सुर्खियां बटोर रहा है. दरअसल ये लोटा कोई मामूली लौटा नहीं है बल्कि सोने से बना 23 लाख रुपए कीमत का लौटा है. इस लोटे से शिवभक्त महादेव पर गंगाजल चढ़ा रहे हैं. आइए जानते हैं कि आखिर ये लोटा कहां है.
कहां है सोने से बना 23 लाख रुपए का लौटा
बता दें कि उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थित गोटेश्वर महादेव मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि एक ऐतिहासिक धरोहर भी है. लगभग 300 वर्ष पुराने इस मंदिर का निर्माण मराठा काल में हुआ था. समय के साथ यह मंदिर उपेक्षा और विरानी का शिकार हो गया था, विशेष रूप से मुस्लिम बहुल क्षेत्र में स्थित होने के कारण इसकी धार्मिक गतिविधियां लगभग समाप्त हो चुकी थीं. हालांकि अब इसी मंदिर में सबसे कीमती लोटे से शिव भक्त गंगाजल चढ़ा रहे हैं यही नहीं यहां पर शिवभक्तों का सैलाब भी उमड़ रहा है.
प्रशासन और समाज का साझा प्रयास
वर्ष 2020 में तत्कालीन जिलाधिकारी अखिलेश सिंह और स्थानीय हिंदू संगठनों की पहल से इस मंदिर के पुनरुद्धार का कार्य प्रारंभ हुआ. मंदिर के पट श्रद्धालुओं के लिए दोबारा खोले गए और पूजा-अर्चना की जिम्मेदारी स्थानीय व्यापारियों को सौंपी गई. इसके बाद एक मंदिर समिति का गठन हुआ, जिसने वर्ष 2021 से धार्मिक गतिविधियों और उत्सवों को जीवंत किया.
सोने के लोटे से अभिषेक
इस बार सावन के पावन मास में गोटेश्वर महादेव मंदिर में एक ऐतिहासिक और अनोखा आयोजन हो रहा है. मंदिर समिति ने भगवान शिव के अभिषेक के लिए 250 ग्राम के शुद्ध 22 कैरेट स्वर्ण लोटे का प्रबंध किया है, जिसकी अनुमानित कीमत लगभग 23 लाख रुपये है. समिति के महामंत्री अमित पंडित के अनुसार, यह लोटा केवल एक आभूषण नहीं, बल्कि श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक है.
श्रद्धा की बात, दिखावा नहीं
वहीं सोने के लोटे को लेकर समिति का साफ कहना है कि इसका उद्देश्य प्रदर्शन नहीं, बल्कि सच्ची आस्था और श्रद्धा है. धन की नहीं, भाव की कीमत होती है. इस भाव से प्रेरित यह आयोजन भक्तों को एक दिव्य अनुभूति देने के लिए किया गया है. सोने से अभिषेक का यह विचार सहारनपुर की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का भी प्रतीक है.
गोटेश्वर महादेव मंदिर का यह आयोजन सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि इतिहास, संस्कृति और श्रद्धा के पुनर्जागरण की जीवंत मिसाल के तौर पर भी देखा जा रहा है. यह दर्शाता है कि जब समाज, प्रशासन और श्रद्धा मिलकर कार्य करें, तो हर उपेक्षित स्थल दोबारा जीवंत हो सकता है.