बीते दिनों मैं करीब एक हफ्ते तक श्रीलंका में था. ये वो दौर था जबकि श्रीलंका की जनता सड़कों पर थी. देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के घर — दफ्तर हर जगह जनता का कब्जा था. राष्ट्रपति के जिम, स्वीमिंग पूल, बेडरूम तक पर जनता काबिज थी. प्रधानमंत्री के घर में भी जबरदस्त तोड़ फोड़ थी. मुल्क के बिगड़ते हालात के लिए हुक्मरानों को गुनहगार मानते हुए सिंहासन खाली करो जनता आती है का नारा बुलंद कर रही थी. आंदोलन का असर दिखा भी. राष्ट्रपति समेत कई नेताओं को मुल्क छोड़कर भागना पड़ा. पहली बार वहां की संसद को वोटिंग के जरिए नया राष्ट्रपति चुनना पड़ा. हालांकिं विरोध नए राष्ट्रपति को लेकर भी है. श्रीलंका की आबादी के बड़े हिस्से को लगता है कि करप्शन में सब हुक्मरान मिले हुए हैं, जिसके चलते मुल्क बर्बादी की कगार तक पहुंचा है! मंहगाई अपने चरम पर है. मसलन एक किलो सेब या संतरे के लिए आपको 1500 रूपए चुकाने पड़ेंगे! गोभी या शिमला मिर्च के लिए 850 रूपए किलो देने होंगे तो एक लीटर पेट्रोल के लिए 500 रूपए! वो भी 3 से 4 दिन पंप पर कतार में लगने के बाद! लोगों में अपने आने वाले कल को लेकर ढेरों सवाल थे. मानों हर कोई अपना मुल्क छोड़कर जाना चाहता था. पासपोर्ट ऑफिस के बाहर 5 से 7 हजार लोगों की लंबी कतारें इसकी तस्दीक कर रही थी. उनमें ज्यादातर को नहीं पता था कि कहां जाएंगे? बस इतना साफ था कि अब उनका मुल्क रहने लायक नहीं बचा था!
अब ज्यादातर लोगों के जेहन में सवाल हो सकता है कि आखिर श्रीलंका के हालात इतने बिगड़े कैसे? इसकी कई बड़ी वजह हैं. श्रीलंका की बर्बादी के चीन कनेक्शन की बात बाद में लेकिन पहले बात कुछ और अहम वजहों की:-
पहली वजह - टूरिज्म पर मार
वैसे तो कोरोना और लॉकडाउन दुनिया भर में टूरिज्म सेक्टर की कमर तोड़कर रख चुका है, लेकिन श्रीलंका में इस बर्बादी की शुरूआत पहले से हो चुकी थी. 21 अप्रैल साल 2019 जब ईस्टर के मौके पर श्रीलंका में सीरियल बम ब्लास्ट हुए. इन धमाकों में कुल 269 लोग मारे गए जबकि 500 से ज्यादा घायल हुए. बम ब्लास्ट से श्रीलंका जाने वाले विदेशी पर्यटक खौफ में थे. लोग श्रीलंका जाने से बच रहे थे. मुल्क इससे उबरा भी नहीं था कि 2020 में कोरोना ने दस्तक दे दी, जिसका असर 2022 तक दिखा है! आंकड़ें बताते हैं कि साल 2018 में 23 लाख टूरिस्ट श्रीलंका गए थे, लेकिन 2019 में ये आंकड़ा घटकर 19 लाख रह गया! 2020 में सिर्फ 5 लाख सैलानी ही श्रीलंका गए जबकि 2021 में पर्यटकों की संख्या 2 लाख का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई! इनमें भी एक चौथाई करीब 56 हजार अकेले भारत से गए थे. 4 साल में सैलानियों में 90 फीसदी की कमी श्रीलंका जैसे मुल्क के लिए बड़ा झटका थी, जिसकी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा टूरिज्म पर ही टिका था.
दूसरी वजह - टैक्स में कटौती
कई बार लोक लुभावन वादे बर्बादी की नींव डालते हैं! श्रीलंका में टैक्स में राहत का चुनावी वादा भी उसी की मिसाल भर है. 2019 के चुनाव में राजपक्षे ने टैक्स में भारी कटौती का एलान किया था, जिसको अमल में लाते ही श्री लंका की माली हालत बिगड़ गई.
तीसरी वजह - ऑर्गेनिक फॉर्मिंग
राजपक्षे सरकार ने 2021 में ऑर्गेनिक फॉर्मिंग पर जोर देते हुए केमिकल फर्टिलाइजर्स और पेस्टीसाइडस पर रोक लगा दी. फैसला गलत साबित हुआ. ना सिर्फ चावल का उत्पादन गिर गया बल्कि बाकी खाद्य उत्पादों में भी भारी गिरावट आई! अनाज और फल सब्जी के दाम आसमान छूने लगे! मई में फूड इंफ्लेशन में 57 फीसदी जबकि नॉन फूड इंफलेशन में 30 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ! तभी तो एक किलो सेब या संतरा 1500 रूपए किलो जबकि एक किलो गोभी या शिमला मिर्च 850 रूपए! मैंने भी 100 रूपए में महज 2 केले खरीदे!
बेशक नीति शानदार थी. वक्त की जरूरत भी, लेकिन उसको ढंग से अमल में नहीं लाया जा सका!
चौथी और सबसे बड़ी वजह - चीनी कर्ज के दलदल में फंसना!
आर्थिक जानकार बताते हैं कि श्रीलंका का खर्च उसकी कमाई से ज्यादा है! ऐसे में खर्चे पूरे करने के लिए जरूरत पड़ी कर्ज की और चीन मानों इसी इंतजार में था. इसकी शुरूआत होती है साल 2010 में. जब चीन ने श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया. दो बार अलग अलग शर्तों और ब्याज दरों पर चीन के एक्जिम बैंक ऑफ चाइना ने श्रीलंका को भारी कर्ज दिया. श्रीलंका जिस निवेश को अपने लिए उपलब्धि मान रहा था, वक्त के साथ वो नासूर बन चुका था. साल 2016 आते—आते श्रीलंका पर 10 बिलियन डॉलर का कर्ज सिर्फ चीन का था. कर्ज ना चुका पाने के बदले श्रीलंका को अपनी जमीन देनी पड़ी. ज्यादातर लोगों को श्रीलंका के मौजूदा हालात के लिए सिर्फ चीन ही जिम्मेदार लगता है. वहीं कुछ के हिसाब से पूरी तरह नही, लेकिन बड़ी वजह बेशक चीन ही है.
अब सवाल है कि क्या चीन की तर्ज पर दुनिया के बाकी मुल्क भी हैं? तो जबाव है हॉं! चलिए तो आपको बताते हैं कि आखिर वो कौन कौन से देश हैं?
पाकिस्तान - मुल्क की राजनीतिक-आर्थिक बदहाली और तेल की बढ़ती कीमतों के बीच पाकिस्तान के विदेशी मुद्रा भंडार पर भारी दबाव है, जिससे एक और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने दिवालिया होने की तरफ बढ़ रहा है. पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार 9.8 अरब डॉलर तक गिर गया है, जिससे बामुश्किल एक—सवा महीने ही आयात किया जा सकता है. पाकिस्तानी रुपया रिकॉर्ड निचले स्तर पर है.
एक डॉलर के मुकाबले श्रीलंकाई रूपया जहां करीब 370 रूपए था वहीं पाकिस्तान रुपया करीब 225 पर पहुँच गया है. खाद्य वस्तुओं में 74 फीसदी का इजाफा हो चुका है जबकि पेट्रोल-डीजल के दाम अब पाकिस्तान में करीब 265 रुपये प्रति लीटर है. पाकिस्तानी सरकार अपनी कमाई का 40 फीसदी सिर्फ कर्ज का ब्याज भरने के लिए खर्च करने को मजबूर है. और इस बीच चीन लगातार पाकिस्तान को कर्ज के जाल में फंसाता रहा है. अकेले 18 लाख करोड़ रुपये का कर्ज तो पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ने अपने कार्यकाल के दौरान लिया. कुल मिलाकर पाकिस्तान पर मार्च, 2022 तक 44 लाख करोड़ पाकिस्तानी रुपये का कर्ज चढ़ा हुआ है. जिसके चलते पैदा हुए हालात कंगाली की ओर इशारा करते हैं!
म्यांमार - कंगाली की कतार में दूसरा नाम म्यांमार का है. म्यांमार में सेना के तख्तापलट से तमाम राजनीतिक और आर्थिक सुधारों पर ब्रेक लग चुका है. मुल्क पर बाहरी कर्ज 9.5 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुका है जो उसकी जीडीपी का 35 फीसदी है. सेना के सत्ता संभालने से अब तक देश की करेंसी कयात डॉलर के मुकाबले 50 फीसदी तक गिर चुकी है. बड़े पैमाने पर आबादी गरीबी झेलने को मजबूर है. वहीं बीते एक साल में ही फ्यूल प्राइज 50 फीसदी जबकि खाने पीने की चीजें 70 फीसदी तक बढ़ चुकी हैं. म्यांमार की इकनॉमी के ताजा हालात लगभग श्रीलंका जैसे ही हैं! वैसे नेपाल, अफगानिस्तान, मालदीव और लाओस जैसे कुछ और देश भी इसी कतार में नजर आ रहे हैं!ऐसे में सवाल है कि क्या भारत में भी श्रीलंका जैसे ही हालात हो सकते हैं? क्या भारत में भी मंहगाई जीना मुहाल कर सकती है? क्या भारत में पेट्रोल पंप के आगे किलोमीटर लंबी कतारें लग सकती हैं? क्या भारत की अर्थव्यवस्था भी चरमरा सकती है?
चलिए आंकड़ों और जानकारों के दावों के जरिए हालात समझते हैं. आरबीआई के मुताबिक बीते वित्त वर्ष तक भारत के ऊपर करीब 620 बिलियन डॉलर का बाहरी कर्ज था. ये रकम हमारी जीडीपी का लगभग 20 फीसदी है. वित्त वर्ष 2013-14 के खत्म होने पर यानी मोदी सरकार से पहले आरबीआई के जारी आंकड़े के मुताबिक तब भारत पर बाहरी कर्ज करीब 440 बिलियन डॉलर का था जो उस वक्त देश की जीडीपी का 23 फीसदी था. इस वक्त भारत में थोक महंगाई दर रिकार्ड सबसे ज्यादा है. मई में थोक महंगाई दर 15 फीसदी को पार कर चुकी है, जो बीते 15 महीनों से लगातार डबल डिजिट में है. जून में सब्जी, फल और तेल के दामों में और इजाफा दिखा है. इस बीच डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार गिरते हुए 80 तक पहुंच चुका है!
ऐसे कई आंकड़ें हैं जो मौजूदा वक्त में भारत के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन कई दलील भारत की उम्मीदों को बरकरार रखती हैं. मसलन, भारत की जीडीपी के अनुपात में कर्ज की रकम! जो नियंत्रण में नजर आती है. वैसे मांग आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत पर बाहरी संकट का ज्यादा असर दिखता नहीं है. फिर चाहे 2008 की महामंदी हो या फिर 2013 का वैश्विक आर्थिक संकट! श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव, नेपाल या अफगानिस्तान जैसे बदहाल मुल्कों के मुकाबले भारत की अर्थव्यवस्था का आकार भी हमारे लिए एक बड़ी राहत है. हम दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं. लिहाजा हमें घबराने की ज्यादा जरूरत नहीं है.
लेकिन एक सवाल अधूरा है. आखिर सरकारें कर्ज लेती ही क्यों हैं? दरअसल वेलफेयर स्टेट होने के नाते अक्सर सरकारों का खर्चा ज्यादा हो जाता है और कमाई कम! या अक्सर वोट पाने के चक्कर में सरकारें सूबे की माली हैसियत से कहीं ज्यादा खर्च करती हैं! मुफ्त बिजली, पानी, साइकिल, मोटरसाइकिल, मकान, पेंशन, अनाज सब कुछ...कई राज्यों में तो कलर टीवी, मोबाइल फोन, लैपटाप और मंगलसूत्र भी! एक तरफ ये सब ऐलान हो रहे होते हैं दूसरी तरफ टैक्स में छूट भी दी जा रही होती है! नतीजा, सरकारी बहीखाते का बिगड़ना! यही वजह है श्रीलंका मसले पर बुलाई सर्वदलीय बैठक में विदेश मंत्री एस. जयशंकर को श्रीलंका से सबक लेते हुए ‘मुफ्त की कल्चर’ से बचने की सलाह देनी पड़ी. 16 जुलाई को बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का उद्घाटन करते वक्त पीएम मोदी ने भी चेताया कि मुल्क में वोट बटोरने के लिए रेवड़ी कल्चर को बढ़ावा देने की कोशिश हो रही है! जो देश के विकास के लिए बहुत घातक है!
दरअसल करीब एक महीने पहले ही आरबीआई ने अपनी एक रिपोर्ट में चेताया था कि मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च करने के चक्कर में राज्य सरकारें कर्ज के जाल में फंसती जा रहीं हैं! रिजर्व बैंक के मुताबिक देशभर की सभी राज्य सरकारों पर मार्च 2021 तक 69.47 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की देनदारी थी! दावा है कि ये आंकड़ा अब 70 लाख करोड़ को पार कर चुका है. सबसे ज्यादा कर्जा तमिलनाडु सरकार पर है - करीब 6.59 लाख करोड़ रुपये का. 6.53 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के कर्ज के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे नंबर पर है! कर्ज-जीएसडीपी अनुपात के हिसाब से कर्जदार प्रांतों की लिस्ट में पंजाब सबसे ऊपर है! मार्च 2021 तक हमारे देश के 19 राज्य ऐसे थे, जिन पर 1—1 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज था! ऐसे समझिए कि भारत में प्रति व्यक्ति आमदनी 91,481 रूपए है जबकि हरेक भारतीय नागरिक पर करीब 1,40,000 रूपए की देनदारी है! जाहिर है सूबों के आर्थिक हालात बिगड़ेंगे तो डायरेक्ट ना सही इनडायरेक्ट टैक्स बढ़ाए जाएंगे या फिर और कर्ज लिया जाएगा! दोनों ही हालत में चोट सूबे के नागरिक पर पड़नी है! ऐसे में बेहतर हो वेलफेयर के नाम जनता को लोक लुभावन से ज्यादा व्यवहारिक और बुनियादी फायदे दिए जाएं. ताकि बहीखाता बर्बाद होने से बचाया जा सके! सिर्फ सूबों ही नहीं बल्कि केन्द्र के स्तर पर भी! कुल मिलाकर हमारे हालात भले श्रीलंका जैसे ना हों लेकिन श्रीलंका एक सबक जरूर है. सिर्फ सरकारों के लिए नहीं बल्कि आपके हमारे लिए भी. उतने ही पैर फैलाएं, जितनी चादर हो!
(ऐसे ही जरूरी मुद्दों पर आप न्यूज़ नेशन के यूट्यूब चैनल पर एंकर अनुराग दीक्षित का शो Fact Files With Anurag भी देख सकते हैं.)
HIGHLIGHTS
- भारत में थोक महंगाई दर रिकार्ड सबसे ज्यादा
- जून में सब्जी, फल और तेल के दामों में और इजाफा
- डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार गिरते हुए 80 तक पहुंचा