रूस-यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) में सिर्फ भारत ही अकेला देश नहीं था जिसने रूस (Russia) के खिलाफ न तो निंदा प्रस्ताव पर मतदान में भाग लिया बल्कि अपने सामरिक साझेदार अमेरिका के साथ संतुलन साधते हुए रूस से ईंधन की आपूर्ति भी जारी रखी. भारत के अलावा तुर्की (अब बदला नया नाम तुर्किए Turkiye) भी एक ऐसा ही देश है जो न सिर्फ रूस को लेकर तटस्थ है, बल्कि रूस-यूक्रेन के बीच मध्यस्थ की भूमिका भी निभाने में पीछे नहीं रहा. तुर्रा यह है कि तुर्की भी नाटो (NATO) का सदस्य देश है. इसके बावजूद कई मौकों पर अमेरिका (America) की छाती पर मूंग दल चुका है और अमेरिका के लिए इस बर्दाश्त करना मजबूरी बन चुका है. कई देशों के साथ अपने संबंधों की बुनियाद पर तुर्की ने अमेरिका का विरोध करने में जरा भी चूक नहीं दिखाई है.
रूस-यूक्रेन युद्ध पर भी तटस्थ रुख है तुर्की का
गौरतलब है कि रूसी हमले के बाद नाटो देश यूक्रेन की अपने-अपने हिसाब से मदद कर रहे हैं. यह अलग बात है कि हथियारों की आपूर्ति करने के अलावा नाटो ने अपनी सेना यूक्रेन में नहीं उतारी है. तुर्की भी नाटो का सदस्य देश, वह भी तब जब उसकी सेना अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर आती है. इसके बावजूद नाटो का सदस्य रहते हुए तुर्की अमेरिका को कई बार आंखें दिखा चुका है. साथ ही इसके पहले भी कई मसलों पर तुर्की ने खुलकर अमेरिका का विरोध किया. रूस-यूक्रेन युद्ध से वैश्विक पटल पर उपजी स्थितियों में तुर्की ने एक लिहाज से तटस्थ रुख ही अपना रखा है.
यह भी पढ़ेंः बस्तर में UFO से आए थे एलियंस, हजारों साल पुराने शैलचित्र हैं गवाह
अमेरिका को धता बता रूस से लिया था एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम
ऐसा कोई पहली बार नहीं है जब तुर्की ने अमेरिका के हितों को सिरे से नजरअंदाज कर अपनी कूटनीति और संबंधित देश के साथ अपने संबंधों को तरजीह दी. 2020 में तुर्की ने रूस से एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीदा था. यह वही मिसाइल डिफेंस सिस्टम है जिसकी रूस ने यूक्रेन से युद्ध लड़ते हुए भारत को पहली खेप की आपूर्ति कर दी है. इसके बावजूद अमेरिका भारत के खिलाफ कड़ा रुख नहीं अपना सका. यही हाल 2020 में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन का था. तुर्की ने रूस से एस-400 सिस्टम प्राप्त किया था और अमेरिका द्वारा प्रतिबंधों के तेवर दिखाने पर बदला लेने की धमकी तक दे डाली थी.
सीरिया-लीबिया पर भी अलग रुख
इसके पहले अमेरिका और रूस के बीच वर्षों तक चले शीत युद्ध के दौरान भी तुर्की का तटस्थ रुख कायम रहा. तुर्की का रुख नाटो के अन्य सदस्य देशों से सीरिया और लीबिया सहित कई मुद्दों पर अलग रहा है. उसने खुल कर नाटो के फैसलों का विरोध किया. 2009 में तुर्की ने उस वक्त भी नाटो का विरोध किया था जब डेनमार्क के एंडर्स फोग रासमुसेन को नाटो प्रमुख के रूप में नियुक्त करने का फैसला लिया गया था. अभी हाल ही में स्वीडन और फिनलैंड ने नाटो की सदस्यता लेने का आवेदन किया, तो तुर्की ने ही वीटो लगाया. हालांकि बाद में एक समझौते के तहत तुर्की तैयार हो गया.
यह भी पढ़ेंः FATF के प्रमुख बने भारतीय मूल के टी राजा कुमार... खैर मनाए अब पाकिस्तान
अपनी भौगोलिक स्थिति का उठाता है फायदा
सवाल उठता है कि अमेरिका को सीधे-सीधे चुनौती देने के बावजूद तुर्की के खिलाफ अमेरिकी प्रशासन बेबस क्यों नजर आता है? इसकी वजह है तुर्की की भौगोलिक स्थिति. तुर्की अच्छे से जानता है कि नाटो और यूरोपीय देशों को उसकी जरूरत है. तुर्की भौगोलिक स्तर पर नाटो में दक्षिणी-पूर्वी हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है. इस तरह देखें तो तुर्की के प्रतिनिधित्व वाला हिस्सा रूस और पश्चिमी देशों के लिए बफर जोन का काम करता है. बस इसी बात का फायदा उठा तुर्की अमेरिका तक को आंखें तरेर देता है और वह उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता. रूस-यूक्रेन युद्ध के मसले पर भी ऐसा ही कुछ देखने में आ रहा है और जो बाइडन दांत भींच कर गुस्सा पीने को मजबूर हैं.
HIGHLIGHTS
- तुर्की नाटो का सदस्य देश होते हुए भी अमेरिका को दिखाता है आंखें
- अमेरिकी दबाव को नकार रूस से लिया था एस-400 मिसाइल सिस्टम
- कई अन्य मसलों पर भी तुर्की ने किया है अमेरिका का कड़ा विरोध