अफगानिस्तान में तालिबान (Taliban in Afghanistan) तेजी से पैर पसार रहा है और आतंक के बढ़ते कदम से सेंट्रल एशिया में असुरक्षा, मानवाधिकार, शरणार्थी और आतंक की आहट सुनाई देने लगी है. तालिबान की नीतियां तो नहीं बदली हैं लेकिन उसकी रणनीति बदली बदली नज़र आ रही है. तालिबान आक्रमक तो है लेकिन अपने आक्रमण से आवाम के हताहत होने का इज़हार नही करता. उसके हमले से रोज आम लोगों की जान जा रहीं है लेकिन वह बढा चढाकर अफगान फोर्सेज के मारे जाने के आंकड़े सामने रखता है.
धीरे-धीरे दायरा बढ़ा रहा तालिबान
तालिबान का व्यवहार तो इस्लामिक स्टेट, सरिया कानून और कट्टरपंथी शासन व्यवस्था पर ही आधारित है लेकिन अपने आतंकी चेहरे पर वह नकाब ओढ़ लेना चाहता है. कंधार से लेकर हेलमंड और उसके आसपास के इलाकों को कब्जाना तालिबान के लिये टेढ़ी खीर नही लेकिन वह 1996 वाली गलती नही दोहराना चाहता. दुनिया की नजरों में अपनी वैधता और स्वीकरोक्ति को बढ़ाने के लिये तालिबान एक रणनीति के तहत आहिस्ते आहिस्ते अपना प्रभाव और दायरा बढा रहा है, साथ ही दूसरी तरफ वह रूस, ईरान और उज्बेकिस्तान सहित पड़ोसी देशों के साथ अपने संवाद भी बढ़ा रहा है. तालिबान की रणनीति को गहराई से समझें तो वह एक साथ अपने दायरे को अफगानिस्तान की ज़मीन पर और स्वीकरोक्ति को दुनिया मे बढ़ाने के मकसद से काम कर रहा है.
क्या होगा यूस फोर्सेज की वापसी के बाद
यूस फोर्सेज की वापसी के साथ हीं तालिबान ने पावर शेयरिंग के एजेंडे पर जाने से पहले विस्तारवाद की रणनीति पर काम शुरू किया. तालिबान ने रणनीति के तहत बड़े प्रोविन्स पर कब्जे की दौड़ नही शुरू की बल्कि उसने एक के बाद दूसरे जिले और खासकर ग्रामीण इलाकों को अपने अधिकार क्षेत्र में लेना शुरू किया. तालिबान का अभी असली और आक्रमक चेहरा दुनिया को देखना बाकी है. वह चेहरा तालिबान अगस्त महीने के अंत से दिखाना शुरू करेगा, जब पूरी तरह से अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से अपना बोरिया बिस्तर समेट लेगी. ऐसा माना जा रहा है कि उसके बाद आक्रमक तालिबान कंधार, गज़नी, हेलमंड और पक्तिया प्रोविन्स पर कब्जाकर अफ़ग़ान सरकार के सामने असल चुनौती पेश करेगा.
1996 में तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा शुरू किया था
1996 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा शुरू किया था तो उनका आक्रमण अफगानिस्तान के दक्षिणी इलाके से शुरू हुआ था लेकिन इस बार तालिबान ने उत्तरी हिस्से से कब्जा शुरू किया है. तालिबान के शुरुआती आक्रमण का दूसरा और प्रमुख टारगेट है ट्रेड रूट्स जिसके जरिये वह सामरिक के बाद आर्थिक रूप से भी मजबूत होना चाहता है. अपनी रणनीति में कामयाब होने के बाद तालिबान की नजर काबुल , जलालाबाद और हेरात पर भी स्वाभाविक रूप से होगी. इसके बाद तालिबान पावर शेयरिंग की टेबल पर बैठना चाहता है ताकि एग्रीमेंट होता है तो उसका पलड़ा भारी रहे.
पाकिस्तान की भूमिका और भारत की चुनौति
ये सर्वविदित है कि तालिबान की रणनीति में पाकिस्तान की सरकार बराबर की साझेदार है. आईएसआई और पाक सेना तालिबान को भरपूर मदद पहुचा रहें हैं. इतना ही नही जैश और लश्कर ए तैयबा जिसे आतंकी संगठन जिहाद के नाम पर तालिबान के साथ अफगान के खिलाफ लड़ रहे है. बलूचिस्तान के मदरसों में जिहाद में शामिल होने का आह्वान किया जा रहा है. पाकिस्तान के सभी सीमावर्ती इलाके तालिबान के शरणगाह बने हुये है और यहां तक कि घायल तालिबान के लड़ाके इलाज के लिये पाकिस्तान के अस्पतालों में भर्ती किये जा रहें है. तालिबान की शक्ल में पाकिस्तान का हक्कानी नेटवर्क और अलकायदा से उसका सीधा कनेक्शन भी किसी से छुपा नहीं. ऐसे में ये कहना भी अतिशयोक्ति नही होगी की तालिबान के आतंकी शक्ल में पाकिस्तान का नापाक चेहरा है और इस समूची कवायद के जरिये पाकिस्तान भी काफी हद तक अफगानिस्तान की जमीन पर तालिबान के साथ पावर शेयर करेगा.
अफगान के साथ भारत का स्ट्रेटेजिक अलायन्स
वही दूसरी तरफ भारत की स्थिति देखें तो अफगान के साथ भारत का स्ट्रेटेजिक अलायन्स है और भारत अफगान फोर्सेज को न सिर्फ ट्रेनिंग देता रहा है बल्कि जरूरत के मुताबिक लॉजिस्टिक सप्लाई भी देता रहा है. इस समूचे घटनाक्रम में असल चुनौती भारत के सामने इसलिये भी है की क्योंकि अफगानिस्तान में भारत का बड़ा निवेश खतरे में है. अफगानिस्तान में अस्थिरता भारत के अलावा सेंट्रल और साउथ एशिया में अस्थिरता, आतंक,मानवाधिकार हनन, शरणार्थी और हिंसा से जुड़ी कई विकराल समस्याओं को पैदा करेगा. यानी अगले 2 से 3 महीने अफगानिस्तान के लिहाज से बेहद चुनौतीपूर्ण रहने वाले हैं.
HIGHLIGHTS
- अफगानिस्तान में तेजी से पैर पसार रहा तालिबान (Taliban in Afghanistan)
- तालिबान का व्यवहार इस्लामिक स्टेट, सरिया कानून व्यवस्था पर ही आधारित