भारत और अमेरिका के रिश्तों के इतिहास में पीएम मोदी के इस ताजा अमेरिका दौरे में हुई जेट इंजन की डील को हमेशा याद रखा जाएगा. ये डील ऐतिहासिक है..और वो इसिलए क्योंकि अमेरिका, भारत को अपनी ऐसी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करने कि लए राजी हो गया है जो उसके अलावा बस फ्रांस , ब्रिटेन और रूस के पास ही है. यहां तक चीन भी अभी तक अपना जेट इंजन बनाने में कामयाब नहीं पाया है.
अब सवाल है कि क्या वाकई अमेरिका भारत का अपना करीबी दोस्त समझने लगा है ? ये सवाल इसलिए अहम है क्योंकि भारतीय जनमानस में अमेरिका की इमेज एक ऐसे देश की रही जिसने हमेशा भारत की तरक्की में रोड़े अटकाने और भारत के कट्टर दुश्मन पाकिस्तान का साथ देने का काम किया है.
और तो और साल 1971 में तो अमेरिका ने भारत के खिलाफ जंग करने के लिए अपनी नेवी के सातवें बेड़े तक को हिंंद महासागर में उतार दिया था.
एक सवाल और है कि किया अमेरिका की दोस्ती भारत की उस आदाज विदेश नीति को खत्म कर देगी जिसके तहत भारत रूस के साथ अपने पुराने ताल्लुकात यूक्रेन युद्ध के दौरान भी निभा रहा है.
इस वीडियो में हम बात करेंगे भारत-अमेरिका के संबंधों के इतिहास की और साथ ही आपको बताएंगे कि कैसे बदलते हालात और चीन के खौफ ने कभी भारत के दुश्मन रहे अमेरिका को दोस्ती का हाथ बढ़ाने कि लिए मजबूर कर दिया है.
भारत के पीएम मोदी की हालिया अमेरिका यात्रा के दौरान जिस तरह के उनके स्वागत में रेड कार्पेट बिछाया गया उससे पता चलता है कि अमेरिका अब भारत को अपने सहयोगी देश के तौर पर देखना शुरू कर चुका है.
भारत को अपने साथ लाना अमेरिका की मजबूरी भी है. दरअसल 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से अगले 30 साल तक अमेरिका दुनिया की इकलौती सुपर पावर के तौर पर राज कर रहा था.
लेकिन अब चीन ने अमेरिका के दबदबे को चुनौती देना शुरू कर दिया है. प्रशांत महासागर के इलाके में चीन अपनी ताकत ते बल पर कई देशों पर दबाव बना रहा जिनमें जापान और साउथ कोरिया जैसे अमेरिका के साथी देश भी शामिल हैं.
यूक्रेन युद्ध ने रूस को चीन के और ज्यादा करीब ला दिया है और अब चीन को काबू में करना अकेले अमेरिका के बस में नहीं है. अमेरिका को डर है कि चीन कभी भी ताइवान पर कब्जा कर सकता है और अगर ऐसा हुआ तो ये अमेरिका के मुंह पर एक तमाचे की तरह होगा क्योंकि अमेरिका किसी भी सूरत में ताइवान की हिफाजत करने की बात कहता रहा है.
अमेरिका चाहता है कि भारत को चीन के बरक्स खड़ा करके एशिया में शक्ति संतुलन को चीन के हक में झुकने से रोका जाए. भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ उस क्वॉड ग्रुपिंग का हिस्सा भी है जिसे चीन अपने खिलाफ मानता है.
यही नही अमेरिका चाहता है कि भारत हथियारों के मामले में रूस पर अपनी निर्भरता कम करे ताकि यूक्रेन युद्ध जैसे मसले पर भारत बिना दबाव के फैसला ले सके.
भारत को अपने साथ जोड़कर अमेरिका आने वाले वक्त में चीन और रूस के गठजोड़ को ताकतवर बनने से रोकना चाहता है और इसीलिए भारत के साथ दोस्ती की नई इबारत लिखी जा रही है.
दरअसल अमेरिका दुनिया का सहबे पुराना डेमोक्रेटक देश है और भारत दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी है. इस लिहाज से भारत और अमेरिका को तो नैचुरल साथी होना चाहिए था लेकिन इतिहास गवाह है कि अमेरिका ने हमेशा अपने फायदे के लिए अपने दोस्त और दुश्मनों की पहचान की है.
साल 1947 में भारत के विभाजन के बाद से ही अमेरिका ने भारत की तुलना में पाकिस्तान को ज्यादा तवज्जो दी.
साल 1960 में अमेरिका के ही दबाव में वर्ल्ड बैंक ने भारत-पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौता करवाया जिसमें भारत की बजाय पाकिस्तान को ज्यादा पानी दिया गया.
हालांकि उस दौर में चीन के मसले को लेकर अमेरिका भारत के पक्ष में रहा. 1959 में अमेरिका की मदद से ही दलाई लामा तिब्बत से भागकर भारत आए थे और 1962 के भारत-चीन युद्ध में भी अमेरिका ने एक हद कर भारत की मदद की थी.
कहा जाता है कि चीन पर नजर रखने के लिए अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने भारत के उत्तराखंड में एक न्यूक्लियर डिवाइस लगाने की योजना भी बनाई थी जो कामयाब नहीं हो सकी.
अमेरिका के सहयोग से ही उस वक्त इंडियन आर्मी ने तिब्बत से आए शरणार्थियों की एक स्पेशल फ्रंटियर फोर्स भी बनाई. ये यूनिट अब भी काम करती है और हाल ही में लद्दाख सेक्टर में चीन की हरकतों के मद्देनजर इसने एक बड़े ऑपरेशन को अंजाम दिया था.
हालांकि पाकिस्तान के लिए अमेरिका की हमदर्दी हमेशा बनी रही.
1965 की जंग में पाकिस्तान जिन पैटन टैंको की दम भारत को चुनौती दी थी वो उसे अमेरिका से ही हासिल हुए थे.
साल 1971 की जंग में तो अमेरिका खुलकर पाकिस्तान के साथ था. जब उसे लगने लगा कि पूर्वी पाकिस्तान में भारत की जीत हो जाएगी तो उसने भारत के खिलाफ अपना सातवां जंगी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेज दिया. हालांकि उसके पहुंचने से पहले ही पाकिस्तान हार गया और बांग्लादेश को आजादी मिल गई.
दरअसल 1970 के दशक में चीन, सोवियत संघ के खेमे से बाहर निकलकर अमेरिका क दोस्त बन चुका था लिहाजा अब अमेरिका को भारत की उतनी जरूरत नहीं रही थी.
1980 के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ मुजाहिदीनों की मदद करने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत थी तो उसने पाकिस्तान को जमकर हथियार और पैसा दिया. इसी पैसे और हथियारों के दम पर पाकिस्तान ने भारत के पंजाब और जम्मू-कश्मीर जैसे सूबों में जमकर आतंकवाद फैलाया लेकिन अमेरिका ने अपनी आंखें मूंदे रखीं.
2001 न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए अल कायदा के हमले के बाद अमेरिका आंखें जरूर खुलीं और उसने पाकिस्तान को आडे़ हाथों लिया लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान से जंग लड़ने में अमेरिका को फिर से पाकिस्तान की जरूरत पड़ी लिहाजा पाकिस्तान को अमेरिका हथियारों और डॉलर्स की सप्लाई फिर से शुरू हो गई.
हालांकि, अमेरिका को अब भारत की उभरती हुई अर्थ व्यवस्था और भारत के बढ़ते हुए मिडिल क्लास के मार्केट का महत्व भी समझ आने लगा और भारत के साथ साल 2005 में उसने न्यूक्लियर डील की लेकिन भारत की असली जरूरत तो उस अब महसूस हुई है जब चीन दुनिया के हर कोने में उसकी बादशाहत को चुनौती दे रहा है.
अमेरिका के साथ दोस्ती से भारत को कई फायदे हैं. अमेरिकी टेक्नोलॉजी से भारत में तरक्की के नए रास्ते खुल सकते हैं. भारतीय फौजों को अच्छी क्वालिटी के हथियार मिल सकते है लेकिन भारत को सतर्क रहने की जरूरत है.
क्योंकि अमेरिका के खेमे में जाकर भारत रूस के साथ अपनी पुरानी दोस्ती को गंवा सकता है. इंटरनेशनल मंच पर भारत की खासियत उसकी आजाद विदेश नीति रही है.
कहा जाता है कि अमेरिका ने साल 2003 में इराक पर हमले के बाद भारत पर भी वहां अपनी फौज भेजने के लिए दबाव डाला था लेकिन भारत ने ये बात नहीं मानी. अफगानिस्तान में भारत ने अमेरिका के कहने पर अपनी फौज भेजने से मना कर दिया था. यूक्रेन युद्ध के दौरान भी भारत रूस के साथ अपनी ताल्लुकात अच्छी तरह से निभा रहा है. लिहाजा अमेरिका से दोस्ती गहरी करते वक्त भारत को इस बात का ख्याल रखना होगा कि उसकी आजाद विदेश नीति बरकरार रहे क्योंकि अपनी जरूरत के हिसाब से दोस्त बदलना अमेरिका की फितरत में शामिल है.
रिपोर्ट: सुमित दुबे
Source : News Nation Bureau